पंचम अध्याय पेज नंबर 32 ब्रह्मवेत्ता दरबार में, बैठो सज्जन होय। गो मन अ‌ङ्ग सम्हार कर, वाणी चपल न होय ।

1 ब्रह्मवेत्ता दरबार में, बैठो सज्जन होय। गो मन अ‌ङ्ग सम्हार कर, वाणी चपल न होय ।

शब्दार्थ

(ब्रह्मवेत्ता) ब्रह्मतत्त्व का अनुभव, जड़-चेतन आध्यात्मिक सर्व तत्त्वों को जानने वाला (दरबार) संत-सभा, सद्गुरुधाम, सद्गुरु उपदेश (गो मन) इंद्रिय मन (अंग) शरीर का अव्यय, भाग (संहार) एकत्र, एकत्रित (वाणी) बोली (चपल) तेज।


भाष्य

ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु के धाम पर उनके सत्संग उपदेश में इन्द्रिय, मन, वाणी और अपने अगों को सम्हार कर संगति, व्यवहार से युक्त हो, नम्रता डनक, सज्जन सासा कथाचाहिए। सद्‌गुरु उपदेश को बुद्धि, मन एकाग्र कर शान्त चित्त से श्रवण करना चाहिए। मन, इन्द्रिय और वाणी के आलाप में एकाग्रता नहीं रहती और बिना शान्त हुए शान्ति का उपदेश प्राप्त नहीं होता, इसलिए सद्गुरु शरण में जाकर सरल चित्त से, विनयपूर्वक, ब्रह्मविद्या का तत्त्वज्ञान-बोध प्राप्त करना चाहिए।

2 सारा देह संघात का, संचालक कूटस्थ है, संचालन जो होय । अक्षर कहते सोय ।

शब्दार्थ

(सारा देह संघात) जड़ अनात्म शरीर संघात देह, मन, बुद्धि, प्राणादि (संचलन) गति, क्रिया चलना (संचालक) गति वाला (कूटलेख) एक रूप से स्थिर, जिसका कोई परिवर्तन नहीं होता (अक्षर) ब्रह्म।

भाष्य

सारे जड़ देह संघात का जो संचालन करता है, वह संचालक कूटस्थ ब्रह्म है। प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में क्रिया शक्ति देने वाला ब्रह्म है। मन, बुद्धि, प्राण या इन्द्रियों में जो गति होती है, उसका प्रेरक, आधार अक्षर है। उसी की सन्निधि से सारे देह संघात में क्रिया प्रकट होती है। आत्मा इस क्रिया-शक्ति को लेकर सारे देह संघात से अपने प्रकृति के धर्मों का पालन करती है। अक्षर सारे देहसंघात का स्रष्टा, संचालक है और आत्मा सारे देह संघात के कर्मों का कर्त्ता एवं भोक्ता है। अतएव ब्रह्म ही समस्त जगत् का नियन्ता, प्रेरक और स्रष्टा है।

3 प्राण संचालन आदि जो, कर्म अलौकिक होय। यह लीला कुटस्थ का, बाहर अक्षर सोय ।

शब्दार्थ

 (प्राण संचालन) प्राण शक्ति (अलौकिक कर्म) श्वास या वायु की ऊर्ध्व गति, विक्षेप, निमेष, उन्मेष क्रिया आदि (कुटस्थ) अक्षर ब्रह्म।

भाष्य

प्राण का आधार, संचालक अक्षर है। उसी अक्षर द्वारा समस्त प्राण अपना कार्य करते हैं। सुषुप्ति में आत्मा की शक्ति अन्तर्मुख हो जाती है और आत्मा बाहरी क्रियाओं को नहीं करती, क्योंकि मन इन्द्रियों की शक्ति लेकर आत्मा के साथ हृदय में निवास करता है। उस काल में भी श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा हृदय-गति का संचालन होता है। वायु का आगमन या शरीर के समस्त अवयव अपना कार्य करते हैं। मृत्यु-काल में उदान वायु द्वारा आत्मा का निष्क्रमण, ऊर्ध्व वायु का प्रेक्षण आदि धर्म अक्षर द्वारा ही शरीर में होते हैं। वायु या वीर्य्य द्वारा जीव का गर्भ में प्रवेश, या ब्रह्माधार ही पर आत्मा की सारी शक्तियों को वायु द्वारा समेट कर योगी शरीर से निकल जाता है। ये सभी कार्य अक्षर द्वारा ही आत्मा के सम्बन्ध से शरीर के अन्दर होते हैं, इसलिए प्राण का भी प्राण इन अलौकिक कर्मों का कर्ता अक्षर है। अक्षर बाहर-भीतर सर्वत्र व्यापक है। वह मूर्धा और हृदय को सी करके अपने स्थान से सारे संघात में प्रेरणा दे रहा है। ईश्वर जब सर्वत्र व्यापक है, तब बाहर-भीतर के सम्बोधन का अर्थ योगीजन या अध्यात्म तत्त्ववेत्ताही जान सकेंगे। ईश्वर सर्व व्यापक होते हुए भी शरीर और आत्मा के एकदेशीय परिच्छिन्न होने से एक भूमि और एक मण्डल में अनुभव प्राप्त होता है एवं पूर्ण साक्षात्कार के पश्चात् समदृष्टि के प्राप्त होने पर चराचर समस्त जगत् में ओत-प्रोत परिपूर्ण व्याप्त अनुभव होता है।

4 अक्षर यह तो द्रव्य है, गूण नहीं यह होय। आश्रित गुण जग कर्म है, जग करता है सोय ।

शब्दार्थ

 (अक्षर) एक पाद जगत् में सर्वत्र व्यापक शब्द (द्रव्य) जिससे संज्ञा गुण है, गुण वाली वस्तु (अश्रित) आधार से आधारित (गुण) क्रिया, लक्षण (कर्म) क्रिया (जगकरता) संसार का करने वाला।

भाष्य

 अक्षर नित्य चेतन वस्तु है। वह किसी वस्तु का गुण नहीं है, बल्कि स्वतः सत्य गुणवान् एक वस्तु है। उसी के आश्रय हो कर समस्त जगत् की क्रिया होती है एवं वही संसार का कर्ता पुरुष है। आगे के दोहे में सारे देह संघात में रहकर इसकी क्रिया को करने वाला जीवात्मा का लक्षण दिया गया है।

5 आतम करता करण का, कर्म करण से होय। जाहि करण उसकी क्रिया, कर्त्ता भोगता सोय ।

शब्दार्थ

(आत्मा) सारे देह संघ में निवास करने वाला एक देशी आत्मा (करण) जिसके द्वारा क्रिया की जाती है (कर्म) इंद्रियों के अर्थ करणों का व्यवहार (क्रिया) इंद्रिय व्यवहार (कर्ता) करने वाला (भोगता) कर्म का भोग करने वाला।

भाष्य

कर्त्ता करण द्वारा ही अपनी क्रिया को करता है। करण का जो व्यवहार धर्म है, वह चेतन आत्मा द्वारा ही होता है। आत्मा इन प्राकृतिक करणों द्वारा ही प्रकृति के समस्त कर्मों को करती है, इसलिए करणों द्वारा जो होता है, वह कर्म है। जिसका करण है, उसी की क्रिया भी है। भौतिक करणों द्वारा आत्मा प्राकृतिक शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता हो कर इनके फल, परिणाम को प्राप्त करने वाला भोक्ता होता है। कर्त्ता सदैव चेतन और स्वतन्त्र होता है और भोक्ता सदैव दूसरे के अधीन हो, अपने कर्मों का उपभोग करता है। जीवात्मा अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता दोनों है। ईश्वर समस्त जगत् का कर्त्ता होकर उससे असङ्ग सर्वद्रष्टा, साक्षी और न्यायाधीश है। इस पद में इन्द्रियों द्वारा जो व्यवहार होता है, वह आत्मा द्वारा होता है, इसलिए जीव इन भौतिक कर्मों को छोड़कर अपना शुद्ध चेतन कर्म स्वाभाविक प्रभुभक्ति करके परमानन्द को प्राप्त कर कृतकृत्य होवे।

6 मैं व आप एक ज्ञान में, रहै न बने सोहाय। मैं मिटत जेहि काल में, आप मिले प्रभु आय।

शब्दार्थ

(मैं) प्रकृति अज्ञान सम्बन्धित अपना स्वरूप (आप) परम प्रभु, सब का आधार, सर्व अन्तर्यामी (एक ज्ञान) एक अद्वैत ब्रह्म का विवेक (रहै) एक साथ निवास (सोहाय) धर्म, गुण दो पारस्परिक गुणों का सम्बन्ध (काल) समय।

भाष्य

आत्मा जबतक प्राकृतिक देहाभिमान को छोड़कर अपने चेतन स्वरूप की प्राप्ति नहीं करती, तब तक एक अद्वैत समाधि अवस्था में दोनों का सम्बन्ध नहीं हो सकता, न दोनों एक स्थिति में रहकर अपने स्वाभाविक धर्म का योग ही कर सकते हैं। जिस काल में जड़त्व देहाभिमान माया आत्मा से छूट जाती है, उस चेतन पवित्र अवस्था में परम प्रभु स्वयं आकर मिल जाते हैं। चेतन-चेतन का सम्बन्ध स्वाभाविक है। जड़ और चेतन का सम्बन्ध दोनों विजातीय, विरुद्ध हैं, इसलिए प्रकृति अहंपन का त्याग करके ही अपने शुद्ध स्वरूप से परम प्रभु की प्राप्ति होती है। यह उपदेश इस पद में दिया गया है।

7 ज्ञान उदय जब होत है, मोह भ्रम सब जाय। जहां मोह अज्ञान है, त्रिविध ताप दुख पाय।

शब्दार्थ

 (ज्ञान उदय) आत्मा का शुद्ध प्रकाश (मोह भ्रम) आस्तिकता, अविद्या (अज्ञान) यथार्थ बोध से अनुपयोगी।

भाष्य

 जब पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब मोह-भ्रम सब नष्ट हो जाते हैं और जहाँ पर यथार्थ ज्ञान नहीं है, अविद्या है, वहाँ पर त्रिविध तापों का दुःख प्राप्त होता है।

8 प्रकृति परिणित कार्य को, मध्य प्रदेश जोय। कार्य पूर्व में पूर्ण है, महा तत्व कह सोय।

शब्दार्थ

(प्रकृति) माया (परिणित) कार्य परिणाम, भिन्न कार्य व्यवहार।

भाष्य

 प्रकृति के परिणित कार्य को जो जगत् का स्वरूप धारण नहीं किया है, उस जगत् के पूर्व पूर्ण मध्यावस्था को महातत्त्व कहते हैं।

9 प्रथम प्रकृति परिणाम को, बुद्धि के पूरब रूप। कारण कारज मध्य में, सो मह तत्त्व स्वरूप ।

शब्दार्थ

प्रथम) प्रकृति (प्रकृति परिणाम) प्रकृति की विकृति, कार्य (कारण) मूल प्रकृति (कारज) सृष्टि-रचना, संसार।

भाष्य

 प्रकृति का प्रथम कार्य जो जगत् का स्वरूप धारण नहीं किया है, वह कारण रूप प्रकृति तथा कार्य के मध्य में जो बुद्धि के पूर्व का स्वरूप है, वह यह तत्त्व है। अर्थात् बुद्धि केपूर्व स्वरूप को जो प्रकृति द्वारा बना है, उस कार्य तत्त्व को महातत्त्व कहते हैं। जैसे सोने से भूषण बनने के बीच की अवस्था।

10 सत रज तम गुण प्रकृति के, मिश्रण सहस त्रिघात। देव सदाफल जग भया, रचना विविध साधत ।

शब्दार्थ

 (प्रकृति) सत, रज एवं तम गुण वाली माया (मिश्रण) योग (सहस) सहस्र, अनंत (त्रिघात) त्रिगुणों का एकता मिलाप (साधात) संयुक्त, सक्रिय।

भाष्य

 प्रकृति के सत, एवं रज तम इन त्रिगुणों के मिश्रण एवं एकता योग अर्थात विभिन्न परमाणुओं के संयोग से इस विशाल जगत् की रचना हुई। जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। इसी प्रकार त्रिगुणों के संयोग से जगत् का निर्माण होता है।



.. इति स्वर्वेद प्रथम मंडल, पंचम अध्याय भाष्य समाप्त।

 

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