शब्दार्थ
रहनी स्वभाव (गहनी) अभ्यास, सयुक्ति करनी कर्त्तव्य, साधन में पुरुषार्थ सत्य सत्याचरण सभेद् युक्ति से पुरुषार्थ करने वाला पवित्र आत्मा (सत्य) सत्य सिद्धान्त में अविचल दृढ़ विश्वास (सत्य) अनिर्वाच्य परब्रह्म सत्य भेष, मन, वाणी, व्यवहार से पवित्र (सत्यटेक) एक अनन्य शुद्ध निष्काम पवित्र भक्ति अर्थात् एक ध्येय।
भाष्य
इस दोहे में जीवन के अध्यात्म पथिक-प्रभुभक्त अनुरागियों को पवित्र होने का उपदेश किया गया है, जिसका व्यवहार सत्य नहीं है, जिसकी रहनी गहनी और कर्त्तव्यनिष्ठा सच्चे रूप में नहीं है, वह महान् लक्ष्य, परम प्रभु को नहीं प्राप्त कर सकता। ब्रह्मविद्या केजिज्ञासुओं को अत्यन्त आवश्यक है कि सत्यव्यवहार, सत्याचरण, सत्य अनुराग, सच्ची श्रद्धा और सच्ची गुरुभक्ति को धारण कर सत्य स्वरूप परम प्रभु को पाने की चेष्ठा करें। वह परब्रह्म सत्य है, तब मेरा भी आचरण और व्यवहार सभी सत्यमय होना चाहिए। सत्यनिष्ठ के जीवन में आत्मिक बल स्वाभाविक रूप से पाया जाता है। सत्य वह है, जो तीनों काल में एक रूप से रहे। जिसका सिद्धान्त सत्य है, पुरुषार्थ, अभ्यास, कामनारहित, सत्यमय है तथा जिसका व्यवहार, आचरण, छल-कपट, प्रवञ्चना से रहित है, वही सच्चा अध्यात्म पथिक अध्यात्म-तत्त्व के सज्ञान द्वारा जीवन के महान् लक्ष्य को प्राप्त करता है। प्रभु के सामने सच्चे बन कर जावो, वह तुम्हें स्वतः अपनायेगा।

योग साधन, प्रभु भक्ति शुद्ध पवित्र अर्थात् सत्य होने के लिए की जाती है। इसलिए व्यावहारिक या आध्यात्मिक सारे कार्य सत्य के प्रकाश में सत्यमय हो जावें, सारी विपदा एवं अशान्ति मानव जीवन की सदैव के लिए विनष्ट हो जायेंगी। प्रभु मेरे पास है और हम उसकी शरण में हैं। केवल शुद्ध, पवित्र होकर उस विशाल, दयालु सर्वाधार प्रभु के सम्मुख अपने जीवन को समर्पित कर देना है। भक्ति का सच्चा रहस्य तभी प्राप्त होता है, जब जीवात्मा सारी आशा-वासना से अलग होकर एक मात्र प्रभु की शरण में आत्म-समर्पण कर देता है। जिस भक्त अध्यात्म-पथिक में आत्म-समर्पण, सत्यता नहीं है, उसे आध्यात्मिक आनन्द और शान्ति अभिमानयुक्त साधन और योग करने से नहीं प्राप्त हो सकती।
सच्ची भक्ति पवित्रता में है और वह पवित्रता सत्यता से आती है। जिसका जीवन जितना ही सत्य, कोमल और दयालु होगा, वह उतना ही अध्यात्म तत्त्वों को अन्तर साधन भेद में शीघ्रता से प्राप्त कर सकेगा। सत्य में प्रकाश है और उसी में जीवन है। सत्य-पथ पर चलने के लिए हमें सत्यनिष्ठ और सद्विवेक युक्त हो. सत्य कर्त्तव्यपरायण होना चाहिए। सत्य से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है। सत्य स्वरूप ईश्वर, सत्य, कर्मनिष्ठ एवं सच्चे अनुरागियों को ही प्राप्त होता है। सत्य के पालन करने वाले भक्त की रक्षा भगवान् स्वयं करते हैं एवं सत्य की सदैव विजय होती है। इसलिए ग्रन्थकार ने सत्य की सच्ची व्याख्या इस दोहे में करके अनुरागी साधकों के सारे कर्म, व्यवहार को सत्यमय बनाने का सदुपदेश किया है।
2 सत्य वचन निरपक्ष है,सत्य सत्य को मिलत है, झूठ वचन है पक्ष। सन्त अमत मत दक्ष।
शब्दार्थ
सत्य वचन, निर्भान्त, दिव्य पवित्र वाणी, आप्त वचन सत्य, परब्रह्म सत्य, सत्य सिद्धान्त पर रहने वाला दृढ़ता सन्तमत, नित्य अनादि सद्गुरु, का ब्रह्मविद्या विहंगम योगमार्ग अमृत, सर्व मत सम्प्रदायों से रहित, प्रकृति, मन, बुद्धि एवं वाणी से परे शुद्धात्म चेतन प्रक्रिया।
भाष्य
जिस योगी महापुरुष को विहंगम योग समाधि में सर्व तत्त्वों का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त हो गया है, उसे ही सर्व पदार्थों की प्राप्ति अर्थात् ज्ञान होता है। आप्त पुरुष के वचन संसार के लिए प्रमाण स्वरूप हैं। सत्य द्रष्टा आप्त के वचन ही निष्पक्ष होते हैं। प्रकृति मण्डल केविद्वान् या योगी के वचन निर्भान्त नहीं हो सकते। वह पक्षपात अर्थात् दूसरे के ज्ञान के आधार पर अपने पक्ष का समर्थन करता है। इसलिए संसारी विद्वानों के वचन सत्य नहीं हो सकते। सत्य का पूर्ण ज्ञान योगाभ्यास अनुभव योग-समाधि में होता है। योगी ही पूर्ण विद्वान् और सर्व तत्त्वज्ञ होता है। वाचक ज्ञान और ग्रन्थावलोकन से जो बुद्धि निश्चय करती है, वह भ्रमयुक्त होता है। योगजन्य प्रज्ञा, जिसे ऋतम्भरा कहते हैं, वह योग के साधन द्वारा महाविदेह में संयम करने से प्रकट होती है, और बुद्धि का जो आवरण है, वह क्षय हो जाता है। बुद्धि के विकास का साधन पूर्ण रूप से प्राप्त होने पर ही तत्त्वों का बोध होता है, इसलिए इस दोहे में योगी के निर्भान्त वचन को ही 'निर्पक्ष' कहा गया है, क्योंकि प्रत्यक्ष निर्भान्त ज्ञान हो जाने पर ही संशय एवं मोह नष्ट होता है और सत्य का पूर्ण ज्ञान होता है, इसलिए सत्यवचन निर्भान्त, निर्पक्ष होता है।
जिसे वाणी के स्वरूप का ज्ञान नहीं, वाणी का मूलाधार कहाँ है, उसके स्वरूप का बोध नहीं है, वह यथार्थ सत्य को नहीं प्रकट कर सकता। सत्य वचन वही निर्पक्ष है, जिस सत्य और उसके वास्तविक स्वरूप को हम प्राप्त कर चुके हैं। जिसे सत्य का दर्शन नहीं हुआ है, वह सत्य को प्रकट नहीं कर सकता। वाणी, मन और आत्मा को सत्य ज्ञान के लिए योग साधन द्वारा उसे अन्तर्मुख करना चाहिए, क्योंकि सत्य का स्वरूप प्रकृति के आवरण से ढँका हुआ है। सत्य स्वरूप परब्रह्म को वही प्राप्त करता है, जिसका जीवन सदैव सत्यमय हो जाता है। कपटपूर्ण सत्य, सत्य नहीं है। सत्य में स्वाभाविकता और स्वयं प्रकाश है। जो छल और कपट से युक्त है, वह सत्य नहीं। सत्य नित्य वस्तु है, उसका रूपान्तर नहीं होता। सत्य मार्ग एवं सत्य सिद्धान्त पर रहने वाला ही सत्य को प्राप्त करता है। तीनों काल में एक रूप से जो पदार्थ स्थिर है, वही सत्य है।
इसलिए सिद्धान्त, जीवन, मन, वाणी और व्यवहार सदैव एक रूप से होते हैं, तभी हम सत्यव्रती और सत्यनिष्ठ होकर सत्यस्वरूप परब्रह्म को प्राप्त कर सकते हैं। पक्षपात में सदैव असत्य का व्यवहार होता है। इसलिए सत्यनिष्ठ जन पक्षपात से रहित होकर यथार्थ सत्य को जानने के लिए सद्गुरु-शरण को प्राप्त होते हैं। सन्तमत प्रकृति के जितने मत-सम्प्रदाय के मार्ग हैं, उनसे भिन्न है। समस्त प्रचलित पथ प्रकृति क्षेत्र में अपनी कर्मगाथा को गा रहे हैं। वैदिक सन्तमत अमत है। वह शुद्ध ब्रह्मविद्या का विकास है एवं मानव जीवन के विकास के लिए यथार्थ मार्ग-दर्शन है। सन्तमत ब्रह्मविद्या किसी मत-सम्प्रदाय की वस्तु नहीं है। अध्यात्म-पिपासु जन सन्तमत ब्रह्मविद्या योगाभ्यास द्वारा दक्ष होकर सच्ची आत्मिक शक्ति का उत्पादन कर निःश्रेयस के परम सुख को प्राप्त होकर कृतकृत्य होते हैं, इसलिए सम्प्रदायविहीन सन्तमत को 'अमत' शब्द से इस दोहे में सम्बोधित किया गया है।
3 सत्य सन्त की चाल है, वह अकाश का खेल। दूर सन्त पद याहि से, दुर्लभ अविगति मेल।
शब्दार्थ
चाल, गति, व्यवहार (खेल) क्रीड़ा, रमण (अविगति) चेतन परब्रह्म जहाँ मन,बुद्धि एवं प्राण की गति नहीं है (अकाश) प्रकृति, आधाररहित शुद्ध चेतन महामण्डल।
भाष्य
सन्त का साधन, अनुभव, गति सत्य है। प्रकृति में त्रिगुणों के भाव होने से आत्मिक चेतना चञ्चल रहती है। इसलिए उसकी गति में हास-विकास मन के संयोग से होता रहता है। विहंगम योगी प्रकृति से अपनी चेतना अलग कर चिन्मय स्वरूप शुद्ध चिदाकाश में रमण करता है। उसका आधार प्रकृति नहीं रहती। वह अपनी सत्य चाल से प्रकृति आधार छोड़कर स्वच्छन्द आकाश में आत्मक्रीड़ा, करता है। इसलिए सन्त पद प्रकृति आधार से रहित दूर अर्थात् सूक्ष्म है। यह चेतन परब्रह्म का सम्बन्ध अनन्य शरण एवं आस्तिक्य भावयुक्त उत्तम कोटि के साधकों को प्राप्त होता है। मन, बुद्धि, वाणी एवं इन्द्रियों से असंग होकर शुद्ध चेतन-स्वरूप से सन्त की अनुभव-गति संचालित होती है। इसलिए इस दोहे में सन्त की चाल अर्थात् अनुभव सद्युक्ति को 'सत्य' कहा गया है?
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