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चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 26 एक स्वरूप अभाव में, उदय दूसरा रूप। समझब परम विवेक है, परखो शब्द स्वरूप।

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1 एक स्वरूप अभाव में, उदय दूसरा रूप। समझब परम विवेक है, परखो शब्द स्वरूप। शब्दार्थ (स्वरूप) सत्य, अस्तित्व, अपना रूप (परम विवेक) सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, परीक्षण (परखों) खोज, जांच (शब्द स्वरूप) परमानन्द, निःशब्द, सारशब्द। भाष्य   एक स्वरूप का अभाव हो जाने पर दूसरा स्वरूप उदय हो जाता है। अनुभव-भेद-साधन में इस रहस्य तत्त्वज्ञान को जानना उत्तम विवेक है। अनेक स्वरूपों को छोड़कर चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति, आनंद की उपलब्धि, ध्येय तत्व का ज्ञान करना उत्तम मेधा पुरुष का कार्य है। इसलिए सर्व तत्त्वों एवं स्वरूपों का पूर्ण ज्ञान लेकर सर्वोपरि सारशब्द सतपुरुष का भजन गाया। परोक्ष-अप्रत्याश सभी तत्त्वों के बोध से ही शांति और परमानंद की प्राप्ति होती है। अनेक स्वरूपों का ज्ञान रख कर अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान और परमानन्द सत्पुरुष की प्राप्ति, अनुभव तत्त्व का बोध कराना परम विवेक है। 2 थूल अभाव सुक्षम रहे, कारण मह कारण रहे, सुक्ष्म से कारण देह। मह पर केवल देह। शब्दार्थ  (थूल) स्थूल देह (सूक्ष्म) सूक्ष्म देह। भाष्य  स्थूल शरीर के अभाव में सूक्ष्म शरीर रहता है और सूक्ष्म शरीर के अभाव हो जाने पर...

चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 25 चेतन शुद्ध स्वरूप से, स्वर निधि गोता होय। तन्मय भय जलमीन इव, हँस देह है सोय।

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1 चेतन शुद्ध स्वरूप से, स्वर निधि गोता होय। तन्मय भय जलमीन इव, हँस देह है सोय। शब्दार्थ  (स्वरनिधि) शब्द सागर, परम पुरुष (गोता) प्रकट (तन्मय) तदाकार (हंस देह) विज्ञान देह अर्थात शुद्ध आत्मा का चैतन्य स्वरूप, जिसमें परमानंद का उपभोग होता है। ToTopTo p yoga yogap yoga  भाष्य  जब कैवल्य देह का योगाभ्यास द्वारा अभाव हो जाता है, तब आत्मा प्रकृति से सम्बन्ध होने का कारण, अविद्या से निवृत्त होकर अपने शुद्ध चेतन स्वरूप से परम अक्षर, सारशब्द रूपी महासागर में प्रवेश करती है। आत्मा से जब अविद्या की ग्रन्थि छूट जाती है, तब वह प्रकृति-बन्धन से छूट कर अपने चेतन स्वरूप से परम अक्षर, निःशब्द, परमपुरुष को प्राप्त करती • है। उस शब्दसागर में जलमीनवत् उसके स्वरूप को प्राप्त होकर परमानन्दित हो जाती है। इसी को हंस देह कहते हैं जैसे मछली समुद्र को पाकर उसमें लीन हो आनन्दित हो जाती है, उसी प्रकार विशुद्ध आत्मा परब्रह्म, परमानन्द को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाती है। समाधि में जीव लोह अग्निवत् परब्रह्म के स्वरूप को प्राप्त कर शुद्ध हँस अवस्था को प्राप्त करता है। यही आत्मा का शुद्ध स्वरूप है और विज्...

चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 24 स्थूल देह विस्मरण में, स्थूल देह कर त्याग। प्राण बुद्धि मन छूटते, जान सुक्ष्म तन त्याग।

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1 स्थूल देह विस्मरण में, स्थूल देह कर त्याग। प्राण बुद्धि मन छूटते, जान सुक्ष्म तन त्याग। शब्दार्थ  (स्थूल देह) रज-वीर्य से बनी हुई देह अर्थात् भौतिक शरीर (विस्मरण) भूल, विस्मृति, स्मरण न होना (त्याग) अभाव (प्राण) पवन (बुद्धि) मेधा (मन) इंद्रियों का प्रेरक (सूक्ष्म तन) सूक्ष्म शरीर (त्याग) अलग, विश्राम। भाष्य  योगाभ्यासी में आत्मिक शक्ति के अन्तर्मुख हो जाने पर इस पार्थिव जड़ शरीर का भान नहीं होता। इस जड़ शरीर के भाव का स्मरण न होने से इस शरीर के बाह्य सम्बन्ध की क्रिया नहीं होती। आत्मा बाह्य जगत् से उपरम हो अपनी चेतना को अन्दर सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध रखती है। इस अवस्था में स्थूल शरीर का चेतनत्व न होने से इसका त्याग, इस दोहे में बतलाया गया है। इस शरीर से ही परमपुरुष की प्राप्ति एवं जीवन्मुक्ति होती है। योग विज्ञान द्वारा क्रमशः आत्मा प्रकृति के सम्बन्धों को छोड़ती हुई अपने स्वरूप में आ जाती है और अपने चेतन स्वरूप से प्रभु की भक्ति कर परमानन्द स्वरूप परब्रह्म को प्राप्त करती है। योग द्वारा क्रमशः प्रकृति का त्याग और उत्तरोत्तर आत्मिक शक्ति का विकास एवं परम सुख परमानन्द की प्राप...

तृतीय अध्याय पेज नंबर 23 मना मनन जब तक रहे, तब तक भजन न जान। अमन अगम अनुभव चले, सत्य भजन परमान।

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1 मना मनन जब तक रहे, तब तक भजन न जान। अमन अगम अनुभव चले, सत्य भजन परमान। शब्दार्थ  (मन) मन का (मनन) मन्मथ, मन-प्रपंच, मन का विषय (अगम) गम से उपयोगी (अनुभव) प्रकृतिरहित शुद्ध आत्मा का विकास (सत्य भजन) वास्तविक भजन का स्वरूप (परमाणु) उदाहरण, साहित्य, आदर्श। भाष्य  जब तक मन के अन्दर संसार-विषय का मनन, इच्छा और वासना रहती है, तब तक भजन नहीं होता है। मन के अभाव में जहाँ मन की गति नहीं पहुँचती उस चेतन आत्म विकास से परब्रह्म का अनुभव होता है। यही वास्तविक सत्य भजन का आदर्श है अर्थात् इसे ही प्रभु की सच्ची उपासना कहते हैं। अतएव मन के रहते भजन नहीं होता है। मन का निरोध कर लय, शान्त कर देने पर ही चेतन आत्मा, चेतन साधन से चेतन परब्रह्म की प्राप्ति करती है। 2 योग क्षेम प्रभु सब करें, आत्म समर्पित भक्त है, भक्त अन्य नहिं आश। भक्त हृदय प्रभु वास। शब्दार्थ  (योग) प्राप्त (क्षेम) रक्षा (आश) भरोसा (आत्मसमर्पण) अपने को प्रभु को समर्पित किया (भक्त) उपासक (वास) निवास। भाष्य  भक्त को जिस पदार्थ की इच्छा होती है, उसको प्रभु प्रदान करते हैं। उसी को 'योग' कहते हैं और जिन पदार्थों को प्रभु द...

तृतीय अध्याय पेज नंबर 22 हीरा श्वाँस अमूल्य है, सर्ब भजन में लाव। व्यर्थ विषय मत खोइये, प्रभु के शरण समाव।

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1 हीरा श्वाँस अमूल्य है, सर्ब भजन में लाव। व्यर्थ विषय मत खोइये, प्रभु के शरण समाव। शब्दार्थ  हीरा, सबसे श्रेष्ठ मुद्रा, नव रत्नों में से एक (श्वास) श्वास, जीवन (विषय) इन्द्रिय भोग (समव) में प्रवेश। भाष्य  यहाँ पर इस जीवन-श्वाँस को हीरा कहा गया है। जिस श्वाँस रूपी हीरा का मूल्य नहीं हो सकता। संसार में एक पत्थर को ही हीरा कहा जाता है, जिसका मूल्य होता है, परन्तु अध्यात्म क्षेत्र में इस श्वाँस रूपी हीरे का मूल्य नहीं हो सकता, इसलिए इसे विषय-भोग में मत नष्ट कीजिए। विषय भोग कौड़ी हैं, और अमूल्य श्वाँस हीरा है। इस अमूल्य श्वाँस को देकर विषय उपभोग रूपी कौड़ी न खरीदें, बल्कि इन अमूल्य समस्त श्वाँसा को प्रभु की शरण में लाकर उस के भजन में लगावें। तभी यह अमूल्य श्वाँसा, अमूल्य, परम निधि, प्रभु की प्राप्ति में लग कर अपने मनोरथ को प्राप्त कर सकेगी। इस पद में विषय को व्यर्थ उपभोग करने का निषेध किया गया है। कर्मयोगी सन्त या ऋषिधर्म में रहने वाला जीवन्मुक्त योगी आवश्यकतानुसार संसार-विषय को प्राप्त करके, प्रकृति के यशस्वी धर्म का पालन करता है, व्यर्थ विषय भोग नहीं करता। भौतिक इन्द्रियों का व्...

तृतीय अध्याय पेज नंबर 21 काम बृहत नहिं याहि से, भिन्न तुम्हार न कोय। हे अज्ञानी जीव जड़, क्यों न भजन कर सोय।

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1 काम बृहत नहिं याहि से, भिन्न तुम्हार न कोय। हे अज्ञानी जीव जड़, क्यों न भजन कर सोय। शब्दार्थ  (काम) कर्तव्य (बृहत्) सर्वोत्तम (भिन्न) अतिरिक्त, भिन्न (अग्नि जीव) मोह-बन्धनसे कर्ता, कृतव्यविमुख जीव (भजन) प्रभु-प्राप्ति करने का साधन। भाष्य  मनुष्य जीवन में ईश्वर-प्राप्ति के अतिरिक्त दूसरा मुख्य उद्देश्य नहीं है। सबसे बड़ा काम प्रभु की प्राप्ति है. इससे भिन्न दूसरा कर्तव्य श्रेष्ठ नहीं है। हे अज्ञानी विवेकहीन जीवा क्यों नहीं उस परम प्रभु का भजन करता है? संसार में सबसे श्रेष्ठ महान कर्त्तव्य प्रभु का भजन है। इसी के द्वारा जीवन के समस्त फल प्राप्त होते हैं। प्रभु-भक्ति ही जीवन का सार है। इससे बढ़ कर दूसरा जीवन का मौलिक उद्देश्य नहीं है। अतः, हम सर्व काम छोड़कर प्रभु की उपासना करें, क्योंकि यही जीवन की परमकृतकृत्यता है। 2 अब तुम क्या संसार में, चाहो यासे भिन्न । बन स्वभाव अज्ञान में, मन वच काया लीन। शब्दार्थ (भिन्न) दूसरा (अज्ञान) भ्रम.लीन) तन्मय, तदूप। भाष्य  प्रभु प्राप्ति के अतिरिक्त अब तुम इस असार-संसार में क्या चाहते हो? अज्ञान-मोह के कारण प्रकृति के बन्धन में पड़कर शरी...

तृतीय अध्याय पेज नंबर 20 मन व पवन को पलटि कर, सीधा कमल अनाम। स्वःमंडल अनुभव करौं, काकुत् चेत अनाम।

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1 मन व पवन को पलटि कर, सीधा कमल अनाम। स्वःमंडल अनुभव करौं, काकुत् चेत अनाम। शब्दार्थ  (पलति कर) ऊर्ध्वमुख कर (सीधा) सोझ, अकेला, असंग (कमल अनाम) रहस्यमय नौवा कमल ( मंडल) चेतन समाधि मंडल (अनुभव) प्रत्यक्ष प्राप्त हुआ, सज्ञान की प्राप्ति, साक्षात्कार (काकुत) शब्द (चेतन) चेतन (अनाम) प्राकृतिक नाम अलौकिक, अनिर्वाच्य तत्व, परम अक्षर सारशब्द। भाष्य  मन और पवन की अर्द्ध गति को उलट कर उसे नौंवा कमल में सीधा शान्त करके महाशून्य पार चिदाकाश में चेतन परम अक्षर, सारशब्द का अनुभव करें। मन, पवन एवं अक्षर पार चिदाकाश, स्वःमण्डल है। योग की सर्वोच्च भूमि को स्वःमण्डल कहते हैं, जहाँ चेतन शब्द का योगीजन प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। इस दोहें में योग की अन्तिम भूमि का वर्णन किया गया है। काकुत, शब्द, स्वर ये पर्यायवाची शब्द हैं। 2 कमल फूल गर्जत गगन, अमीय वृष्टि घनघोर। अन्तर खेल रहस्य का, नाचत चेतन मोर। शब्दार्थ  (कमल) तारा चक्र (फूल) नवोदित (गर्जन गगन) गगन ध्वनि (अमीय) अमृत (घन) बादल (घोर) उग्र, उग्र (खेल) क्रीड़ा (रहस्य) भेद, मर्मयुक्ति (चेतन मोर) शुद्ध आत्मा। Yog a  भाष्य  भेदिक कमल क...