अध्याय नंबर 11 पलटि भूमि द्वादश सैन, अचल विराजत सन्त। षोड़श कला से आतमा, प्रकटत फुलत वसन्त।
1 पलटि भूमि द्वादश सैन, अचल विराजत सन्त। षोड़श कला से आतमा, प्रकटत फुलत वसन्त।
शब्दार्थ
द्वादश सन् ,समाधि भूमि (आत्मा) जीवात्मा (षोडश कला) दश इंद्रिय, पंच प्राण और मन या षोडश ब्रह्माण्डों को देखने की शक्ति (बसंत) आनंद, जीव-ब्रह्म का मेला।
भाष्य
विहंगम योग की उच्च भूमि प्राप्त हो जाने पर वह शक्ति आत्मा तथा सारे देह-संघात को पूर्ण कर देती है एवं आत्मा उस व्यापक प्रकट शक्ति का अपने में अनुभव करने लगती है। ज्ञान की पूर्णता होने पर सर्वत्र आनन्द का अनुभव होता है। योगी में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे का भान न होकर एक रस सर्वत्र ब्रह्म सत्ता का अनुभव होता है। विहंगम योग की अन्तिम भूमि को प्राप्त किया हुआ योगी इस आध्यात्मिक रहस्य को जानता है। इन उक्त दोहों में समाधि प्राप्त होने पर योगी की जो स्थिति होती है, उस अवस्था का वर्णन किया गया है। इसका स्पष्ट अर्थ योगी को योगी ही बतला सकता है। यह गुरुगम्य अनुभव तत्त्व है।
2 अन्तर घोटी प्रेम की, पीवत सन्त अघाहिं। सुख शान्ति अविचल मिले, जन्म मरण दुख जाहिं।
शब्दार्थ
अंतर घोटी, इंटरनेट में पीने की क्रिया (अविचल) स्थिर (प्रेम) स्नेह आनंद (जन्म मरण) आदी।
भाष्य
उस परम प्रभु के अन्तर रस घोंटी को पीकर सन्तजन तृप्त हो जाते हैं। उस परम आस्वादन से स्थिर सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है और आवागनम का दुःख छूट जाता है।
3 ठीक निशान तभी गर्ने, तीर धनुर्धर तान। अलग लक्ष्य तिल भर नहीं, वेध मरम अस्थान ।
शब्दार्थ
निशान, लक्ष्य (तीर) वाण (धनुर्धार) वाण चलाने वाला (तान) खींचना वेध,छेदना।
भाष्य
धनुर्धर का तीर मारना तभी सही हो सकता है, जबकि निशान ठीक रहे और तिल भर भी विलग लक्ष्य न हो और मर्म स्थल वेध जाय। इस दोहे में विवेकी सन्त के लिए अपने साधन-भेद द्वारा एक तार निरन्तर ज्ञान प्रभु में लगा रहे और तनिक भी दूसरे लक्ष्य में न जाय, इसका उपदेश किया गया है। उत्तम भक्त सदैव एक प्रकार से उस परम प्रभु में लव लगा, उसी में लवलीन हो जाते हैं। दूसरे किसी अन्य लक्ष्य में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। सोमरस पीने वाला योगी सदैव अपने विराजधाम की अमृत-धारा को प्राप्त कर शान्त-निमग्न रहता है।
4 वाण शब्द भेदी चले, मारे उलटा घाव। मर्मी धन्य रहस्य का, धीर पारधी दाव।
शब्दार्थ
शब्द भेद, शब्द के आधार पर वाण मारने वाला (वाण) तीर (रहस्य) घटिया, मार्मिक युक्ति (पारधी) वाण मारने वाला (दाव) टोकरा, मारने की विशेष अवस्था की युक्ति।
भाष्य
चक्षु बन्द करके भी शब्द के आधार पर शब्द भेदी वाण चलाते हैं। शब्द के सुनते ही उल्टा वाण से घाव करते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म-कला, अनुभव-युक्ति को जानने वाले मर्मी धीर सन्त धन्य हैं, जो पारधी के समान अपने गुरु लक्ष्य में सुरति के वाण से शब्द को योग-विधान से बेधते अर्थात् मारते हैं।
5 प्रियतम दुरवरती भये, ज्वाला विरह मिमोर। धधकी अगिन वियोग की, प्रिय उर अन्तर जोर।
शब्दार्थ
प्रियतम, आत्म प्रिय पति (दुरवर्ती) दूर रहने वाला (विरह गहरा) मिलन की व्याकुलता (मिमोर) कड़क, ऐंठन, अंतर्कष्ट (धधक) सुनुगी, प्रज्वलित (अंतर जोर) अंतर्बल, गुप्त अंतर हुआ प्रेम बल।
भाष्य
दूर देश में वसने वाले पति के लिए जिस प्रकार पत्नी में विरह प्रेम की दुःखद वेदना होती है एवं पति से मिलने की तीव्र इच्छा बलवती होकर वियोग की अग्नि में धधकने लगती है, उसी प्रकार प्रेम, वैराग्य और विरहयुक्त साधक सच्ची श्रद्धा एवं लगन में ईश्वरप्राप्ति के लिए उस प्रभु-प्रेम की विरह-व्यथा से जब व्याकुल होने लगता है, तभी वह कृपालु महाप्रभु भक्तवत्सल अपनी कृपा-दृष्टि से ज्ञान-भक्ति प्रदान कर जन्म-मरण दुःख को नष्ट कर अपने वास्तविक स्वरूप का अपरोक्ष दर्शन देते हैं। माया के आवरण से प्रभु का सम्बन्ध दूर हो गयाहै। प्रभु आत्मा के सन्निकट प्रकट हो कृतकृत्य करते हैं। परब्रह्म व्यापक अव्यक्त वस्तु है। परम प्रभा तक कोई दर्शन नहीं होता। योग-समाधि में प्रकृति के आवरण क्षय हो जाने पर आत्मा में परब्रह्म का साक्षात्कार, दर्शन-अनुभव होता है।
6 मन व सुरति एक साथ में, दुखद द्वन्द आश्रान्ति। साधन में बाधन चले, स्वगति कोश में क्रान्ति।
शब्दार्थ
(मन) इंद्रियों द्वारा भौतिक विषयों को ग्रहण करने वाला सुरति, चेतन शक्ति (स्वगति) निज चेतन क्रिया (क्रांति) उजागर- खंड।
भाष्य
मन और सुरति के एक साथ रहने से दुःख देने वाले त्रिगुणों के सम्बन्ध अशान्त किये
रहते हैं। मन के साथ सुरति शुद्ध रूप में नहीं रहती। मन के साथ से साधन में बाधा पड़ती है और निज चेतन प्रकाश प्राप्त करने में मन की द्वन्द्व-अशान्ति से अनेक प्रकार के विघ्न और उपद्रव खड़े हो जाते हैं। अतएव मन को समूल लय कर शुद्ध सुरति के द्वारा आत्मिक आनन्द ब्रह्म-प्राप्ति का साधन करना चाहिए
7 सुरति मना के साथ तजि, अन्तर मुख परवेश। श्वेत सिंहासन पुरुष का, करत आरती वेश।
शब्दार्थ
अन्तर मुख, अन्दर (वेष) भेष, सौन्दर्य।
भाष्य
सुरति मन का साथ छोड़कर अन्तर्मुख गमन कर श्वेत भूमि पर स्थित दिव्य सत्पुरुष की आरती करती है।
8 सुषमन चवर डोलावती, नौबत अनहद बाज। जगमग ज्योती हो रही, शब्द निरन्तर गाज।
शब्दार्थ
सुषमन, अंतरा की नाड़ी जो कपाल अपने प्रदेश को ले जाती है (नौवत अनहद) विविध प्रकार के ब्रह्माण्डी बाजे (जगमग ज्योति) चमकती हुई ज्योति (शब्द) सारशब्द, परम ध्वनि (गज) प्रकाशमान, भरा हुआ।
भाष्य
उस श्वेत धाम की सुष्मना चवर डुलाती है और द्वार पर विविध प्रकार के अनहद बजते हैं एवं अक्षर मण्डल में दिव्य ज्योति प्रकाश कर रही है और चेतन महामण्डल, में अखण्ड ध्वनि व्यापक एवं परिपूर्ण सत्ता से प्रकाशमान हो रही है। सुष्मना, अनहद को चवर और नौबत कह कर अलंकार रूप से वर्णन किया गया है। व्यक्त जगत् के बोध के लिए व्यक्त पदार्थों की उपमा दे कर अव्यक्त वस्तु का निरूपण होता है।
9 अन्तर्मुख सुरति भाई, मोह शोक सन्ताप। दृश्य द्वन्द्व विपदागे, विघ्न अच्छादित माप।
शब्दार्थ
मोह, अशक्ति (शोक) दुःख (संताप) हृदय-जलन (द्वन्द्व) कलह (विपदा) विपत्ति (विघ्न) विचित्र (अच्छादित्त) ढाढ़ा।
भाष्य
अन्तर्मुख सुरति के प्रवेश होने पर मोह, शोक, सन्ताप और प्राकृतिक समस्त दृश्य एवं त्रिगुणों के द्वन्द्व और उपद्रव शान्त हो जाते हैं तथा भीतरी समस्त ढके हुए विघ्न नष्ट हो जाते हैं।
10 कालचक्र से पृथक रह, काल चक्र को देख। वीत राग वह पुरुष है, जिवन्मुक्ति पर पेख।
शब्दार्थ
काल चक्र, प्रकृति मांडलवी (तराग) विषय-भोग की इच्छा से वंचित (जीवनमुक्ति) समाधि अवस्था की प्राप्ति (पर) सूक्ष्म (पेख) दर्शन।
भाष्य
विहंगम योगाभ्यास द्वारा अन्तर्मुख सुरति के प्रवेश होने पर सब द्वन्द्वों का नाश हो जाता है और वह वीतरागी पुरुष जीवन्मुक्ति के सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि को प्राप्त होकर प्रकृति-चक्र से पृथक् हो संसार-चक्र को देखता है। जीवन्मुक्त योगी को बाहर भीतर सब दृश्यों का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है और वह प्रकृति चक्र माया-परिणाम से छूट जाता है और अपने को प्रकृति से भिन्न स्वरूप में प्राप्त हो कर अलग काल-चक्र को देखता है अर्थात् जीवन्मुक्त योगी अपने चेतन स्वरूप से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होने पर अपने से पृथक् कालचक्र को देखता है।
11 सृष्टि चक्र देखत रहे, धिर प्रबुद्ध यह आतमा, आप चक्र में नाहिं। दुर्लभ है जग माहिं।
शब्दार्थ
सृष्टि चक्र, प्राकृतिक प्रवाह, माया-दृश्य (धीर) योगी (प्रबुद्ध) ज्ञानवान दुर्लभ, दुष्प्राप्य।
भाष्य
जीवनमुक्त ज्ञानवान् योगी अपनी शुद्ध भूमि में संसार के सभी कार्य करता है और उसका ज्ञानयुक्ति योग कला से असंग, जल कमलवत संसार से पृथक् रहता है। संसार-चक्र को देखते हुए आपके साक्षात्कर्ता अलग रहते हैं। ऐसे जीवनमुक्त असंग योगी संसार में परमानन्द का उपभोग करते हैं। संसार में ऐसे जीवनमुक्त योगी अत्यंत दुर्लभ हैं, अर्थात् इस महान पद को कोई विशेष पुण्य प्रतापवान पुरुषार्थी एवं योगयुक्त योगी ही प्राप्त करते हैं। इस पद में जीवनमुक्त योगी के लक्षण बताए गए हैं।
12 केलि चक्र जो चढ़त है, चक्र फेर में धाय। देव सदाफल पृथक है, दर्शक मोह न पाय।
शब्दार्थ
केलि चक्र, क्रीड़ा-स्थल, इंद्रिय भोग की भूमि (दर्शक) देखने वाला।
भाष्य
इन्द्रिय-भोग, विषय-प्रवाह में बहने वाला अजितेन्द्रिय पुरुष बार-बार विषय-प्रवाह में बहता हुआ अपने जीवन को अशान्त किए रहता है। परन्तु वीतरागी जीवन्मुक्त योगी संसार,विषयव, राग, प्रपव एवं वासना से पृथक् रह संसार-दृश्य का द्रष्टा असंग होकर मोहफाँस में नहीं -फंसता है। जैसे भूमि का कीच आकाश को गेंदला नहीं कर सकता, उसी प्रकार प्राकृतिक इन्द्रियों कर्म योगी को मोह पाश में नहीं बाँधतीं। जीवन्मुक्त योगी में मोह-शोक नहीं होता वह इन्द्रिय-कर्मों का अकर्ता हो कर संसार के प्रवाह को देखता हुआ अपनी आत्म-रति में निमग्न रहता है। उसे प्रकृति अपने स्वरूप में नहीं बाँध सकती। यही जीवन्मुक्त योगी का स्वरूप है। योगी मैं माया, मोह एवं कल्मष की प्रतीति नहीं होती। वह प्रकृति के समस्त बन्धनों से मुक्त रहता है। वह प्रकृति के समस्त कर्मों को असंग अवस्था में ही प्राप्त करता है। इसलिए मोह-शोक से दूर रहता है। प्रकृति भोग्य है और आत्मा भोक्ता। वास्तव में जिसके अधीन मन, बुद्धि एवं प्राण रहते हैं, वही इन दशवर्ती करणों से प्राकृतिक कार्यों को भी शुद्ध रूप से करता है। अतएव जीवन्मुक्त योगी माया-जगत् को देखने वाला है। उसे संसार का मोह स्पर्श नहीं करता।
इति स्वर्वेद प्रथम मंडल, प्रथम अध्याय भाष्य समाप्त।

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