चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 27 महि समान साधू रहैं, गुण आपन नहिं जान। तबहिं सन्त पद बनत है, सर्व ज्ञान गुण खान।

1 महि समान साधू रहैं, गुण आपन नहिं जान। तबहिं सन्त पद बनत है, सर्व ज्ञान गुण खान।

शब्दार्थ

 (महि समान) पृथिवी के समान (साधू) सन्त (गुण) महिमा (सर्वज्ञान) जड़-चेतन समस्त ज्ञान (गुण) ऐश्वर्य, विद्या (खान) खानि, आकर।

भाष्य

 पृथिवी समस्त रत्नों की खानि है। इसी के अन्दर समस्त रत्न एवं धन प्राप्त होते हैं। सर्व रत्नों को पृथिवी छिपाकर रखती है, फिर भी वह अपनी महिमा को नहीं जानती, बल्कि जड़ हो कर रहती है। इसी प्रकार अनुभवी सन्त अपनी महिमा को जानते हुए भी संसार में अपने महत्व को न जानकर प्रभु की शरण में दीन-अधीन हो कर उसकी भक्ति में लगे रहते हैं। प्रभु की महिमा को ही अपनी महिमा समझ निशिदिन संसार से उदासीन हो प्रभुभजन में लगे रहते हैं। सन्त को भीतरी बाहरी एवं जड़-चेतन समस्त तत्वों का अनुभव बोध होता है। सर्व ज्ञान संसार में योगी सन्तों के द्वारा ही प्रकट होते हैं, इसीलिए सर्वज्ञान और गुणों की खानि सन्त को बतलाया गया है। संसार में सबसे उच्च पद सन्त का है और आध्यात्मिक जगत् में ब्रह्मविद्या के सब कलाओं के ज्ञाता सर्वद्रष्टा का पद सन्त से भी श्रेष्ठ है। एक सद्‌गुरु से अनेक सन्त बनते हैं। इसलिए सन्त में सद्गुरु और प्रभु की विमल आभा आती है, जिससे सन्त के अन्दर अनेक ज्ञान, विज्ञान, योग-समाधि अवस्था में आपे-आप प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे ज्ञान और गुण के होने पर भी सन्तजन अपनी महिमा को न गाकर उस परमप्रभु की महिमा ही गाते हैं और उसी में सदैव निमग्न रहते हैं। इसलिए पृथिवी के समान सर्व गुण-ज्ञानों की अपने अन्दर रक्षा करने से सन्त की विशेष महिमा है। ब्रह्मविद्या की गोपनीय महती शक्ति को प्राप्त करके भी जो अन्तर में सदैव निरत है, और अपनी महिमा को नहीं जानते, वे ही सन्त का पद पाते हैं और अपने सर्व गुणों से प्रकाशमान हो कर सुशोभित होते हैं। अतएव सन्तपद सर्वश्रेष्ठ और पूजनीय है।


2 मल न दोष दुर्गुण रहित, निर्मल दर्पण भान। प्रभु अधिकारी मिलन का, व्यर्थ कथन भ्रम जान।

शब्दार्थ

 मल गुण, गंध (दोष) राग, द्वेष, मोह (दुर्गुण) आत्मा की उत्पत्ति में बाधक गुण प्रकृति के विपरीत व्यवहार, जिससे देश, समाज और आत्मा का आधिपत्य हो जाता है (निर्मल) मन, पर्दा-अनुभूति (दर्पण) ऐनक, शेषा (भान) प्रकाश (प्रभु अधिकारी) प्रभु-प्राप्ति करने वाला, सोम-रस-पिपासु, प्रभु का भक्त (मिलन) संयोग, मत (भ्रम) ज्ञानरहित (व्यर्थ) निरर्थक ।

भाष्य

 मल रहित शुद्ध - स्वच्छ दर्पण में अपना चित्र स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार सर्व दोष-दुर्गुणों से रहित अधिकारी आत्मा को प्रभु का मिलन अर्थात् प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त कथन व्यर्थ भ्रम है, अर्थात् अधिकारी के एकमात्र सर्व दोष-दुर्गुणों से रहित हो जाने पर आपे-आप सभी आध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त करने के गुण आ जाते हैं। अब उसे दूसरे प्रकार के गुण प्राप्त करने की व्यर्थ चिन्ता नहीं रखनी पड़ती है। जब जिज्ञासु को प्रभु-प्राप्ति करने की इच्छा उदय होती है, तब उसके सारे दोष-दुर्गुण क्रमशः दूर होने लगते हैं और वह आगे अपने सन्मार्ग पर बढ़ने लगता है, जैसे बसन्त ऋतु के आने पर स्वाभाविक पुराने और नये वृक्षों में रस आने से वे पल्लवित और पुष्पित होने लगते हैं।

3 जाको प्रभु प्रियतम बने, प्रभु को प्रिय है सोय। जाहि वरण प्रभु करत है, ता कहँ दरशन होय।

शब्दार्थ

 (प्रभु) परम पिता, जगन्नियन्ता, सर्व अन्तर्यामी प्रभु (प्रियतम) अत्यंत प्रिय, अपना भक्त, प्रेमी, कृपा पात्र (वरण) भागीदार, दर्शन (दर्शन) साक्षात्कार।

भाष्य

 जिसको प्रभु प्रियतम होते हैं, वही प्रभु का प्रिय होता है एवं जिसको प्रभु वरण करते हैं, उसी को अपना अपरोक्ष, साक्षात्कार हो दर्शन देते हैं। जिसका सर्वस्व प्रभु है, वही प्रभु का सच्चा प्रिय होता है, उसी को प्रभु अपना जान साक्षात्कार दर्शन दे कृतकृत्य करते हैं। प्रभु द्वारा ही आत्मा को सब कुछ प्राप्त होता है। अतएव सर्व ओर से अपने स्नेह को एक प्रभु में लगाने से ही पूर्ण आनन्द और शान्ति की प्राप्ति होती है।

4 लक्ष्य बनाओ प्रभु मिलन, जीवन का उद्देश्य। प्रभु प्राप्ति सब मिलन है, नाश अमिल जग वेश।

शब्दार्थ

 (लक्ष्य) आधार, उद्देश्य (उद्देश्य) अर्थ, प्रस्ताव, लक्ष्य (अमिल) अनित्य, एक रूप से न रहने वाला, अमेल वस्तु (वे) श्रृंगार, स्वरूप।

भाष्य

 मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य प्रभु की प्राप्ति है. इसलिए प्रभु प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए। उसी की प्राप्ति में सब कुछ प्राप्त हो जाता है। जगत् अनित्य-स्वरूप है। उसका एक रूप नहीं रहता, इसलिए इस नाशवान् जगत् से उपरम हो कर नित्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिए।

5 क्षर में भी अक्षर रहे, निःअक्षर आधार। कोरे नहिं जड़ शब्द है, क्षर में भी दो सार।

शब्दार्थ

 (क्षर) अनित्य ब्रह्माण्डी अनहद (अक्षर) आदि अक्षर ब्रह्म (नःअक्षर) निराधार अक्षर से भिन्न सूक्ष्म निःशब्द, सारशब्द।

भाष्य

क्षर एवं अक्षर दोनों का आधार निःअक्षर सारशब्द है। क्षर-अक्षर दोनों में सारशब्द ओत-प्रोत व्यापक है। अनहद आदि जड़ शब्द भी अक्षर से शून्य नहीं हैं, बल्कि पंच शब्द अनहद आदि क्षर शब्दों में अक्षर और निःअक्षर दोनों एक रस व्यापक हैं।

6 सकल पदारथ सृष्टि के, अक्षर अक्षर मेल। बाहर क्षर वे निमित हैं, कारण आतम केल ।

शब्दार्थ

अक्षर) सारशब्द (अक्षर) ब्रह्म, एक पाद स्थानीय प्रजापति, अकह वाणी (निमित) आदि कारण (कारण आत्म) आधार स्कम्भ।

भाष्य

 निःअक्षर सारशब्द के आधार पर अक्षर सम्बन्ध से सृष्टि के सकल मादक द्रव्य का निर्माण होता है। बाह्य क्षर शब्दों का आधार, स्कम्भ, सारशब्द, निःअक्षर, परमप्रभु है।

7 ज्ञान राशि भण्डार है, निःअक्षर सब पार। ज्ञान अनंत कोट है, पूर्ण कला अपार ।

शब्दार्थ

(निःअक्षर) सारशब्द (सब पार) प्रकृति आत्मा अक्षरसे सूक्ष्म सर्वोपरि (असीम) सीमावस्तु (पूर्ण कला) समग्र ज्ञान-विज्ञान से अपरिपक्व (अपार) सीमावस्तु।

भाष्य

प्रकृति आत्मा से सूक्ष्म क्षर-अक्षर पार निःशब्द परम पुरुष समस्त ज्ञानों की राशि है अर्थात् ज्ञान का समुद्र है। अनन्त प्रभु का अनन्त ज्ञान है एवं वह असीम परिपूर्ण परब्रह्म अपनी पूर्ण कला से भी अनन्त अपार है। वह अनन्त कला, अनन्त शक्ति तथा अनन्त ऐश्वर्यों से सर्वत्र परिपूर्ण है। अनन्त का अन्त नहीं है एवं उस अनन्त महाप्रभु की महिमा, क्रिया एवं बल भी अनन्त है। जगदीश्वर परमप्रभु सबमें व्यापक हो कर शुद्ध तीन पाद अमृत से परिपूर्ण व्यापक हैं। अतएव उसकी सीमा नहीं कि कहाँ से कहाँ तक है, इसलिए उस प्रभु को अनन्त कहा गया है।

8 सुक्ष्म शरीर अभाव में, कारण देह अभाव में, स्वप्न अवस्था जाय। घोर सुषुप्ति नशाय ।

शब्दार्थ

 (अभाव) त्याग (सूक्ष्म शरीर) इंद्रिय, अंतःकरण, प्राण (कारण देह) जड़ प्रकृति मूल शरीर (सुषुप्ति) निद्रा, जिसमें तमोगुण के प्रभाव से बाह्य ज्ञान का अभाव हो जाता है और आत्मा प्रकृति के गुणों में स्थिर-शांत रहता है (नाशाय) अस्तित्व, अभाव।

भाष्य

 सूक्ष्म शरीर के अभाव हो जाने पर स्वप्न अवस्था का भी अभाव हो जाता है, क्योंकि जब स्वप्न देखने वाला शान्त हो जाता है और बाह्य प्रतीति बन्द हो जाती है, तब स्वप्न की स्थिति नहीं रह जाती है। इसी प्रकार योगाभ्यास में जड़ चेतन की ग्रन्थि खुले जाती है, तब घोर सुषुप्ति का भी अभाव हो जाता है। आत्मा सुषुप्ति के अभाव में आत्मस्वरूप की प्राप्ति और परमानन्द की उपलब्धि के लिए आगे बढ़ती है। योगाभ्यासी अनुभवी साधक इस तत्त्व ज्ञान-भेद-रहस्य को पूर्ण रूप से जान सकेंगे। सब विषयों का अनुभव साक्षात्कार होने पर पूर्ण बोध और स्पष्ट तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है।

9 एक तार चाटक लगे, देह अवस्था जाय। क्रम उन्नति क्रम छुटत है, चर्म सिमा पर आय।

शब्दार्थ

(एक तार) एकमय, एक स्वरूप (चातक) देखना, ध्यान, तन्मयता (चर्म सीमा) अन्तिम सीमा।


भाष्य

 सद्‌गुरु प्रदेश में एक तार स्थिति हो जाने पर सर्व देह की अवस्थाओं का अभाव हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की उन्नति होती है, उसी प्रकार क्रमशः देहों का भाव छूटता जाता है और आत्मा अन्तिम लक्ष्य पर पहुँच जाती है।

10 त्याग मायि अभिमान को, शब्दाकार विवेक । अपरछिन्न अनुभव चले, उमगत उमड़त एक ।

शब्दार्थ

(त्याग) छोड़, विलग (मायि) प्राकृतिक माया सम्बन्धी (शब्दाकार) शब्दाधार एक स्वरूप (विवेक) ज्ञान (अपरछिन्न) सीमा रहित व्यापक (अनुभव) यथार्थ प्रत्यक्ष ज्ञान, क्रियात्मक बोध (उमगत) उत्साह तथा आनन्द युक्त आगे बढ़ना (उमड़त) अन्दर से प्रवृद्ध होकर बढ़ते जाना (एक) अद्वितीय।

भाष्य

 ब्रह्मविद्या योगाभ्यास के द्वारा मायिक सम्बन्धों को त्याग कर एक शब्दाकार विवेक होने पर सर्वव्यापक सत्ता का परिपूर्ण अनुभव होने लगता है और आत्मा अपनी शक्ति का पूर्ण विकास करती हुई ध्येय के स्वरूप में तन्मय हो कर लोह अग्निवत् एक हो जाती है। समाधि में जीव ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। समाधि अवस्था में ध्याता, ध्यान, ध्येय एवं त्रिपुटी का अभाव हो जाता है। इसके कारण बाह्य जगत् के अभाव हो जाने पर आत्मा और ब्रह्म की तन्मयता होने से इस पद में एक शब्द का प्रयोग किया गया है। समाधि में जीव ब्रह्म को प्राप्त कर आनन्द में निमग्न होने के कारण उसका स्वरूप शून्य-सा हो जाता है। ज्ञान की निमग्नता इतनी हो जाती है कि परब्रह्म के आनन्द में दूसरे पदार्थ का ज्ञान वह नहीं रखता। इसी को आत्मा और ब्रहा का एकत्व कहते हैं। इसी भाव को ले कर इस पद में एक हो जाने का विवेक बतलाया गया है।

11 शब्द धाम स्थिर रहे, देह सब जड़वत जाव। शुद्ध कर्म गुण उदय में, वास्तु सर्व अभाव।

शब्दार्थ

 (शब्द धाम) अक्षर मंडलं पार, सद्गुरु निवास चेतन धाम (देह) प्राकृतिक शरीर (शुद्ध कर्म) प्राकृतिक आधार मोक्ष, शुद्ध आत्मा का चेतन निवास (अभाव) छूटना, त्याग।

भाष्य

चेतन धाम अर्थात् ब्रह्मविद्या की सर्वोच्च भूमि में आत्मा की चेतना स्थिर हो जाने पर प्राकृतिक सभी जड़ देहों के भाव छूट जाते हैं एवं आत्मा के चेतनत्व के शुद्ध प्रकाश के उदय हो जाने पर उसके स्वाभाविक गुण और कर्म प्रकट होने लगते हैं एवं प्राकृतिक सभी अवस्थाओं के धर्मों का अभाव हो जाता है।

12 कर्म भ्रमण जग विघ्न है, अभ्यासी को जान। एक एकान्त नहीं गुहा, विपिन शिखर शुभ मान।

शब्दार्थ

(कर्म भ्रमण) तीर्थयात्रा लेकर संसार में घूमना (विघ्न) बाधा (अभ्यासी) साधक, योगाभ्यास करने (गुहा), गुफा, कन्दरा (विपिन) वन (शिखर) पर्वत की चोटी (शुभ मान) स्कीपर (एक) अकेला (एकान्त) निर्जन।

भाष्य

योगाभ्यासी अर्थात् प्रारम्भिक साधन करने वाले साधक को मन-माया को ले कर संसार का भ्रमण करने से विघ्न उपस्थित होता है, इसलिए योगाभ्यासी को संसार-भ्रमण परित्याज्य है। एकाकी, अकेला ही रहकर पूर्ण रीति से भजन होता है। गुहा, वन और पर्वत पर निवास करने से ही एकान्त का पूर्ण लाभ नहीं प्राप्त होता। निर्जन और एकान्त स्थान में भी मन शान्त नहीं है, तो वहाँ निवास करने मात्र से ही योग की सफलता प्राप्त नहीं होती। एक ही एकान्त होता है, जहाँ एक से अनेक व्यक्तियों का सम्बन्ध लगा हुआ है, ऐसी गुहा और वन, पर्वत के निवास से कोई लाभ नहीं है। योग-समाधि अनुष्ठान में दीर्घ काल तक दृढ़ासीन होने वाला योगी एक ही स्थान पर बैठकर ब्रह्म-सुख-समाधि में निमग्न होता है। ब्रहा-प्राप्ति, जीवन्मुक्ति हो जाने पर योगीजन संसार के कल्याण-उपदेश के लिए जगत् में भ्रमण करते हैं, केवल साधन अभ्यास काल में संसार का भ्रमण निषेध है. इसलिए एकाकी ही साधक एकान्त सुख का लाभकरता है। पुरुषों को सद्‌गुरु-शरण में रहकर सेवा-सत्संग करने के कुछ काल पश्चात् एकान्त निवास की आवश्यकता होती है। योगी के लिए ही एकान्त है और संसारी जनों के लिए एकान्त विषतुल्य है।

13 उत्तम सहजा वृत्ति है, एकाकी एकान्त। निष्पृह भजन विवेक में, विविध ठाम रह शान्त ।

शब्दार्थ

 (सहजा वृत्ति) मन, इन्द्रिय की व्यग्रता शान्त होने पर साधक की अन्तर्मुख चेष्ठा होने लगती है और वह जगत् में उदासीन हो प्रभु विरह में अनुरक्त हो साधन में लवलीन रहता है। इसी को सहजावृत्ति कहते हैं। (एकाकी) अकेला (एकान्त) अलग, निर्जन, न्यारा (निष्पृह) सांसारिक इच्छा से रहित (विवेक) अनुभव-भेद-तत्त्वज्ञान (विविध) अनेक (ठाम) स्थान (शान्त) निमग्न द्वन्द्वरहित।

भाष्य

 सन्त, योगाभ्यासी को भजन के लिये तितिक्षु बनकर सहजा वृत्ति से अकेला निर्जन स्थान में रहना उत्तम है। वह विरक्त सन्त संसार की आश-वासना से रहित होकर, अकेला विविध स्थानों में रह अपने भजन विवेक में आनन्दित हो शान्त रहते हैं।

14 प्रभृति गुहा जंगल नदी, झरना निर्जन धाम। सेवक रहित एकान्त में, भजन बने निष्काम ।

शब्दार्थ

 (प्रभृति) अन्य (गुहा) मिट्टी या पर्वत की गुफा, कंदरा (झरना) जलप्रवाह (निर्जन धाम) एकाकी स्थान (भजन) प्रभु की आराधना (निष्काम) इच्छा से संबंधित।

भाष्य

 पर्वतीय या कृत्रिम गुहा, नदी, वन, झरना या निर्जन स्थान में निष्काम हो सेवक रहित अकेला रहकर भजन होता है। कृत्रिम गुहा ऐसी होनी चाहिए जो जमीन में खोदकर न बनाई गई हो, बल्कि पृथिवी के ऊपर ऊँचे स्थान पर हो, जहाँ पर वायु दोनों ओर से गुहा में प्रवेश करता हो। जहाँ पर वायु नहीं है, पृथिवी की गर्मी से और शरीर में मल दोष होने के कारण मस्तिष्क क्षय या अनेक प्रकार की व्याधियों के होने का भय बना रहता है. इसलिए गुहा में निवास करने वालों को भोजन, संयम, सदाचार और शरीर की शुद्धि पर विशेष ध्यान दे निवास करना चाहिये। सूर्य की किरण, ब्राह्ममुहूर्त की वायु और जल गुहा में निवास करने वाले के लिए अतीव आवश्यक है। अनुकूल जड़ी-बूटियों के प्रयोग द्वारा एवं बाह्मी, गोघृत और धारोष्ण दूध, आवश्यक फल, फूल एवं कन्द का सेवन करके दृढासीन योगी परब्रह्म प्राप्ति का साधन करें। सद्‌गुरु आदेश नियम में रहकर ही जब अन्तर की सुधि प्राप्त होने लगे, तब गुहा अनुष्ठान और गुहा-निवास लाभप्रद, उत्तम होता है। सभी काल और सभी अवस्थाओं का ज्ञान रख करके गुरु नियम में रहने वाला ही गुहा निवास और अनुष्ठान करके ब्रह्मप्राप्ति का साधन कर उत्तम लाभको प्राप्त करता है। मनमुखी सद्‌गुरु विहीन, संशयशील, मान-प्रतिष्ठा का लोलुप साधक, गुहा निवास करके भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। सद्‌गुरु-प्रकाश और उसके नियम-मर्यादा-व्यवहार के अनुकूल रहकर गुहा निवास करने पर ही सद्‌गुरु की दया और प्रभु की असीम कृपा से सफलता प्राप्त होती है। केवल गुहा में रहने से ही तत्त्वज्ञानबोध एवं अनुभव गमन की स्थिति दृढ़ नहीं हो सकती, इसलिए सद्‌गुरु-आज्ञा और उनकी छत्रच्छाया में ब्रह्मविद्या योग का साधन और उसकी अनुभव प्राप्ति करनी चाहिए।

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