पंचम अध्याय पेज नंबर 29 क्षर पर अक्षर गाजता, निःअक्षर सब पार। मण्डल तीनों अलग है, अनुभव ज्ञान अपार ।

1 क्षर पर अक्षर गाजता, निःअक्षर सब पार। मण्डल तीनों अलग है, अनुभव ज्ञान अपार ।

शब्दार्थ

(क्षर) अनित्य ब्रह्माण्डी जड़ शब्द और समग्र प्राकृतिक जड़ दृश्य (पर) ऊपर, उत्कृष्ट, आकृति (अक्षर) ब्रह्म (गजता) शक्तिपूर्ण गहन ऊंचा ध्वनि करना (सब पार) सबसे परे निःअक्षर, निःशब्द, परम पुरुष।


भाष्य

 प्रकृति से बने हुए सभी पदार्थ क्षार हैं। क्षर एवं पदार्थ सदैव नाशवान अनित्य होते हैं। आकाश, वायु एवं अग्नि आदि पंच तत्त्व, जड़, अनित्य वस्तुएँ हैं। जो पदार्थ अपने से भिन्न दूसरे कारण से प्रकट होते हैं, वे सभी कृत्रिम पदार्थ क्षार हैं। प्रकृति की विकृति स्थावर, जड़ जगत् सभी क्षर हैं। प्रकृति मण्डल के संयोजित पंच शब्द, दस अनहद और सभी वर्ण, वाच्य शब्द क्षर, नाशवान है। एक पाद प्रकृति के घटक जो पदार्थ हैं, वे सभी क्षार हैं। दंत, ओष्ठ, मूढ़ रता और कण्ठ से, प्राणों के प्रयास से जो शब्द होते हैं, वे सभी क्षार हैं। राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग एवं जो चक्रों में शब्द प्रकट होते हैं, वे सभी क्षर हैं। पंच शब्दों में सोहं, शक्ति, रं तथा ओंकार आदि सभी शब्द क्षर, नाशवान हैं। श्वाँसा में सोहन की जो कल्पना की जाती है, वह मनयुक्त, वाणी द्वारा कहा गया शब्द क्षर है। पिण्ड, ब्रह्माण्ड के शब्द होते हैं और सभी ब्रह्माण्डी ज्योतियाँ क्षार हैं। परा, पश्यन्ति, मध्यमा एवं वैखरी के सभी शब्द क्षर हैं। प्रकृतिमण्डेल के अन्तर्राष्ट्रीय ब्रह्माण्ड जगत् में प्रकट होने के लिए जो मूलाधार का शब्द स्रोत है, वे सभी क्षार शब्द जड़ और अनित्य हैं। मन-हृदय में जो शब्द आनुषित फिल्में हैं, वे सभी क्षर शब्द प्रकृति के बने हुए हैं। जिसका नाश हो जाता है, वे सभी पदार्थ क्षार होते हैं। पौ, वाणी और ज़प के सभी शब्द क्षार हैं। कर्म प्रकृति के आधार पर होता है, इसलिए इंद्रियों से बने सभी कर्म क्षर हैं। जप, तप, तीर्थ, व्रत आदि के सभी साधन हैं। प्रभु की प्राप्ति नहीं होती।

 वाणी, नाम, जप और अजपा जप ये सभी प्रकृति शब्द काल के जल हैं और नाशवान अनित्य क्षर शब्द हैं। मृत्यु काल में जो शब्द आता है, वह मृत्यु सूचक शब्द क्षर नाशवान शब्द है, वास्तविक चेतन तत्व नहीं। जो शब्द आकाश का गुण है और कान से सुना जाता है या वाणी से कहा जाता है, वे सभी शब्द बुद्धि मूलक अनित्य क्षर शब्द हैं, अनुभव चेतन वाणी नहीं। जिन शब्दों या भावों का विचार मन, बुद्धि के अन्तर्निहित हो रहे हैं, वे सभी क्षर, अनित्य हैं। दस प्राण, दस इंद्रियाँ, चतुष्टय अंतःकरण, प्राकृतिक प्राकृतिक देह और अवस्थाएँ ये सभी क्षर हैं। मेरुदंड के महान जो कुंडलिनी, तीन फेरा से युक्त मुख में पूंछे दशम द्वार के छिद्र को बंद कर दिया गया है, उसका प्रकाश और शब्द क्षर, अनित्य हैं। भृकुटी, त्रिकुटी, भँवर गुफा और हृदय में शक्ति-संचार कीकल्पना ये सभी प्रकृति के खेल, मन का रंजन और क्षर जगत् की लीला है। प्रकृति के अन्दर शाब्दिक और प्राकृतिक सभी रचनाएँ क्षर, अनित्य हैं। प्रकृति मण्डल के अन्दर प्रकृति भूमि में भौतिक तत्त्वों के द्वारा जो शब्द प्रकाश और अनुभव विवेक होते हैं, वे सभी क्षर, नाशवान् है। इन सभी क्षर तत्त्वों में एक प्रकाश और गति सदैव होती है। इन सभी क्षर शब्दों का आधार, स्वामी, नियन्ता और अक्षर है।

 इन सभी पदार्थों में उसका प्रकाश हो रहा है। उसी के आधार से ये सभी क्षर शब्द या पदार्थ अपनी भूमि में प्रकाशमान होते हैं। जगत् का आदि कारण अक्षर है। अक्षर की सन्निधि से ही परमाणुओं में गतिं प्रकट होती है और उसी अक्षर द्वारा इस विशाल जगत् की रचना परम प्रभु करता है। इसी को ब्रह्म या प्रजापति, विराट्, हिरण्यगर्भ आदि नामों से वैदिक ग्रन्थों में सम्बोधित किया गया है। एक पाद जगत् में सबसे प्रथम अक्षर प्रगट होता है। उसी आदि अक्षर द्वारा परम पुरुष, नामधनी जगत् की रचना करता है। जगत् के सभी धर्म अक्षर के प्रकाश में होते हैं। सभी क्षर शब्द या जगत् के प्रत्येक पदार्थ में वह ध्वनि प्रकट हो रही है। उसी अक्षर ध्वनि को जानकर योगी प्रकृति के तत्त्वों का विज्ञाता हो, सारे देहसंघात पर अपना नियन्त्रण रखता है। सारे जगत् के प्रकाशक 'अक्षर' द्वारा ही प्रकृति की समस्त क्रियाएँ होती हैं, इसलिए इस पद में 'क्षर' के ऊपर सूक्ष्म 'अक्षर' गाज रहा है, बतलाया गया है। जब योगाभ्यासी की अन्तर चेतना स्थिर हो जाती है, तभी 'अक्षर' की गम्भीर ध्वनि को वह योगी अनुभव करता है। वही अक्षरधाम है, जहाँ पर परमाणु की गति का ज्ञान और प्रकृति के सूक्ष्म तत्त्वों का बोध होता है। इसी तत्त्व का इस पद में अक्षर कहकर सम्बोधन किया गया है।उपनिषद में 'अक्षर' को ही सूर्य, चन्द्रादि और सभी चराचर जगत का संचालक कहा गया है। 'अक्षर' को ही ब्रह्म कहते हैं। इस योगतत्व को सद्गुरु द्वारा अनुभव, चेतन विज्ञान द्वारा जानना चाहिए।

अत्तएव 'क्षर' से 'अक्षर' वस्तु भिन्न है, जो एक पाद प्रकृति मंडल के प्रत्येक मखाने में ओट-प्रोटेक्ट है। इन क्षर-अक्षर से भिन्न प्रकृति पार निःअक्षर, परम पुरुष है। इसी को जगत् का कर्ता, स्कम्भ कहते हैं। 'क्षर', 'अक्षर' से भिन्न उत्तम पुरुष को ही निः अक्षर, अक्षरातीत, सार शब्द कहते हैं। वह निःअक्षर, स्कंभ पुरुष के आधार पर अक्षर जगत् की रचना है। जगत् का निमित्त कारण अक्रिय पुरुष निःशब्द सत्पुरुष है। प्रकृति, आत्मा एवं ब्रह्म में सूक्ष्म व्यापक हो, सबका आधार स्वामी है। यही 'पुरुष' जगत् का उपास्य शोभायमान देव है। इसी सर्वान्तर्यामी 'पुरुष' को उपनिषद में 'ब्रह्म योनि' शब्द से सम्बोधन दिया गया है अर्थात् परब्रह्म अक्षर का भी योनि मूलाधार है। 'अक्षर' से सूक्ष्म हो सभी में व्यापक होने के कारण उस परब्रह्म को निःअक्षर कहा जाता है, अर्थात वह 'परब्रह्म' अक्षर नहीं है, बल्कि 'क्षर', 'अक्षर' इन दोनों का प्रकाशक, सर्वाधार है। सूक्ष्मकोण निःअक्षर है। क्षर जड़ित है और चेतन अक्षर एक पाद जगत में सर्वत्र व्यापक है। इन दोनों से पृथक् सूक्ष्मत्र सबका आधार अन्तर्यामी परम पुरुष निःशब्द, निःअक्षर है। 'क्षर', 'अक्षर' और निःअक्षर इन त्रि के मण्डल अलग-अलग हैं। साधन-भेद-योगाभ्यास द्वारा इन मंडलों के भेद और अपार तत्व ज्ञान, अनुभव की प्राप्ति होती है

है एवं इस अनुभव ज्ञान के प्राप्त होने पर ही पूर्ण बोध और शान्ति की प्राप्ति होगी। क्षर, अक्षर और निःअक्षर का तत्त्वज्ञान इस पद में किया गया है। ब्रह्मविद्या के प्रकाश में योग के साक्षात्कार अनुभव होने पर ही इन तत्त्वों का पूर्ण बोध और यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है, इसलिए सद्‌गुरु प्रकाश में अनुभव-साधन कर इन निर्भान्त तत्त्वज्ञानों को अध्यात्म-पिपासु जानने का प्रयत्न करें।

2 अक्षय नाम अक्षर कहते हैं, सूक्ष्म ताकी धार। पिण्ड ब्रह्माण्ड में संचारे, कारण विन्दु विचार ।

शब्दार्थ

 (अक्षय नाम) अक्षय नाम जो लगातार एक रूप से होता है या अवाच्य नाम जो वाणी द्वारा जप नहीं किया जाता है, बल्कि अनुभव में प्रत्यक्ष होता है (अक्षर) ब्रह्म, आकाश नाम (सुक्षम) सूक्ष्म, रसायन (धार) प्रवाह (पिंड ब्रह्माण्ड) सारे देह संघात का मंडल (संचरे) प्रवाहित (कारण बिंदु) बीज, कारण (विचार) ज्ञान।


भाष्य

अक्षर को अक्षय नाम कहते हैं। उसकी सूक्ष्म धार पिण्ड ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है, जिससे अनेक शब्द इसके अन्दर प्रकट होते हैं। इन सभी ब्रह्माण्डी शब्दों का कारण, बीज, अक्षय नाम, अक्षर है। ब्रह्माण्डी सभी क्षर शब्दों का मूल, योनि अर्थात् बीज, कारण अक्षर को जानना चाहिए।

3 कारण बिन्दु विकार है, शब्द सभी हैं नाद। वर्ण उच्चारण होत है, बोल इसी को वाद ।

शब्दार्थ

 (कारण बिंदु) मूल बीज, आदि, अक्षर (विकार) विकार, क्रिया व्यवहार, रसायन, पदार्थ, पदार्थ का दूसरा स्वरूप (नाद) पंच शब्द रं, सोहं, शक्ति, ओंकार, निरंजन (वर्ण) क, आदि कारण कुल वर्ण, वाच्य क्षर (उच्चारण) बोल, कथन (बोल) सर्व शब्द वर्णों काव्य वहार (वाद) कहना।

भाष्य

अक्षर कारण तत्त्व की धार जब नीचे ब्रह्माण्ड में उतरती है, तब ब्रह्माण्डी में सभी नाद प्रकट होते हैं। अक्षर ही इन पंच शब्दों का मूल कारण है। इसी के प्रभाव से पंच नार्दो के मूल प्राणों के प्रयास से दन्त, ओष्ठ, कंठ, मूर्धा एवं तालु आदि स्थानों से समस्त क्षार वर्ण प्रकट होते हैं, इसलिए पंच शब्द या क्षर नादों के वर्णों का आधार, अक्षय नाम, अक्षर है। इसी अक्षर धार को जो ब्रह्माण्ड में प्रकट होकर पंच शब्द और वर्णों को व्यवहृत करता है, बोल कहते हैं।

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