चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 28 उत्तम एकाकी रहे, मध्यम सेवक संग। कनिष्ठ अनेको साथ में, अधम नगर बहु रंग।
1 उत्तम एकाकी रहे, मध्यम सेवक संग। कनिष्ठ अनेको साथ में, अधम नगर बहु रंग।
शब्दार्थ
(उत्तम) प्रथम (मध्यम) दूसरा (कनिष्ठ) छोटा (अधम) नीच, चतुर्थ श्रेणी।
भाष्य
उत्तम भजन एकाकी होता है। जहाँ पर दूसरा कोई नहीं है। मध्यम भजन सेवक को साथ रखने वाले का होता है और कनिष्ठ भजन अनेकों के साथ रहकर होता है एवं अधम भजन नगर और अनेक रंग-राग में रहने वालों का होता है।
2 अनन्य भक्त आशा तजे, जग से रहे निरास। संरक्ष प्रभु आप हैं, भक्ति रहस्य विलास ।
शब्दार्थ
अनन्य भक्त) जिसको प्रभु के अतिरिक्त दूसरे की आशा नहीं है, एक आशा प्रभु की है, उसी को अनन्य भक्त कहते हैं (निरास) आशा से रहित (संरक्षक) रक्षा करने वाला (आप) परम पिता प्रभु (भक्ति रहस्य) प्रभु उपासना का अनुभव-भेद-साधन (विलास) आनन्द, परम सुख।
भाष्य
प्रभु का अनन्य भक्त संसार की समस्त आशाओं को छोड़कर प्रभु की एक आश रखता है। जगत् की उसे किसी प्रकार की आशा नहीं रहती। संसार की आशा ही बन्धन-दुःख का कारण है। जिसे संसार की आशा लगी है, वह प्रभु का सच्चा भक्त नहीं है, न उसकी शरण को प्राप्त करता है। अनन्यशरण प्रभु भक्त को प्रभु के अतिरिक्त दूसरे की आशा नहीं होती, इसीलिए निष्कामी प्रभु भक्त की आशा को परम प्रभु स्वयं पूर्ण करते हैं। अनन्य शरण भक्त के संरक्षक प्रभु स्वयं होते हैं और वह उनकी शरण में भक्ति के अनुभव भेद परम सुख को प्राप्त करता है।
3 मिलना प्रभु से चाहते, तो तुम मिलो न काहु। माया संग्रह त्यागिए, एक लीन अज आहु ।
शब्दार्थ
(मिलना) प्रभु की प्राप्ति (काहु) किसी को (मायासंग्रह) संसार का संग्रह, सुखोपभोग की प्राप्ति की इच्छा, संग्रह करना (एकलीन) एक प्रभु-भक्ति में तन्मय (अज) नित्य (आहु) कथन करते हैं।
भाष्य
जब तुम प्रभु से मिलना चाहते हो, तो तुम दूसरे किसी से क्यों मिलते हो? संसार के संग्रह विषय उपभोग की इच्छा को छोडकर एक नित्य परम प्रभु की भक्ति में तल्लीन हो जावो। सृष्टि प्रारम्भ काल से सभी ऋषि-महर्षियों ने इसी अनुभव सिद्ध मार्ग का प्रतिपादन किया है। बिना प्रभु-प्राप्ति के माया नहीं छूटती। संसार सागर से पार होने के लिए एक मात्र प्रभु की उपासना ही है।
4 मैं अपने को आप में, रखें जहाँ तहवाँ रहूँ, करत समर्पण पाहि। करे करावै ताहि ।
शब्दार्थ
(आपमें) प्रभु के शरण में (समर्पण) सर्वस्व अर्पण।
भाष्य
मैं अपने को प्रभु की शरण में समर्पण करता हूँ। वह जहाँ रखे वहीं पर रहूँ एवं वह जो करावे वही करूँ। जब प्रभु की शरणागत हो जाने पर प्रभु के नियम, आदेश के अनुकूल ही सारा जीवन व्यतीत होता है, तब प्रभु-प्राप्ति का सच्चा सुख प्रभु भक्त को प्राप्त होता है। इसी को प्रभु की अनन्यशरण भक्ति कहते हैं।
5 माया सींचे दुख मिले, सिंचत बबुर में काँट। सेवे प्रभु अमृत मिलै, सद्गुरु भव दुख काट ।
शब्दार्थ
(माया) संसार (सींचे) विषय सुख की प्राप्ति (दुख) दुख,परिताप (बबुर) बबूल, कटिला वृक्ष (कोट) कांट जिससे पैर में कठिनाई होती है (प्रभु) जगदीश्वर (भव-दुःख) त्रिताप (कट) अलग। और भी बहुत कुछ है
भाष्य
इन्द्रिय सुखोपभोग में मन को सुख प्राप्त होता है, जब उसका वियोग या उस उपभोग वस्तु की सुख-प्राप्ति में बाधा पड़ती है, तब हृदय में परिताप, कष्ट होने लगता है, इसलिए आत्मिक उत्थान इच्छुक विवेकी पुरुषों को आवश्यक है कि संसार-विषय-माया-सम्बन्ध को छोड़कर एक मात्र प्रभु-प्राप्ति के साधन में लग जावें। जिस प्रकार बबूल वृक्ष के सींचने से उसमें काँटा ही पैदा होगा, उसी प्रकार इन्द्रियजन्य सुख के उपभोग करने पर उसके परिणाम में आत्मा को दुःख ही प्राप्त होता है। अतएव प्रभु की सेवाभक्ति से सद्गुरु द्वारा भवबन्धन दुःख छूट जाने पर अमृत परमानन्द की प्राप्ति होती है।
6 एक एकान्त दो द्वन्द्व है, तीन ग्राम सम जान। पांच नगर सम मानिये, भजन एक परमान।
शब्दार्थ
(एकान्त) अकेला, जहाँ दूसरा कोई नहीं है (द्वन्द्व) कलह, अशान्ति (ग्राम) गाँव (नगर) बड़ा जन समूह (भजन) प्रभु की भक्ति (परमान) आदर्श।
भाष्य
अकेला को एकान्त कहते हैं। जब दो हो गये तब दो के सम्बन्ध से द्वन्द्व हो जाने का भय होगा, इसलिए दो का सम्बन्ध भी उपयुक्त नहीं है। तीन व्यक्तियों के हो जाने से ग्राम बन जाता है अर्थात् तीन के सम्बन्ध को ग्राम जानना चाहिए। जहाँ पर पाँच का समूह हो गया, उसे नगर के समान जानना चाहिये, इसलिए इन सबको छोड़कर अकेला निर्द्वन्द्व होकर भजन करने का विधान सर्वश्रेष्ठ है।
7 नाम धनी शिर सौंप कर, सन्त विजयता होय। मरे डरे कायर बने, धिक जीवन जग सोय ।
शब्दार्थ
(नाम धनी) सब नामों का स्वामी, चराचर जगत् का स्रष्टा, निःशब्द परम पुरुष (शिर सौंप) जीवन की डोरी देकर (संत) विहंगम योग का साधक (विजयता) विजय प्राप्त करने वाला (कायर) कातर, डरकपोक, आलसी (धिक जीवन) गिरा हुआ जीवन।
भाष्य
नाद, विन्द एवं अनहद सभी नामों का आधार, स्कम्भ स्वामी होने से परम पुरुष सारशब्द को नामधनी कहते हैं। उस नाम धनी को तन, मन एवं आत्मा सर्वस्व समर्पण कर सन्तजन प्रकृति पर विजय प्राप्त करते हैं। जब तक अपने को प्रभु में समर्पण नहीं करेगा, तब तक अपना अभिमान रहेगा, उसका आधार प्रभु नहीं हो सकता। जिसने प्रभु को सर्वस्व अर्पण कर अपने को प्रभु में दे दिया है, वही आत्मसमर्पित सन्त प्रकृति रूपी दुर्ग को जीत कर उसका विजेता होता है। प्रभु को पाने वाला ही प्रकृति पर विजयी होता है। जो प्रभु को आत्मसमर्पण नहीं कर सकता, वह प्रकृति के चंगुल में पड़कर प्रकृति के त्रिविध तापों से तपित होता है एवं किंकर्त्तव्यविहीन हो, दीन-अधीन जीवन को प्राप्त कर महान् कष्ट को पाता है।
8 पलट प्रकृति विलोम को, कारज कारण होय। मरे दोषमय प्रकृति का, हंस असंग समोय ।
शब्दार्थ
(प्रकृति) त्रिगुणमयी माया (पलट) उलटा (विलोम) विपरीत, नक्षत्र, नीचे से ऊपर (कारज) विकृति, कारण से बना हुआ पदार्थ पदार्थ (कारण) आधार, निमित्त, मूल (दोषमय प्रकृति) त्रिविध गुणों से युक्त राग-द्वेष, मोहावली प्रकृति (हंस) आत्मा (असंग) संगरहित, आनन्द।
भाष्य
सहज योगी सद्गुरु-भेद-साधन अभ्यास के द्वारा प्रकृति की बहिर्मुख प्रवृत्ति को अन्तर्मुख कर क्रमगति से उसके मूल कारण में, उसके कार्यों को लय कर देता है और प्रकृति के त्रिगुण द्वन्द्वों को नष्ट कर, त्रिविध दोषों से रहित हो शुद्ध हो कर परब्रह्म को प्राप्त करता है।
9 मन मरते इन्द्रिय मरे, अन्तर कमल सुवास । लक्ष्य शान्त स्थिर रहै, चेतन अनुभव भास ।
शब्दार्थ
मन मरते) मन के अभाव होने से (इंद्रिय मरे) इंद्रिय विषयों का प्रसार होता है (अंतर कमल) दिव्य नवम कमल (सुवास) सौरभ, सुगंध (लक्ष्य) उद्देश्य (चेतन अनुभव) ब्रह्मप्रकाश (भास) उदय, प्रकाशमान।
भाष्य
चेतन दृष्टि के प्रकट हो जाने पर नवम कमल के गन्ध से मन मर जाता है एवं उसके शान्त, विलय हो जाने पर सद्गुरु ध्येय में चेतना शान्त, स्थिर हो जाती है और चेतन ब्रह्म-प्रभा आत्मा के अन्दर प्रकट प्रवेश करने लगती है।
10 सन्धि भेद बैठक बने, अनुभव के घर आय। देव सदाफल अमर है, आवागमन नशाय ।
शब्दार्थ
(संधि भेद) पिंड और ब्रह्माण्ड का भेद-स्थान (बैठक) विश्राम का स्थान, सुरति की भूमि (अनुभव) चेतन मंडल के भेद रहस्य की उपलब्धि (अमर) प्रकृति बंधन से मुक्त, आत्मा (आवागमन) जन्म-मरण (नाशय) नष्ट हो।
भाष्य
संधि भेद पर सुरति को स्थिर करके योगी ऊर्ध्व दोनों भूमियों में प्रवेश करता है और अपने शुद्ध स्वरूप से निःशब्द परम पुरुष को प्राप्त कर जरामरण से अनुपयोगी हो जाता है, जिससे संसार-चक्र भव-बंधन दुःख से मुक्त हो जाता है। योगी का यही अमर पद है, विदेह मुक्ति है। परमब्रह्म की प्राप्ति से ही जीवनमुक्ति, परमानन्द की प्राप्ति और त्रिताप दुःख की प्राप्ति. होती है। यही जीवन का महान उद्देश्य है और अंतिम कृतकृत्यता है।।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें