द्वितीय अध्याय नंबर 12 झीन आय झीना चलो, मन व त्याग संयोग। क्रमसह सुक्षम हो रहो, अग्र गमन गति योग ।।

1 झीन आय झीना चलो, मन व त्याग संयोग। क्रमसह सुक्षम हो रहो, अग्र गमन गति योग।

शब्दार्थ

 झीना, परमाणु, सूक्ष्म (क्रमसह) स्थिरांक।

भाष्य

 आत्मा मुक्ति से क्रमशः सूक्ष्म से स्थूल स्वरूप में आई है। जिस प्रकार से सूक्ष्म रीति से स्थूल शरीर को प्राप्त हुई है, उसी प्रकार क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म हो कर गुरु-विधान द्वारा सद्‌गुरु-प्रदेश में गमन कर गति सम्बन्ध से परब्रह्म को प्राप्त करेगी। इसी को योग कहते हैं। आत्मा प्रथम प्रकृति के सम्बन्ध होने से मन को लेकर इन्द्रिय जगत् में आ जाती है। इसलिए ग्रन्थकार ने मन का सम्बन्ध त्याग कर सूक्ष्म हो कर, क्रमशः आगे गमन करने का उपदेश साधकों को किया है।


2 सुक्ष्मान्तर धस गगन में, अमृत सागर पाट। उमड़ तरंग अपार है, गगन द्वार गम घाट।

शब्दार्थ

 सुक्ष्मन्तर, अति सूक्ष्म, अन्तर गहराई (धस) गड़, प्रवेश (गगन) आकाश (अमृत सागर) अनंत महाप्रभु (पाट) चौड़ाई (गगन द्वार) चिदाकाश, चेतन मार्ग।

भाष्य

 सूक्ष्म और सूक्ष्मान्तर दो प्रकार के बाह्य जगत् में पदार्थ होते हैं, परन्तु परब्रह्म इन सभी पदार्थों से अति सूक्ष्म है। इसलिए ब्रह्म-प्राप्ति के लिए सूक्ष्मान्तर प्रवेश होने का उपदेश इस वाक्य में दिया गया है। सूक्ष्मान्तर गगन में प्रवेश कर, प्रकाश द्वार में गमन कर, उस पार उतर जाने पर, अमृत सागर का महान् दृश्य और अपार उमड़ती हुई तरंगें दिखाई पड़ती हैं। इस पद में सद्‌गुरु देव ने आभ्यन्तर साधन-भेद आनन्द के अनुभव का वर्णन समुद्र तरंगों की उपमा दे कर की है।

3 स्थूल शब्द क्षर बाहर, तासे सुक्षम अन्तक्षर है, सुक्ष्म अनाहत जान। केन्द्रिक शब्दन मान।

शब्दार्थ

 स्थूल शब्द, कामुक वाणी, बाखरी (अनाहत) ब्रह्माण्डी, दस विधि अनहद (अंताक्षर) भीतरी क्षर (केन्द्रिक) प्रमुख स्थानीय।

भाष्य

 तालु, कंठ, मूर्द्धा एवं ओष्ठ द्वारा प्राणों के प्रयास-भेद से जो वाणी द्वारा बाह्य शब्द-उच्चारण होते हैं, वे सभी स्थूल शब्द हैं। ब्रह्माण्ड में प्राणों के अनेक सूक्ष्म कणसंघर्ष से शब्द उठते हैं, उनको अनाहत कहते हैं। वे बाहरी बैखरी से सूक्ष्म शब्द हैं एवं उनसे भी सूक्ष्म अन्तर क्षर अर्थात् ब्रह्माण्डी केन्द्रिक पाँचों शब्द हैं। इन क्षर शब्दों की सूक्ष्मता का वर्णन इस पद में किया गया है।

4 केन्द्रिक पाँचो शब्द भी, क्रमसह सुक्षम होय। बोल ताहि से सुक्ष्म है, बाहर अक्षर सोय।

शब्दार्थ

 क्रमसह, स्थिर (बाहर) ऊर्ध्व (बोल) शब्दों का मूलाधार, आदि वाणी।

भाष्य

 अनहदों से सूक्ष्म ब्रह्माण्डी केन्द्रिक पाँचों शब्द हैं और वे भी शब्द क्रमशः उत्तरोत्तर सूक्ष्म है, अर्थात् निरंजन, ओंकार, सोहं, शक्ति एवं ररं ये ब्रह्माण्डी पाँचों शब्द क्रम गति से उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं और इनसे भी सूक्ष्म बोल है, जो बाहर अक्षर है। सन्त मत की परिभाषा में बोल को भी अक्षर कहते हैं। इस दोहे में ग्रन्थकार ने अक्षर को बोल कहकर सम्बोधित किया है।

5 अक्षर से भी सुक्ष्म है, निःअक्षर परधान। क्षर अक्षर में व्याप्त है, पूरण पुरुष महान।

शब्दार्थ

 अक्षर, ब्रह्म (निःअक्षर) परम अक्षर, सारशब्द (पूर्ण पुरुष) सर्व शक्तिमान परब्रहा।

भाष्य

 एक पाद जगत में व्यापक अक्षर ब्रह्म से सूक्ष्म तत्व, निष्अक्षर, पूर्ण पुरुष सूक्ष्म है और क्षर, अक्षर इन दोनों में ओट-प्रोट सर्वत्र व्यापक है। क्षर-अक्षर का आधार सर्व शक्तिमान् जगन्नियन्ता परब्रह्म है।

6 क्षर अक्षर से सुक्ष्म है, सहज अखण्ड अपार। सार शब्द अनुभव गजै, अन्तर भू संसार।

शब्दार्थ

 (सहज) स्वाभाविक (अखंड) एक स्वरूप अविच्छिन्न (अनुभव) आत्मसाक्षात्कार (अंतर) भीतर (भू संसार) बाह्य जगत्।

भाष्य

 क्षर-अक्षर से सूक्ष्म नित्य, अखण्ड एवं कोट, सारशब्द चराचर से सम्पूर्ण जगत् का प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है।

7 अभ्यास गुरु गम्य का, अंतर भू पर्व। उत्तरोत्तर भूगर्भ है, विविध ज्ञान आदेश।

शब्दार्थ

 (अभ्यसी) विहंगम योग मार्ग का पथिक (भू) भूमि (आदेश) आज्ञा (उत्तरखंड) क्रमशः (गुरुगम्य) सद्गुरु नियम से प्राप्त होने वाला (अग्र) आगे।

भाष्य

 सद्‌गुरु नियम आदेश के अनुसार विहंगम योग का अभ्यासी सन्त योग-कला के द्वारा योग की अन्तर भूमियों में प्रवेश करके क्रमशः ऊँची भूमि को प्राप्त करता हुआ आगे जा कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है और विविध ज्ञानों का उपार्जन कर योग साधन के महान् पुरुषार्थ द्वारा अपने महान् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है।

8 ज्यों ज्यों भू आगे मिले, त्यों त्यों सूक्ष्म शब्द। गहराई क्रमसह मिले, सर्वान्तर निःशब्द।

शब्दार्थ

 (भू) भूमि (गहराई) भीतर (सर्वध्वन्तर) समग्र भीतर सूक्ष्म (निःशब्द) अव्यक्त परम अक्षर।

भाष्य

 जिस प्रकार से साधक के अन्दर अनुभव साधन बढ़ने लगता है, उसी प्रकार से सूक्ष्म शब्द प्राप्त होते जाते हैं। जैसे-जैसे गति आगे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे शब्दों की सूक्ष्मता प्राप्त होती जाती है और सबके भीतर निःशब्द परम पुरुष का साक्षात्कार अनुभव प्राप्त होता है।

9 लोक वेदमय भेष के, सम्प्रदाय मत आन। सन्त पक्ष बन्धन नहीं, रह स्वतन्त्र पर ज्ञान।

शब्दार्थ

 लोक, संसार-व्यवहार (वेद) वेद का भौतिक तत्वज्ञान, जिसमें मात्रा वाचक ज्ञान है, सद्गुरु साधन अनुभवशून्य तत्त्वज्ञान (भेष) काली प्रचलित संप्रदाय (स्वतंत्र) प्रकृति आधार से भिन्न निर्भत अनुभव ज्ञान प्रकाश।

भाष्य

 कर्म के आधार पर ही सृष्टि की रचना होती है। लौकिक समस्त व्यवहार को कर्म कहते हैं। कर्म से प्रभु प्राप्ति नहीं होती। शुभाशुभ दोनों कर्मों से प्रभु-प्राप्ति का साधन पृथक् है। कर्म जीव का बन्धन है। कर्म से निवृत्ति होने के लिए प्रभु प्राप्ति योग मार्ग का साधन किया जाता है। विहंगम योग कर्म-प्रकृति-चक्र से बाहर है एवं वह शुद्ध ब्रह्मविद्या का विकास है। इसलिए प्रकृति कर्म-प्रवाह से प्रभु की उपासना नहीं होती। मन, बुद्धि या प्रकृति-संघात से जो कुछ होता है वह सभी प्रकृति का कर्म है। प्रकृति मण्डल से उपरम हो कर ही प्रभु की भक्ति होती है। मन-इन्द्रिय जगत् में रहकर प्रभु की उपासना नहीं होती, बल्कि वह जीव का कर्म होता है। अतएव प्रभु इन कर्मों के साधन से प्राप्त नहीं होता। वेद के अन्दर योग की पाँच भूमियों का वर्णन है। वैदिक अनुभव तत्त्व योग-समाधि में प्रकट होता है। आत्मा के अन्दर ज्ञान प्रकट होने की अनेक धारायें हैं। वैदिक ऋचायें योग की भिन्न-भिन्न भूमियों से प्रकट हुई हैं। वेदों के अन्दर वाचक ज्ञान नहीं है, बल्कि अनुभव साधन-प्रणाली का वर्णन किया गया है। वेद भी ब्रह्मविद्या, सन्त-मत की महिमा गाते हैं। इसलिए केवल वाचक ज्ञान के आधार पर जो अपने में सन्तुष्ट हैं, चारों वेद पढ़ने के पश्चात् भी सद्‌गुरु साधन-रहस्य अनुभव तत्त्व से हीन हैं। ऐसे बोध ाहीन निगुरे वेदपाठी ब्रह्मविद्या तत्त्वज्ञान के अपरोक्ष अनुभव साधन से रहित हैं।

 यही कारण हैकि वेदों की भी अपरा विद्या के अन्दर गणना की गयी है। यदि वेद के पढने से ही पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती, तब वेदों को अपरा विद्या में गणना कर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए पराविद्या की आवश्यकता क्यों बतलायी जाती? इसलिए मात्र वेद वेदांग के जान लेने से ही आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता, न जीवन में पूर्णज्ञान की प्राप्ति होती है। प्राचीन काल में वेद-वेदांग के पूर्ण ज्ञाता होने पर भी ऋषिजन अधिकारी, समितपाणि हो पराविद्या के बोध के लिए सद्‌गुरुओं की शरण को प्राप्त हुए हैं। इसलिए वेदपाठी विद्वानों को भी आवश्यक है कि सर्व अभिमान को छोड़कर अधिकारी बन ब्रह्मविद्या के आचार्य सद्‌गुरु की खोज करें और अपने आत्मिक उत्थान, प्रभु-प्राप्ति के लिए प्रभु की उपासना करें। प्रभु की उपासना कैसे होती है, यह ब्रह्मविद्या का रहस्य तत्त्वज्ञान है। कलि प्रचलित सभी सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव पाँच हजार वर्ष के भीतर ही हुआ है। भिन्न-भिन्न प्रकार के विचारों को लेकर सम्प्रदायी आचार्यों ने अपने मत का विस्तार किया है। जब देश के अन्दर आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान, योगविद्या का हास हो गया, तब अन्धकार के युग में इन सम्प्रदायों की रचना हुई है। जब तक देश के अन्दर अनुभव-साधन था, कोई सम्प्रदाय नहीं था।

 देश के आध्यात्मिक पतन से ही सारे संसार में विभिन्न प्रकार के विचारों का उद्भव हुआ। जब विद्वानजन अनुभव-साधन से रहित होकर केवल बुद्धि-विमर्श के द्वारा ब्रह्म, जीव या प्रकृति का निरूपण करने लगे, तब अनेक विचार उनके मस्तिष्क में शास्त्र तर्क या अपनी स्वतन्त्र बुद्धि के अनुसार प्रकट हुए। वे ही विचार अनेक मत-मतान्तरों की स्थापना के कारण हुए। इसलिए बुद्धिवाद द्वारा प्रकट हुए इन सम्प्रदायों में ब्रह्मविद्या के वास्तविक रहस्य का पता तक नहीं चल सका है, इसलिए इस स्वर्वेद की ब्रह्मविद्या किसी मत-सम्प्रदाय की वस्तु नहीं है, बल्कि प्राचीनकाल से चली हुई वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की ज्ञान-धारा है। ब्रह्मविद्या सृष्टि के प्रारम्भ से ही नित्य-अनादि सद्‌गुरु द्वारा प्रकट होती है और उस पथ पर जिन्हें अनादि सद्गुरु की प्राप्ति हो जाती है, वे सभी ब्रह्मनिष्ठ महर्षिजन अध्यात्म तत्त्व के प्रकाश में अपने जीवन को ले चलते हैं और अमर शान्ति को प्राप्त करते हैं। इसलिए इस दोहे में पक्षपातपूर्ण अनेक सम्प्रदायों से भिन्न सन्तमत अर्थात् ब्रह्मविद्या का उल्लेख किया गया है। ब्रह्मविद्या किसी मत-सम्प्रदाय की वस्तु नहीं है, बल्कि सद्‌गुरु के विमल प्रकाश में चलने वाली, सारे देहसंघात से पृथक्, चिन्मय स्वरूप से परमानन्द प्राप्ति की एक मात्र स्वतन्त्र साधना है। ब्रह्मविद्या का उत्कृष्ट ज्ञान सब सम्प्रदायों से अलग एवं स्वतन्त्र है और इसका विकास सद्‌गुरु के प्रकाश में अनुभव द्वारा होता है।

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