अध्याय 4 ब्रह्मविद्या परकाश है, भक्ति मुक्ति सुखधाम। गाथा यह अध्यात्म है, अमत सनातन नाम।
शब्दार्थ
ब्रह्मविद्या पराविद्या भक्ति, चेतन साधन, अनन्य एक धार से प्रभु में परम प्रेममुक्ति बंधन-निवृत्ति अमृत, जिसका प्राकृतिक कोई मार्ग नहीं है सनातन नाम, अनादि।
भाष्य
ब्रहाविद्या के प्रकाश में चेतन साधन, अनुभव योग-युक्ति द्वारा चेतन धाम, परम पुरुष की प्राप्ति होती है। यह तत्त्वज्ञान आध्यात्मिक है। किसी मच या सम्प्रदाय की गाथा नहीं है. बल्कि सनातन ब्रह्मविद्या तत्त्वज्ञान प्रकाश है। सनातन ब्रह्मविद्या का प्रकाश सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही संसार में चला आ रहा है। आधुनिक तत्त्वज्ञान वाचक ज्ञान के अतिरिक्त जहाँ परब्रह्मप्राप्ति का कोई अनुभव साधन नहीं है, वह ब्रह्मविद्या नहीं है, बल्कि मत-सम्प्रदाय है। शरीर, मन, बुद्धि एवं वाणी के साधन से परब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि वह परब्रह्म मन, बुद्धि और इन्द्रियागोचर है। प्रकृति पार वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रकृति-पार साधन चाहिए। इसलिए वह अप्राकृतिक परब्रह्म इन मन-वाणी के साधन एवं मनोरंजन से दूर है। इसकी प्राप्ति सनातन ब्रह्मविद्या, जो सम्प्रदाय, मत और विचार से रहित।
2 त्रयगुण धर्मसंबंध में, मिले न निर्गुण नाम। निर्गुण निर्गुण भक्ति है, चेतन चेतन धाम।
शब्दार्थ
त्रयगुण, सत्त्व-रज-तमयुक्त प्रकृति निर्गुण, प्रकृतिगुण से अभिन्न।
भाष्य
प्रकृति के त्रयगुण सम्बन्ध से जबतक आत्मिक चेतना लगी रहेगी, तब तक अप्राकृतिक चेतन शब्द परम पुरुष की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मा और परब्रह्म दोनों चेतन सजातीय वस्तु हैं। दोनों प्रकृति के गुणों से रहित हैं। आत्मा की चेतना जब तक सारे देह-संघात में लगी रहती है, तब तक प्रकृति त्रयगुण का सम्बन्ध लगा रहता है। इसलिए निर्गुण आत्मा से निर्गुण परब्रह्म की भक्ति होती है, जहाँ पर प्रकृति का सम्बन्ध नहीं है। सजातीय वस्तु से ही सम्बन्ध स्थिर रहता है, विजातीय वस्तु में नहीं। लोहे और क़ाष्ठ का सम्बन्ध विजातीय है। वह दीर्घ काल तक स्थिर नहीं रह सकता। काष्ठ-काष्ठ का सम्बन्ध एवं लोहे-लोहे का सम्बन्ध सजातीय होने से स्थिर रहेगा। इसलिए आत्मा और परब्रह्म चेतन निर्गुण हैं। इन दोनों के सम्बन्ध से ही भक्ति होती है। जड़-चेतन का सम्बन्ध स्थिर रहने वाला नहीं है। इसलिए आत्मा और परब्रह्म दोनों चेतन होने से अपने चेतन धाम में एक साथ स्थिर रहते हैं। जीव-ब्रह्म का सम्बन्ध स्वाभाविक है, और प्रकृति-आत्मा का सम्बन्ध अस्वाभाविक, प्रतिकूल है। इसलिए त्रयगुण प्रकृति के साथ में रहने पर अप्राकृतिक परब्रह्म नहीं प्राप्त हो सकता है। चेतन आत्मा चेतन परब्रह्म को प्राप्त करती है, अर्थात्, चेतन आत्मा जड़ अनात्म जगत् को छोड़कर चेतन परब्रह्म की भक्ति करती है।
3 झूठ साच कैसे मिले, अन्तरभूमि आकाश। प्रवृत्ति भूमि का खेल है, अनुभव खेल अकाश।
शब्दार्थ
झूठ, असत्य, अनित्य, प्रकृति (साच) सत्य, नित्य-परब्रह्म अन्तर, भेद, भिन्न (भूमि) पृथ्वी आकाश, चिदाकाश प्रकृति, प्रकृक्ति-प्रवाह अनुभव, चेतन विकास।
भाष्य
सत्यासत्य का मेल कैसे हो सकता है? क्योंकि पृथ्वी आकाश दोनों में बड़ा अन्तर है, अर्थात् प्रकृति जगत् में रहने वाली जड़ शक्ति प्रकृति पार आकाश के तत्त्व को कैसे प्राप्त कर सकती है? जब तक शरीर, मन, बुद्धि एवं वाणी आदि प्रकृति का सम्बन्ध लगा है, तब तक निराधार चेतन अनुभव की प्राप्ति जो स्वच्छन्द आकाश में होती है, कैसे हो सकती है? प्रवृत्ति माया बाह्य प्रवाह है, अर्थात् माया का खेल है। वाणी, बुद्धि और शरीर के द्वारा जो चेष्टा की जाती है, उसे न्याय की परिभाषा में 'प्रवृत्ति' कहते हैं। जब शरीर, मन, बुद्धि और वाणी की शक्ति सब ओर से एकत्र होकर गुरु भेदयुक्ति से चेतन परब्रह्म की ओर प्रवाहित होती है, तभी चिदाकाश, सद्गुरु-धाम के अनुभव, खेल, रहस्य का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। यहाँ पर 'भूमि' प्रकृति मण्डल स्थिर जड़ात्म भूमि और शुद्ध, पवित्र सद्गुरु धाम को 'आकाश' कहा गया है। प्रकृति की भूमि में प्रवृत्ति अर्थात् इन्द्रियों का व्यवहार होता है और शुद्ध चेतन विराजधाम में सद्गुरु-युक्ति से अनुभव, अपरोक्ष साध्य की प्राप्ति होती है।
4 गुणातीत अवधूत का, खेल अनोखी चाल। जिवन मृतक हो पग धरे, धीर अगम गम लाल।
शब्दार्थ
गुणातीत सत्, रज, तम त्रिगुणों से घटक (अवधूत) ज्ञानयोगी यथार्थ शब्द सोमरस का पान करने वाला, अंतर्वृत्ति का योगी (खेल) क्रीड़ा (अनोखी) अनुपम, निराला (चाल) गति जीवनमृतक प्रकृति संघात से अलग, चेतन स्वरूप में स्थिर धीर।
भाष्य
जब आत्मा शुद्ध स्वरूप में आकर चेतन सुरति को जागृत करती है, तब त्रिगुणों का तिरोभाव हो जाता है, और आत्मा शुद्ध चेतन स्वरूप में आकर परमानन्द सुख में विश्राम करती है। त्रिगुणों के सम्बन्ध से, प्रकृति के आधार से आत्मा को अनेक द्वन्द्व और अशान्ति हुआ करती हैं। जब प्रकृति-मण्डल छूट जाता है, तब योगी गुणातीत हो जाता है। गुणातीत अवधूत, योगी की चेतन क्रिया प्रकृति से अलग एवं अनुपम गति से अपने प्रदेश में प्रकाशमान रहती है। जब तक प्रकृति मण्डल से आत्मा का सम्बन्ध रहता है, तब तक भौतिक सुखों की प्राप्ति में जीवन लगा रहता है, और जिस काल में प्रकृति-संघात से आत्मा की चेतना अपने शुद्ध स्वरूप में हो जाती है, तब योगी संसार में मृतक के समान हो जाता है। प्रकृति प्रवाह उसका बन्द हो जाता है।
अतएव प्रकृति से मृतक योगी ही, जो परमधीर और सद्गुरु का अनन्यशरण-सेवी है, उस मन, बुद्धि, इन्द्रियागोचर एवं अगम, परब्रह्म का गम अर्थात् प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करता है। बिना संसार की आशा-वासना का त्याग किये और इन्द्रिय जगत् से उपरम हुए अनुभवगम्य परब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए संसार से जीवन-मृतक अर्थात् असंग अवस्था में ही परब्रह्म की प्राप्ति करके योगी जीवन-मुक्त होता है। योगाभ्यास में ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, जबकि आत्मा को देहाध्यास या संसार का भान नहीं होता। इस स्थिति को जीवन-मृतक की संज्ञा दी गयी है।अर्थात् जीते हुये जो मृतक है, वही मन-बुद्धि, इन्द्रियादिक सारे देह संघात में रहते हुये भी इससे अलग है। यही जीवन-मृतक का अर्थ है। जीवन-मृतक अवस्था विहंगम योगी की होती है और वह योगयुक्ति से प्रकृति-आधार छोड़कर सहज शून्यपार परमानन्द महान् सुख को प्राप्त करता है।
5 मम सद्गुरु आदेश है, सत्य करो उपदेश। भला बुरा जग मानई, सन्त चले निज देश।
शब्दार्थ
सद्गुरु, ब्रह्मविद्या के आचार्य, नित्य अनादि सद्गुरु निजदेश, परमानंद, मुक्ति।
भाष्य
मुझे नित्य-अनादि सद्गुरु की आज्ञा है कि ब्रह्मविद्या तत्त्व ज्ञान अनुभव योग साधन का सत्योपदेश सबको करो। प्रभु-प्राप्ति परमानन्द की उपलब्धि करने का अधिकारी मनुष्य मात्र है। अधिकारी अध्यात्म पिपासुओं को ब्रह्मविद्या तत्त्वज्ञान का उपदेश करना चाहिए। सन्मार्ग में चलने पर अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, इसलिए अनेक बाधाओं के होते हुए भी अपने सद्गुरु-भक्ति अध्यात्मपथ से विचलित नहीं होना चाहिए। सन्त संसार की ओर न देखकर सदैव सद्गुरु-शरण में रह, अपने अनुभव भेदयुक्ति द्वारा आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होकर परमानन्द महान् सुख को प्राप्त कर लेते हैं। ब्रह्मविद्या के आचार्य ही अध्यात्म जगत् के पथप्रदर्शक हैं। इसलिए उन्हीं की शरण में रह कर अध्यात्मत्तत्त्व का बोध और पूर्ण शान्ति की प्राप्ति होती है। सद्गुरु ही सद्गुरु बनाते हैं। अपने मन का मनमुखी कोई सद्गुरु नहीं होता। अतएव नित्य अनादि सद्गुरु के नियम, आदेश, अनुशासन में ही ब्रह्मविद्या के प्रचारक सद्गुरुजन अपना आध्यात्मिक प्रचार का संचालन करते हैं। उनका ईश्वरीय सृष्टि के जड़-चेतन सभी पदार्थों पर नियन्त्रण और अधिकार है। जो स्वतन्त्र अपने मनमानी विचार से गुरु बनते हैं, वे अपने तथा दूसरों को अन्धकार में ले जाकर पतन करते हैं। अतएव अध्यात्मपथिकों को चाहिए कि अध्यात्मविद् पूर्ण सद्गुरु की खोज कर उनके ज्ञान सदुपदेश के द्वारा अपने मानव-जीवन को अध्यात्मपथ पर आगे बढ़ावें?


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