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द्वितीय अध्याय नंबर 13 सद्‌गुरु युक्ति विधान से, सुषमन सम गति होय। सहज योग अभ्यास है, सब योगन पर सोय।

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1 सद्‌गुरु युक्ति विधान से, सुषमन सम गति होय। सहज योग अभ्यास है, सब योगन पर सोय। शब्दार्थ  सद्गुरु, ब्रह्मविद्या-प्रचारक, नित्य, अनादि सद्गुरु (युक्ति) नियम (विधान) नियम, आदेश (सहज योग) विहंगम योग। भाष्य  सद्‌गुरु की युक्ति और उनके नियम, आदेश के अनुसार सुष्मना की गति एक रूप से चलने लगती है। सुष्मना हो जाने पर उसका प्रवाह निशिदिन योगियों में हुआ रहता है। हठयोगी चिरकाल तक प्राणायाम, कुम्भक करके, सुष्मना की गति में अपने प्राण को स्थिर करता है। सुष्मना होने पर ही प्राण स्थिर होगें एवं प्राण के स्थिर होने पर ही उसका प्रवाह लगातार एकरूप से चलेगा। यह अनुभव युक्ति सद्‌गुरु द्वारा प्राप्त होती है और विशेष पदाधिकारी हो सद्गुरु स्वयं सुष्मन प्रवाह कर उसकी आत्मा में अपना समस्त ज्ञान और बल प्रकट कर देते हैं। यह क्रिया विहंगम योगी सद्‌गुरु ही करते हैं। यह सहज योग जिसे विहंगम योग भी कहते हैं, सभी योगों से उत्कृष्ट तथा अलौकिक है। सहज योग का अभ्यास प्राण, मुद्रा एवं कुम्भक के बिना ही स्वाभाविक रूप से सुष्मना के स्थिर होने पर चलता है, इसीलिए इस योग को सहज योग कहते हैं। सहज योग और विहंगम योग दोन...

द्वितीय अध्याय नंबर 12 झीन आय झीना चलो, मन व त्याग संयोग। क्रमसह सुक्षम हो रहो, अग्र गमन गति योग ।।

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1 झीन आय झीना चलो, मन व त्याग संयोग। क्रमसह सुक्षम हो रहो, अग्र गमन गति योग। शब्दार्थ  झीना, परमाणु, सूक्ष्म (क्रमसह) स्थिरांक। भाष्य  आत्मा मुक्ति से क्रमशः सूक्ष्म से स्थूल स्वरूप में आई है। जिस प्रकार से सूक्ष्म रीति से स्थूल शरीर को प्राप्त हुई है, उसी प्रकार क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म हो कर गुरु-विधान द्वारा सद्‌गुरु-प्रदेश में गमन कर गति सम्बन्ध से परब्रह्म को प्राप्त करेगी। इसी को योग कहते हैं। आत्मा प्रथम प्रकृति के सम्बन्ध होने से मन को लेकर इन्द्रिय जगत् में आ जाती है। इसलिए ग्रन्थकार ने मन का सम्बन्ध त्याग कर सूक्ष्म हो कर, क्रमशः आगे गमन करने का उपदेश साधकों को किया है। 2 सुक्ष्मान्तर धस गगन में, अमृत सागर पाट। उमड़ तरंग अपार है, गगन द्वार गम घाट। शब्दार्थ  सुक्ष्मन्तर, अति सूक्ष्म, अन्तर गहराई (धस) गड़, प्रवेश (गगन) आकाश (अमृत सागर) अनंत महाप्रभु (पाट) चौड़ाई (गगन द्वार) चिदाकाश, चेतन मार्ग। भाष्य   सूक्ष्म और सूक्ष्मान्तर दो प्रकार के बाह्य जगत् में पदार्थ होते हैं, परन्तु परब्रह्म इन सभी पदार्थों से अति सूक्ष्म है। इसलिए ब्रह्म-प्राप्ति के लिए सूक्ष्मान्...

अध्याय नंबर 11 पलटि भूमि द्वादश सैन, अचल विराजत सन्त। षोड़श कला से आतमा, प्रकटत फुलत वसन्त।

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 1 पलटि भूमि द्वादश सैन, अचल विराजत सन्त। षोड़श कला से आतमा, प्रकटत फुलत वसन्त। शब्दार्थ  द्वादश सन् ,समाधि भूमि (आत्मा) जीवात्मा (षोडश कला) दश इंद्रिय, पंच प्राण और मन या षोडश ब्रह्माण्डों को देखने की शक्ति (बसंत) आनंद, जीव-ब्रह्म का मेला। भाष्य   विहंगम योग की उच्च भूमि प्राप्त हो जाने पर वह शक्ति आत्मा तथा सारे देह-संघात को पूर्ण कर देती है एवं आत्मा उस व्यापक प्रकट शक्ति का अपने में अनुभव करने लगती है। ज्ञान की पूर्णता होने पर सर्वत्र आनन्द का अनुभव होता है। योगी में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे का भान न होकर एक रस सर्वत्र ब्रह्म सत्ता का अनुभव होता है। विहंगम योग की अन्तिम भूमि को प्राप्त किया हुआ योगी इस आध्यात्मिक रहस्य को जानता है। इन उक्त दोहों में समाधि प्राप्त होने पर योगी की जो स्थिति होती है, उस अवस्था का वर्णन किया गया है। इसका स्पष्ट अर्थ योगी को योगी ही बतला सकता है। यह गुरुगम्य अनुभव तत्त्व है। 2 अन्तर घोटी प्रेम की, पीवत सन्त अघाहिं। सुख शान्ति अविचल मिले, जन्म मरण दुख जाहिं। शब्दार्थ  अंतर घोटी, इंटरनेट में पीने की क्रिया (अविचल) स्थिर (प्रेम) स्नेह आनंद (ज...

अध्याय नंबर 10 अष्ट कमल फूले बिना, ऊर्ध्व दृष्टि नहिं होय। तब तक अन्धा जीव है, अन्तर सूझ न कोय।

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1अष्ट कमल फूले बिना, ऊर्ध्व दृष्टि नहिं होय। तब तक अन्धा जीव है, अन्तर सूझ न कोय। शब्दार्थ  ऊर्ध्व दृष्टि, चेतन दृष्टि अंतर। भाष्य  सूर्य के प्रकाश से ही कमल खिलता है। सूर्य को देख कर कमल के मुख ऊपर को हो जाते हैं और वे कमल प्रफुल्लित हो जाते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म रहस्य के अनुभव प्रकाश में जब चेतन प्रकाश प्रखर रूप में प्रकट होता है, तब शरीर के अन्दर आठों चक्र खिल कर प्रफुल्लित हो जाते हैं और आत्मा की बाह्य दृष्टि बन्द होकर उर्ध्व को देखने लगती है। इस तेजस्वी आकर्षण से प्रकृति के सारे अंग, अवयव खिल कर मूल केन्द्र में खिंच जाते हैं और उस प्रकाश में प्रकृति का अज्ञान-तिमिर क्षय हो जाता है। यह योग-प्रकाश अन्तर-अनुभव साधन का विषय है. जिसे योगाभ्यासी अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। जब तक यह चेतन-दृष्टि प्रकट नहीं होती, तब तक जीव का प्राकृतिक आवरण क्षय नहीं होता और न आत्मिक प्रकाश उदय होता है। विहंगम योग की धारणा से ही उर्ध्व दृष्टि और चेतन अनुभव की प्राप्ति होती है।  2 तन रक्षा भोजन करें, अल्प अहारी सन्त। नाम सनेही विकल हैं, निशि दिन भजन अनन्त। शब्दार्थ  आहार, भ...

अध्याय नंबर 9 अब चल ऊषा काल है, नौबत बाजत द्वार। इधर उधर मत देखिए, चढिये सुरति सम्हार।

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1 अध्याय नंबर 9 अब चल ऊषा काल है, नौबत बाजत द्वार। इधर उधर मत देखिए, चढिये सुरति सम्हार। शब्दार्थ  उषाकाल, ब्रह्ममुहुर्त (नौवत) अभिनंदन (द्वार) द्वार। भाग्य  इस दोहे में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में ब्रह्म-प्रकाश के प्रकट होने का वर्णन किया गया है। जिस प्रकार से सूर्य के उदय होने की स्थिति प्रकट होती जाती है, अन्धकार और निशा भाराणासी प्रकार दूर होती जाती है। ऊषा काल अमृत बेला है, जिस प्रकार सूर्य्य की किरणें नहीं फूटी रहती हैं, बल्कि मरीचिमाली सूर्य अपनी प्रखर शक्ति पृथ्वी पर प्रकट करने की तैयारी करता है और अरुणोदय के आते ही तिमिर का क्षय होने लगता है एवं सूर्य के पूर्ण प्रकट होने पर अन्धकार की अत्यन्त निवृत्ति हो जाती है, इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में ब्रह्म-प्रकाश के उदय होने की स्थिति का वर्णन इस दोहे में किया गया है। आत्मा से प्रकृति की देहों का सम्बन्ध क्रमशः जब छूटने लगता है, तब आत्मा की उत्तरोत्तर गति बढ़ने लगती है। विहंगम योग में सारी क्रिया एक ऊँचे चेतन केन्द्र से होती है। सारी शक्ति मन, प्राण एवं आत्मा की एक स्थिति में केन्द्रीभूत हो जाती है, और सारे ज्ञान प्रकाश धी...

अध्याय नंबर 8 नहीं देह नहिं दृश्य है, नहिं जग सुख दुख भान। श्वेत भूमि यह अगम गम, पूरण पुरुष पुरान।

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अध्याय नंबर 8 नहीं देह नहिं दृश्य है, नहिं जग सुख दुख भान। श्वेत भूमि यह अगम गम, पूरण पुरुष पुरान। शब्दार्थ  दृश्य, प्रकृति संसार श्वेत भूमि समाधि मण्डल पूर्ण पुरुष। भाध्य  जब आत्मा प्रकृति-आधार छोड़कर चिन्मय स्वरूप में आकर ब्रह्मानन्द का आस्वादन करती है, तब देह और देह सम्बन्धी भोगदृश्य सब छूट जाते हैं, क्योंकि आत्मा की चेतना प्रकृति-आधार छोड़कर परब्रह्म में लग जाती है। उस अवस्था में योगी देह में रहते हुए भी विदेह के समान हो जाता है। जब एक पदार्थ का योग होता है, तब स्वाभाविक दूसरे पदार्थ का वियोग हो जाता है। अतएव परब्रह्म की प्राप्ति में प्रकृति का क्रमशः वियोग हो कर आत्मा की विशुद्ध अवस्था प्राप्त होती है। उस अवस्था में मन के अभाव हो जाने से संसार के दुःख-सुख, की प्रतीति नहीं होती। यह सर्वोच्च श्वेत भूमि मन, बुद्धि एवं प्राण से अगम्य है। इनसे उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रकृति पार इस प्रकाशमय भूमि की प्राप्ति से नित्य पूर्ण पुरुष की उपलब्धि एवं जीवन्मुक्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। 2 श्वेत भूमि अन्तिम मिलै, एक राग एक तान है, रोम रोम ध्वनि एक। एक एक रह एक। शब्दार्थ ...

अध्याय नंबर 7 मना क्षणिक वैराग ले, चढ़े उत्तुङ्ग अकाश। तुरत राग में गिरत है, सद्‌गुण जीव विनाश ।

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 अध्याय नंबर 7 मना क्षणिक वैराग ले, चढ़े उत्तुङ्ग अकाश। तुरत राग में गिरत है, सद्‌गुण जीव विनाश ।  शब्दार्थ मन, इन्द्रिय विषय में रहने वाला (क्षणिक) चंचल (वैराग्य) राग की अनिच्छा (उत्तुंग) भारी स्थूल (राग) भोग इच्छा (विनाश) लय। भाष्य  ज्ञानयुक्त वैराग्य ही स्थिर होता है। पूर्ण ज्ञान के पश्चात् ही पूर्ण वैराग्य होता है। मन चञ्चल है, इसलिए विवेकहीन वैराग्य मन का तरंग है। मन के क्षणिक भाव को लेकर जो अध्यात्म पक्ष में आगे बढ़ते हैं, उनको मन का रस प्रलोभन नहीं मिलता। वे मानसिक क्षणिक वैराग्य होने के कारण ध्येय से गिर जाते हैं। उनका लक्ष्य मन के अन्दर है एवं मन के हास-विकास में उनका उत्थान और पतन है। इसलिए मन का वैराग्य लेकर भक्ति-पथ में आगे बढ़ने वाले का शीघ्र राग में गिर कर सद्‌गुणों का विनाश होने से पतन होता है। आत्मा और मन ये दोनों के अलग-अलग क्षेत्र और विकास है। जिज्ञासु के अन्दर जब शुभ गुण, शम, दम आदि प्रकट हो जाते हैं, तभी वैराग्य स्थिर रहता है। संस्कारी आत्माओं के अन्दर सत्याचरण, दृढ़संकल्प और सच्ची गुरुभक्ति होने से मन स्थिर रहता है। वे स्थिर वैराग्य को ज्ञान के द्वारा...

अध्याय नंबर 6 मना पवन अरु सुरति को, समिट भजो सत्य नाम। अर्धभूमि झाँकी नहीं, अविचल स्थिर धाम।

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 शब्दार्थ   मना, इंद्रियों से कार्य करने वाला, विषय-रस प्रलोभी एक अंतःकरण (पवन) प्राण (सुरति) चित्रकला, चेतन शक्ति (समित) एक साथ (सत्यनाम) सार शब्द, पर पुरुष (झांकी) दर्शन (अविचल) दृढ़ (धाम)) चेतन केन्द्र विराजधाम। भाष्य   मन के द्वारा ही इन्द्रियों में गति होती है। मन के सम्बन्ध से ही इन्द्रिय-करणों के विषय-उपभोग से आत्मा को दुःख-सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए इस वाणी में मन को सर्व प्रथम पकड़ने का उपदेश किया गया है। पवन से ही चक्र-नाल और सारे शरीर में क्रिया होती है। शरीर के अन्दर मन और पवन इन्हीं दोनों के द्वारा प्रकृति की सारी क्रियाएँ होती हैं, परन्तु मन और पवन से सूक्ष्म सुरति है, जिसके सम्बन्ध से देह-संघात की सारी क्रियाएँ होती हैं। जब सुरति मन का साथ देती है, तभी मन इन्द्रियों द्वारा अपने समस्त कर्मों को करता है। सुरति, आत्मा की चेतन किरण अर्थात् चेतन शक्ति है। इसलिए प्रकृति देह संघात में विखरी हुई समस्त शक्तियों को लेकर उनके मूल कारण में जब योगी लय कर देता है, तभी आगे का उसका मार्ग प्रशस्त होता है। जब तक मन और पवन में सुरति लगी रहेगी, तब तक आत्मिक चेतना स्थिर नह...

अध्याय 5 रहनी गहनी सन्त की, करनी विमल विवेक । सत्य सत्य रह सत्य में, सत्य भेष सत्य टेक।

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 शब्दार्थ रहनी स्वभाव (गहनी) अभ्यास, सयुक्ति करनी कर्त्तव्य, साधन में पुरुषार्थ सत्य सत्याचरण सभेद् युक्ति से पुरुषार्थ करने वाला पवित्र आत्मा (सत्य) सत्य सिद्धान्त में अविचल दृढ़ विश्वास (सत्य) अनिर्वाच्य परब्रह्म सत्य भेष, मन, वाणी, व्यवहार से पवित्र (सत्यटेक) एक अनन्य शुद्ध निष्काम पवित्र भक्ति अर्थात् एक ध्येय। भाष्य  इस दोहे में जीवन के अध्यात्म पथिक-प्रभुभक्त अनुरागियों को पवित्र होने का उपदेश किया गया है, जिसका व्यवहार सत्य नहीं है, जिसकी रहनी गहनी और कर्त्तव्यनिष्ठा सच्चे रूप में नहीं है, वह महान् लक्ष्य, परम प्रभु को नहीं प्राप्त कर सकता। ब्रह्मविद्या केजिज्ञासुओं को अत्यन्त आवश्यक है कि सत्यव्यवहार, सत्याचरण, सत्य अनुराग, सच्ची श्रद्धा और सच्ची गुरुभक्ति को धारण कर सत्य स्वरूप परम प्रभु को पाने की चेष्ठा करें। वह परब्रह्म सत्य है, तब मेरा भी आचरण और व्यवहार सभी सत्यमय होना चाहिए। सत्यनिष्ठ के जीवन में आत्मिक बल स्वाभाविक रूप से पाया जाता है। सत्य वह है, जो तीनों काल में एक रूप से रहे। जिसका सिद्धान्त सत्य है, पुरुषार्थ, अभ्यास, कामनारहित, सत्यमय है तथा जिसका व्यवहार...

अध्याय 4 ब्रह्मविद्या परकाश है, भक्ति मुक्ति सुखधाम। गाथा यह अध्यात्म है, अमत सनातन नाम।

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  शब्दार्थ   ब्रह्मविद्या पराविद्या भक्ति, चेतन साधन, अनन्य एक धार से प्रभु में परम प्रेम मु क्ति बंधन-निवृत्ति अमृत, जिसका प्राकृतिक कोई मार्ग नहीं है सनातन नाम, अनादि। भाष्य  ब्रहाविद्या के प्रकाश में चेतन साधन, अनुभव योग-युक्ति द्वारा चेतन धाम, परम पुरुष की प्राप्ति होती है। यह तत्त्वज्ञान आध्यात्मिक है। किसी मच या सम्प्रदाय की गाथा नहीं है. बल्कि सनातन ब्रह्मविद्या तत्त्वज्ञान प्रकाश है। सनातन ब्रह्मविद्या का प्रकाश सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही संसार में चला आ रहा है। आधुनिक तत्त्वज्ञान वाचक ज्ञान के अतिरिक्त जहाँ परब्रह्मप्राप्ति का कोई अनुभव साधन नहीं है, वह ब्रह्मविद्या नहीं है, बल्कि मत-सम्प्रदाय है। शरीर, मन, बुद्धि एवं वाणी के साधन से परब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि वह परब्रह्म मन, बुद्धि और इन्द्रियागोचर है। प्रकृति पार वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रकृति-पार साधन चाहिए। इसलिए वह अप्राकृतिक परब्रह्म इन मन-वाणी के साधन एवं मनोरंजन से दूर है। इसकी प्राप्ति सनातन ब्रह्मविद्या, जो सम्प्रदाय, मत और विचार से रहित। 2 त्रयगुण धर्मसंबंध में, मिले न निर्गुण नाम। निर...

1 सहज मुक्त पर बुद्ध है, अमृत शुद्ध स्वरूप। पर अपरा में एक है, अद्भुत पुरुष अनूप।

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 शब्दार्थ  सहज मुक्त प्रकृति से ही बंधनरहित प्रबुद्ध चैतन्य एक रस है जिसका अर्थ है ज्ञान है अमृत, नित्य जिसका स्वरूप सदैव एक समान रहता है शुद्ध स्वरूप प्रकृति आधार कल्याण समाधि मंडल, साकेत धाम में पवित्र सच्चिदानंद स्वरूप पर दूसरा, एक पाद प्रकृति मण्डल (अपरा) विराज धाम, परम प्रकाश, निःशब्द, परमानन्द सत्पुरुष। भाष्य  परब्रह्म स्वभाव से ही मुक्त है। जीव प्रयास करके कर्मबंधन से वस्तु मुक्तहोता है, परन्तु वह परमानन्द, परब्रह्म स्वरूप से ही मुक्त है। इसलिए उसे सहज मुक्त कहते हैं। होता ष्टि, प्रलय, विकास, पतन या प्रकृति के प्रत्येक परिवर्तन में एक रूप से समान स्थिर रहता बृह यह सर्वान्तर्यामी होकर आकाश की भाँति सब में व्यापक एवं सर्वाधार हो, असंग एवं निर्लेप होकर अपने शुद्ध स्वरूप में सदैव विराजमान रहता है। उसका ज्ञान, क्रिया तथा स्वभाव सदैव नित्य एक रूप से रहते हैं। उसके ज्ञान में हास-विकास नहीं होता। अतः, वह परब्रह्म नित्य, ज्ञानवान, सदैव प्रबुद्ध है। परब्रह्म के नित्य, ज्ञानवान् वस्तु होने से उसके स्वरूप में भ्रान्ति या रूपान्तर नहीं होता, न वह कार्यरूप हो सृष्टि का उपादान हो...