अध्याय नंबर 10 अष्ट कमल फूले बिना, ऊर्ध्व दृष्टि नहिं होय। तब तक अन्धा जीव है, अन्तर सूझ न कोय।
1अष्ट कमल फूले बिना, ऊर्ध्व दृष्टि नहिं होय। तब तक अन्धा जीव है, अन्तर सूझ न कोय।
शब्दार्थ
ऊर्ध्व दृष्टि, चेतन दृष्टि अंतर।
भाष्य
सूर्य के प्रकाश से ही कमल खिलता है। सूर्य को देख कर कमल के मुख ऊपर को हो जाते हैं और वे कमल प्रफुल्लित हो जाते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म रहस्य के अनुभव प्रकाश में जब चेतन प्रकाश प्रखर रूप में प्रकट होता है, तब शरीर के अन्दर आठों चक्र खिल कर प्रफुल्लित हो जाते हैं और आत्मा की बाह्य दृष्टि बन्द होकर उर्ध्व को देखने लगती है। इस तेजस्वी आकर्षण से प्रकृति के सारे अंग, अवयव खिल कर मूल केन्द्र में खिंच जाते हैं और उस प्रकाश में प्रकृति का अज्ञान-तिमिर क्षय हो जाता है। यह योग-प्रकाश अन्तर-अनुभव साधन का विषय है. जिसे योगाभ्यासी अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। जब तक यह चेतन-दृष्टि प्रकट नहीं होती, तब तक जीव का प्राकृतिक आवरण क्षय नहीं होता और न आत्मिक प्रकाश उदय होता है। विहंगम योग की धारणा से ही उर्ध्व दृष्टि और चेतन अनुभव की प्राप्ति होती है।
2 तन रक्षा भोजन करें, अल्प अहारी सन्त। नाम सनेही विकल हैं, निशि दिन भजन अनन्त।
शब्दार्थ
आहार, भोजन (विकल) व्याकुल (अनंत) परम प्रभु, सच्चिदानंद जगदीश्वर।
भाष्य
शरीर-रक्षा मात्र ही अल्प आहार करके सन्तजन संसार-माया को अनित्य जान व्याकुल होकर निशिदिन श्वाँसोंश्वाँस महाप्रभु का भजन करते हैं। नाम प्रभु का जो सनेही है, वही माया, विषय-प्रञ्पच को छोड़ कर निशिदिन प्रभु की उपासना करता है। विषय-माया, इन्द्रिय-भोग का इच्छुक रागी पुरुष प्रभु की भक्ति नहीं कर सकता है। इसलिए संयमी साधक शरीर-रक्षा मात्र आहार से अपने प्राणों की रक्षा करते हुए निशिदिन साधन-भेद में अनुरागयुक्त लवलीन रहते।
3 पिण्ड ब्रह्माण्ड की सन्धि पर, महाशून्य कर भेद। तीन महल यह जानिये, चौथा सद्गुरु वेद।
शब्दार्थ
(संधि) जोड़, दो वस्तुओं का योग (महाशून्य) दहराकाश, मध्य आकाश।
भाष्य
पिण्ड और ब्रह्माण्ड की सन्धि तथा महाशून्य का भेद यह तीन मर्म स्थान हैं। इसी 'को तीन महल भी कहा गया है। आत्मा की शक्ति जो मन के साथ लगी है- यह एक भूमि और दूसरी भूमि वह, जिसमें मन निरोध होकर वशवर्ती हो जाता है। तीसरी वह भूमि, जिसमें मन चेतन क्रिया में आगे जाकर शान्त हो जाता है। मन, सुरति और आत्मा ये तीनों एक साथ लगे हैं। जब चेतना अन्दर प्रवेश करती जाती है, तब क्रमशः सब छूटते जाते हैं। इस प्रकाश से इन्द्रियों, प्राण, मन और सुरति के स्थिर व शान्त हो जाने पर आत्मिक शक्ति एकाकार हो सद्गुरु प्रदेश को प्राप्त कर निरतिशय परमानन्द में निमग्न हो जाती है। पिण्ड, ब्रह्माण्ड और महाशून्यइन तीन भेदिक स्थानों से चौथा सद्गुरु का तत्त्वज्ञान अलग है। इसे ही साकेत-भूमि और समाधि-मण्डल भी कहते हैं।
4 परम शांति सम दृष्टि से, परखो शब्द विवेक।निरखि परखि अनुभव करो, शब्दामृत सुख एक।
शब्दार्थ
सम दृष्टि, एकतार दृश्य (निरखी) दृश्य (परखी) स्पष्ट दर्शन, साक्षात्कार (शब्दामृत) सोमरस (अनुभव) निर्भत, यथार्थ ज्ञान।
भाष्य
जब मन व पवन शान्त होकर अपने मूल कारण में लय हो जाते हैं, तब आत्मा में शुद्ध स्वरूप के प्रकाश में परब्रह्म की आभा प्रकट होने से महती शान्ति प्राप्त होती है। उस शान्ति अवस्था में जो अन्तर्दृष्टि उदय होती है, वह साम्य दृष्टि होती है। उस शान्त समदृष्टि से विवेक में शब्द को देखने का उपदेश ग्रन्थकार ने किया है। उस शब्द को पूर्ण अनुभव प्रत्यक्ष करके योगी शब्दामृत सोमरस का पान करता है।
5 सद्गुरु भेद विधान से, मन व पवन को फेर। नाद विन्द गति एक में, समा बन्ध पर नेर।
शब्दार्थ
विधान, नियम, लघु (फेर) कुघना, (नाद, बिंद) ब्रह्म और ब्रह्माण्डी पंच शब्द (समा बंध) एक तार संबंध (पर नेर) सूक्ष्म किनारा।
भाष्य
सद्गुरु की भेद-युक्ति से मन-पवन की गति को फेर कर अर्थात् उसके मूल कारण में ले जाकर शान्त, विलय करके नाद और ब्रह्माण्डी शब्दों की गति एक समान हो कर सूक्ष्म शब्द परब्रह्म का अनुभव होता है।
6 सुरति निरति एक तार से, जोड़ दृष्टि सम होय। परि अनुभव निःशब्द का, सन्त मरम गति सोय।
शब्दार्थ
सुरति, आत्मा की चेतन शक्ति (निरति) सुरति की सूक्ष्म स्थिति, समाधि भूमि (परि अनुभव) सर्वत्र, चारों ओर व्यापक तत्त्व की अनुभूति (निःशब्द) अक्षरातीत, परम अक्षर, सारशब्द (मर्म गति) सूक्ष्म स्थिति (एकतार) एकरूप।
भाष्य
सुरति और निरति के एक स्वरूप में स्थित हो जाने पर चेतन-दृष्टि तन्मय-तदाकार हो जाती है और निःशब्द परम पुरुष का व्यापक अनुभव होने लगता है। इस मर्म गति को वे ही सन्त जानते हैं, जिन्हें यह उच्च स्थिति प्राप्त हो गयी है।
7 सुधाशुश्वित शीतल रवी, उदय तत्त्व झनकार। अरव सालि आहा वारे, अनुभव पुरुष हमारा।
शब्दार्थ
सुधा, अमृत (श्रवेत्) नीचे प्रवाह, गिरना (शीतल रवी) शांति प्रदायक सोम परब्रह्म (अरव) मेघ स्वरूप निःशब्द, परम पुरुष (वर्षि) सूर्योदय (आभा) ज्योति (हमारे) आत्माधार सर्वान्तर्यामी परम प्रभु (वरे) ज्योति का प्रकट होना।
भाष्य
प्रकाशमान शब्द के प्रकट होने पर उस शान्ति सोम प्रदायक परम ब्रह्म से अमृत स्रवित होता है। उस शब्दामृत-धारा के अन्तर बरसने से ज्योति बर जाती है। यह सद्गुरु देव का अनुभव में प्रकट होने वाला पुरुष है। सारशब्द को इस दोहे में 'शीतल रवि' कहा गया है, क्योंकि इस परम प्रकाश से ही आत्मा को शान्ति प्राप्ति होती है। अतएव शीतल सोमरस प्रदायक होने से उस परम प्रभु को 'शीतल रवि' कहा गया है। अक्षर और निःशब्द मण्डल के प्रकाश अनुभव करने वाले भेदिक योगी इस तत्त्व भेद-ज्ञान को समझेंगे। अर्थात् मेघरूपी अक्षरातीत परमपुरुष की परम ज्योति से सोम अमृत की प्रकाशमान धारा प्रवाहित होती है, जिसे योगीजन प्राप्त करके पवित्र और पूर्ण होकर कृतकृत्य हो जाते हैं। अर्व मेघ को कहते हैं। अर्व का अरव रूप यहाँ पर लिखा गया है। वैदिक कोष निघण्टु का यह शब्द है।


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