1 सहज मुक्त पर बुद्ध है, अमृत शुद्ध स्वरूप। पर अपरा में एक है, अद्भुत पुरुष अनूप।

 शब्दार्थ

 सहज मुक्त प्रकृति से ही बंधनरहित प्रबुद्ध चैतन्य एक रस है जिसका अर्थ है ज्ञान है अमृत, नित्य जिसका स्वरूप सदैव एक समान रहता है शुद्ध स्वरूप प्रकृति आधार कल्याण समाधि मंडल, साकेत धाम में पवित्र सच्चिदानंद स्वरूप पर दूसरा, एक पाद प्रकृति मण्डल (अपरा) विराज धाम, परम प्रकाश, निःशब्द, परमानन्द सत्पुरुष।

भाष्य

 परब्रह्म स्वभाव से ही मुक्त है। जीव प्रयास करके कर्मबंधन से वस्तु मुक्तहोता है, परन्तु वह परमानन्द, परब्रह्म स्वरूप से ही मुक्त है। इसलिए उसे सहज मुक्त कहते हैं। होता ष्टि, प्रलय, विकास, पतन या प्रकृति के प्रत्येक परिवर्तन में एक रूप से समान स्थिर रहता बृह यह सर्वान्तर्यामी होकर आकाश की भाँति सब में व्यापक एवं सर्वाधार हो, असंग एवं निर्लेप होकर अपने शुद्ध स्वरूप में सदैव विराजमान रहता है। उसका ज्ञान, क्रिया तथा स्वभाव सदैव नित्य एक रूप से रहते हैं। उसके ज्ञान में हास-विकास नहीं होता। अतः, वह परब्रह्म नित्य, ज्ञानवान, सदैव प्रबुद्ध है। परब्रह्म के नित्य, ज्ञानवान् वस्तु होने से उसके स्वरूप में भ्रान्ति या रूपान्तर नहीं होता, न वह कार्यरूप हो सृष्टि का उपादान होता है।


 चेतन की क्रिया और शक्ति उस स्वरूप में सदैव स्थित रहती है। यही चेतन कूटस्थ की परिभाषा है। नित्य वस्तु का परिवर्तन नहीं होता। वह तीनों काल में एक स्वरूप से अपने अस्तित्व में विराजमान रहता है। परब्रह्म जगत् का निमित्त कारण है। जैसे कुम्मकार मिट्टी से बर्तन बनाता है, उसी प्रकार वह परम प्रभु मूल प्रकृति को लेकर इस विशाल जगत् की रचना करता है। ब्रह्म जगत्रूप नहीं होता, न चेतन जड़स्वरूप को धारण करता है, क्योंकि चेतन पदार्थ का कार्य नहीं होता। वह सदैव कूटस्थ, स्वतःकारणस्वरूप होता है। जड़ वस्तु का कारण होता है, नित्य चेतन का नहीं। जैसे मिट्टी से बर्तन और सोने से भूषण होता है, इस प्रकार परब्रह्म का रूपान्तर नहीं होता है।

 वह जगत् के अनेक रूपों को धारण कर इसमें क्रीड़ा नहीं करता, क्योंकि वह सत्य, अविनाशी एवं नित्य वस्तु है। नित्य वस्तु का कारण या कार्य नहीं होता। उसका कार्य उससे भिन्न दूसरे पदार्थ का होता है। वह स्वतः ज्ञान-क्रिया और अपने गुण से प्रकाशमान हो जगत् की रक्षा-परिपोषण करता है। इसलिए परब्रह्म को स्वर्वेद में सहज, मुक्त और प्रबुद्ध कहा गया है। तीन पाद अमृत को शुद्ध स्वरूप कहते हैं। परब्रह्म के चतुर्थांश, एक पाद में ही यह अखिल ब्रह्माण्ड चक्र का धारण, पालन और लय हो रहा है। वह परब्रह्म तीन पाद अमृत और एक पाद अक्षर महामण्डल प्रकृति में ओत-प्रोत, परिपूर्ण व्यापक है। वह अद्भुत और अनुपम पुरुष, प्रकृति, अक्षर, आत्मा एवं चराचर जगत् में व्यापक होकर, तीन पाद शुद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप समाधिधाम में भी अनिर्वाच्य, निःशब्द स्वरूप से एकरस परिपूर्ण व्याप्त है।

2 सब का जीवन प्राण है, सब का एक अधार। अज अद्वैत अनाम है, परमपुरुष करतार।

शब्दार्थ

अज नित्य अद्वैत जिसके समान स अन्य दूसरी वस्तु न हो अनाम, जिसका प्राकृतिक कोई स्वरूप न हो, नाम-रूप से साधन, अनिर्वाच्य, अव्यक्त सत्ता परम पुरुष निःशब्द, सार शब्द।

भाष्य

 वह परम प्रभु सम्पूर्ण चराचर जगत् का जीवन और एकमात्र आधार है। प्रकृति आत्मा में जो प्राणन शक्ति कार्य करती है, एवं सबका भरण-पोषण जिसके द्वारा होता है, वह परम पुरुष नित्य और प्राकृतिक नामरूप से रहित है। वह अव्यक्त, अनुभवगम्य, जगत् का कर्त्ता,परम पुरुष नित्य और अद्वितीय है, अर्थात् उसके समान दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। इसलिए वह परब्रह्म सदैव अद्वैत एवं अव्यक्त है।

3 सब तत्त्वों का ज्ञान है, परम पुरुष विज्ञान। सहज योग अभ्यास है, डोर विहंगम जान।

शब्दार्थ


 परम पुरुष, अनिर्वाच्य, निःशब्द, सार शब्द (विज्ञान) प्रत्यक्ष ज्ञान (सहज योग) मन, प्रकृति से पार चिदाकाश प्रवेश का साधन अभ्यास, योग-इ से युक्त यत्न (विहंगम) पक्षी, चेतन सुरति,।


भाष्य


 सहज योगाभ्यास के साधन से चेतन सुरति जब विहंगम अर्थात् पक्षी के समान निराधार आकाश में गमन करती है, तब परम प्रभु के प्रत्यक्ष विज्ञान में परा-अपरा समस्त तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है। योगी के सामने सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। इसलिए उसी आप्तपुरुष के वचन संसार के लिए प्रमाण हैं। समस्त ज्ञान का कारण ब्रह्म है। उसके प्रत्यक्ष दर्शनं के पश्चात् सभी तत्त्व योगी के सामने निर्प्रान्त हो जाते हैं। जब तक परम पुरुष का विज्ञान नहीं हो जाता, तब तक भौतिक विज्ञान से चेतन तत्त्व प्रत्यक्ष नहीं होते। जड़ तत्त्वों के विज्ञान के लिए जड़ करण हैं, और चेतन तत्त्व को जानने के लिए अनात्म पदार्थों की असंग अवस्था में चेतन करण हैं। चेतन करण द्वारा ही ब्रह्म तत्त्व का दर्शन होता है। इसलिए पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति चेतन विज्ञान से होती है।

 चेतनविज्ञान का साधन सहज योग और विहंगम डोरी है। मन एवं प्राण के साधन-युक्ति से रहित होकर शुद्ध आत्मभूमि से जो स्वाभाविक योग होता है, उसे सहज योग कहते हैं। सहज योग में प्राणायाम, कुम्भक, ष‌क्रिया और चक्रों का वेधन नहीं होता। आत्मभूमि पर जब चेतना स्थिर हो जाती है, तब अपने-आप कुण्डलिनी अपना मार्ग छोड़ देती है, एवं वह योगी अपने शुद्ध किरण, चेतन सुरति द्वारा महाशून्य रम्भ के भेद से गगन में जाकर अमृत-परमानन्द सुख का लाभ करता है। जड़भूमि के त्याग के पश्चात् ही यह विहंगम योग की रहनी एवं सत्पथ प्राप्त होता है। बिना विहंगम योग की सर्वोच्च भूमि प्राप्त किए जड़-चेतन किसी भी अध्यात्म तत्त्व का बोध नहीं हो सकता। इसलिए इस वाणी में ग्रन्थकार ने चेतन विज्ञान द्वारा परम पुरुष की प्राप्ति से ही सर्व तत्त्वों के प्रत्यक्ष ज्ञान होने की चर्चा की है?







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