पंचम अध्याय पेज नंबर 30 सुक्ष्म और स्थूल का, नाद भेद है दोय। अन्तर सुक्ष्म सो जानिये, स्थूल है बाहर सोय।
1 सुक्ष्म और स्थूल का, नाद भेद है दोय। अन्तर सुक्ष्म सो जानिये, स्थूल है बाहर सोय।
शब्दार्थ
(सूक्ष्म) सूक्ष्म अन्तर्हित, अन्तर्हित (नाद) ब्रह्माण्डी शब्द (भेद) अन्त स्यूल) मोटा, साकार, व्यक्त।
भाष्य
स्थूल और सूक्ष्म ये दो नाद के भेद हैं। अन्तर ब्रह्माण्ड में नाद सूक्ष्म हैं और बाहर व्यक्त वर्ण व्यंजन स्थूल हैं। यही नाद के सूक्ष्म और स्थूल में अन्तर है। इस पद में ब्रह्माण्डी पंच शब्दों को नाद कहा गया है।
2 मह मण्डल आकाश है, अक्षर से उतपान। महा शून्य से प्राण है, कारण माहिं समान ।
शब्दार्थ
(मह मंडल आकाश) चराचर संपूर्ण जगत के विस्तार के लिए अवकाश रूप परिमंडल (अक्षर) ब्रह्म (महाशून्य) परमाणु मंडल (प्राण) प्रकृति संघात में जीवन धारण करने वाली शक्ति (कारण) बीज, आधार, मूलयोनि।
भाष्य
ब्रह्म से आकाश महामण्डल प्रकट होता है एवं महाशून्य से प्राण की उत्पत्ति होती है। वह प्राण अक्षर के आधार पर देह संघात की क्रिया करता है। प्राण का आधार अक्षर है, क्योंकि वह योग विधान द्वारा अक्षर मण्डल में पहुँच कर शान्त हो जाता है।
3 अक्षर से गति प्राण में, चक्र नाल इन्द्रिय चले, प्राण से तन व्यवपार। धर्म है विविध प्रकार ।
शब्दार्थ
(अक्षर) ब्रह्म (गति) शक्ति, क्रिया (प्राण) क्रियावान तत्त्व (तन) शरीर (चक्र) अष्ट चक्र (नाल) नाड़ियां (इंद्रिय) करण (धर्म) व्यवहार (विविध) अनेक (प्रकार) भेद।
भाष्य
अक्षर से प्राण में गति होती है और प्राण द्वारा सारे शरीर का व्यवहार एवं चक्र नाड़ी तथा इन्द्रियों के विविध प्रकार के धर्म होते हैं। इस शरीर में अक्षर द्वारा प्राण, मन एवं इन्द्रियादिकों में गति आती है, जिसके द्वारा आत्मा सारे देह संघात की क्रिया करती है और प्रकृति के व्यवहार द्वारा जगत् का सुखोपभोग करती है।
4 कारण मण्डल प्राण जो, पहुँचे योग विधान। मन पंगू तब होत है, द्वन्द्व मिटे दुख खान ।
शब्दार्थ
(कारण मण्डल) मूलाधार, शून्य मण्डल (प्राण) पवन (योग विधान) योग की विधि (पंगू) लम्बाई, गति की क्रिया से साधन (द्वन्द्व) संसार का कलह (दुःख) ताप, क्लेश (खान) उत्पत्तिस्थान, समूह, मूल।
भाष्य
जब अपने कारण मण्डल महाशून्य में योग विधान द्वारा प्राण पहुँच जाते हैं, तब प्राण के शान्त हो जाने पर मन पंगु हो जाता है, क्योंकि प्राण के साथ ही मन की गति होतीहै। प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राण के शान्त जाने पर मन पंगु हो जाता है एवं मन के पंगु हो जाने से इन्द्रियों के द्वन्द्व मिट जाते हैं एवं इन्द्रियों के द्वन्द्व के मिट जाने से समस्त दुःखों का अभाव हो जाता है।
5 अक्रिय मन अरु प्राण है, निज कारण भय लीन । तब प्रवृत्ति परपञ्च सब, बन्द होय स्वाधीन ।
शब्दार्थ
(अक्रिय) क्रियारहित (निज कारण) अपना मूल कारण (लीन) शांत, विलीनीकरण (प्रवृत्ति) प्रकृति व्यवहार (परपंच) माया, दुःखमय संसार (बंद) रुक (स्वाधीन) अपना उपयुक्त, स्वतन्त्र।
भाष्य
जब मन और प्राण क्रियारहित होकर अपने कारण में लीन, शान्त हो जाते हैं, तब बाह्य प्रकृति का प्रपंच बन्द हो जाने के कारण आत्मा इनके बन्धन से रहित हो स्वतन्त्र हो जाती है।
6 अक्रिया मन अरु प्राण से, केन्द्रित चेतन केन्द्र। आतम शुद्ध प्रकाश है, शासक देहमहंत ।
शब्दार्थ
केन्द्रित) केन्द्र में स्थिर भूत (चेतन केन्द्र) सद्गुरु प्रदेश, साधन भूमि (शासक) नियन्त्रण करने वाला (देह) शरीर (महेन्द्र) स्वामी, सम्राट्।
भाष्य
सारे देह संघात का शासक अर्थात् स्वामी आत्मा, मन और प्राण के क्रियाविहीन, शान्त हो जाने पर चेतन केन्द्र में स्थिर होकर अपने शुद्ध प्रकाश को प्राप्त करती है। मन और प्राण के शान्त हो जाने से चेतन प्रभा अन्दर में प्रवेश करती है, जिससे आत्मा को अपना स्वरूप प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह स्थिति विहंगम योग की धारणा से प्राप्त होती है, जिसमें सद्गुरु अपने दिव्य ज्ञान का संचार करते हैं। आत्म प्रकाश के प्राप्त होने पर अक्षर और निःशब्द का प्रकाश, आगे जिसे सद्गुरुसेवी योगीजन जानते और अनुभव करते हैं, यह प्रकाश मन मण्डल का मायिक प्रकाश नहीं है। क्षर, अनात्म प्रकाश प्रकृति मण्डल में प्राकृतिक योगियों को होता है, परन्तु यह शुद्ध प्रकाश चेतन केन्द्र से आत्मा को प्राप्त होता है, जिससे अन्तर की स्थिति का पूर्ण बोध और आगे चलने की क्रिया स्पष्ट होने लगती है। यह साधन अनुभव साक्षात्कार करने का विषय है, इसलिए अध्यात्म पिपासु अपने अनुभव विवेक के प्रकाश को प्राप्त करने की चेष्टा करें।
7 मन अरु प्राण संघर्ष में, आतम विजयी होय। प्रभु सुमिरन अरु भजन में, अब कोइ विघ्न न होय ।
शब्दार्थ
भाष्य
चेतन शक्ति प्रकट हो जाने पर मन और प्राण के युद्ध में आत्मा विजयी हो जाती है, इसलिए प्रभु के सुमिरन और भजन में अब कोई विघ्न नहीं होता है। मन और प्राण के सम्बन्ध मेंजीवात्मा को अनेक प्रकार के कष्ट, दुःख-परिताप होने के कारण आध्यात्मिक उत्थान में रुकावट पड़ती है। जब आत्मा इनके संघर्ष में विजयी होकर चेतन प्रकाश को प्राप्त कर लेती है, तब निर्विघ्न प्रभु की भक्ति और सुमिरन करती है। निर्विघ्न शान्त हो जाने पर ही शुद्ध स्वरूप से प्रभु का भजन होता है और पवित्र आनन्द आत्मा को प्राप्त होता है।
8 मन व प्राण व्यवहार में, तिरगुण का व्यवपार। मन अरु प्राण विलीन में, तिरगुण धर्म संहार ।
शब्दार्थ
व्यवहार) कार्य (तिरगुण) तीन गुण सत, रज, तम (व्यापार) रोजगार, धन्धा (संहार) नाश, अभाव, छूट जाना।
भाष्य
मन और प्राण का जबतक व्यवहार होता है, तबतक प्रकृति के त्रिगुणों का सम्बन्ध लगा रहता है। मन एवं प्राण के विलीन हो जाने पर त्रिगुणों के धर्म छूट जाते हैं। योगी इन त्रिगुणों के अभाव, विलय हो जाने पर निर्मल शान्त हो जाता है। आगे के दोहे में गुणातीत योगी का लक्षण कहा गया है।
9 नहिं निवृत्ति आरम्भ है, नहिं कोय कान्क्षा होय। सनिधि योग त्रिय होत है, गुणातीत है सोय ।
शब्दार्थ
(निवृत्ति) त्याग (आरंभ) प्रवृत्ति (कांक्षा) इच्छा (संनिधि) किनारा, पास-पास (योग) संबंध (क्रिय) व्यवहार (गुणातीत) त्रिगुणों से संबंधित ।
भाष्य
निःशब्द परम पुरुष की प्राप्ति हो जाने से योगी प्रकृति से पारंगत हो शुद्ध चेतन स्वरूप में प्रवेश होता है। त्रिगुणों के त्रिघात योगी को स्पर्श नहीं करना चाहिए। वह त्रिगुणों के अभाव हो जाने से शुद्ध अपनी चेष्टा से ही प्रकृति के धर्मों का पालन करता है। योग की विशिष्ट भूमि में आत्मा और प्रकृति का संबंध है। योगी इससे उपराम हो शुद्ध चिदाकाश में अंतर्गमन कर परमानंद परम पुरुष को प्राप्त करते हैं। प्रकृति मंडल को त्यागपत्र पर योगी गुणातीत हो जाता है। जब प्रकृति के त्रिगुण छूट जाते हैं, उस काल में न निवृत्ति होती है, न जगत की प्रवृत्ति होती है, क्योंकि त्रिगुणों के भाव से ही आत्मा प्रकृति के व्यवहार से संबंधित होती है या उनका त्याग होता है। जब प्रकृति ही नहीं रही, तब किसका त्याग और विराग एवं किस भोग वस्तु की इच्छा होगी? इसलिए प्रकृति के त्रिगुणों का अभाव हो जाने पर प्रवृत्ति-निवृत्ति या संसार की किसी भी वस्तु की कामना योगी में नहीं होती। वह अपने शुद्ध स्वरूप से परमानन्द सत्पुरुष को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाता है। उसका शरीर, देह संघात के धर्म, स्वाभाविकता, आत्मा की सन्निधि प्रकृति से ही अपना कार्य करते हैं। वह प्रकृति के धर्म से असंग हो चेतन स्वरूप की
प्राप्ति कर गुणातीत हो जाता है।


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