अध्याय नंबर 6 मना पवन अरु सुरति को, समिट भजो सत्य नाम। अर्धभूमि झाँकी नहीं, अविचल स्थिर धाम।
शब्दार्थ
मना, इंद्रियों से कार्य करने वाला, विषय-रस प्रलोभी एक अंतःकरण (पवन) प्राण (सुरति) चित्रकला, चेतन शक्ति (समित) एक साथ (सत्यनाम) सार शब्द, पर पुरुष (झांकी) दर्शन (अविचल) दृढ़ (धाम)) चेतन केन्द्र विराजधाम।
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भाष्य
मन के द्वारा ही इन्द्रियों में गति होती है। मन के सम्बन्ध से ही इन्द्रिय-करणों के विषय-उपभोग से आत्मा को दुःख-सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए इस वाणी में मन को सर्व प्रथम पकड़ने का उपदेश किया गया है। पवन से ही चक्र-नाल और सारे शरीर में क्रिया होती है। शरीर के अन्दर मन और पवन इन्हीं दोनों के द्वारा प्रकृति की सारी क्रियाएँ होती हैं, परन्तु मन और पवन से सूक्ष्म सुरति है, जिसके सम्बन्ध से देह-संघात की सारी क्रियाएँ होती हैं। जब सुरति मन का साथ देती है, तभी मन इन्द्रियों द्वारा अपने समस्त कर्मों को करता है। सुरति, आत्मा की चेतन किरण अर्थात् चेतन शक्ति है। इसलिए प्रकृति देह संघात में विखरी हुई समस्त शक्तियों को लेकर उनके मूल कारण में जब योगी लय कर देता है, तभी आगे का उसका मार्ग प्रशस्त होता है। जब तक मन और पवन में सुरति लगी रहेगी, तब तक आत्मिक चेतना स्थिर नहीं होगी। इसलिए योग साधन विहंगम मार्ग में सुरति के साथ मन और पवन को पकड़ कर अन्तर्मुख करके उसके मूल कारण में विलय कर परब्रह्म, परम प्रभु की भक्ति की जाती है। मन, पवन और सुरति को समेट कर सद्गुरु भेदयुक्ति से परम प्रभु की भक्ति होती है। जब इन तीनों को अन्तर्मुख कर योग संयम, सद्गुरु-विधान द्वारा सहज योगी अन्तर में प्रवेश कर जाता है, तब मन, पवन के लय हो जाने पर प्रकृति में नीचे नहीं देखता, बल्कि मन, पवन से रहित होने पर शुद्ध सुरति द्वारा दृढ़ स्थिर परम पद को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाता है।
2 मन पवन का कर्म सब, भूमि प्रवृत्ति प्रपञ्च । सुरति आकाश निवृत्ति है, अद्भुत सन्तन मंच।
शब्दार्थ
भूमि, प्रकृति (प्रकृति) मन, इन्द्रियों का व्यवहार (प्रपंच) क्षर, माया-विस्तार निवृत्ति) त्याग (अद्भुत) आश्चर्यमय, अलौकिक (मञ्च) सर्वोपरि स्थान।
भाष्य
मन और पवन के सभी कर्म प्रकृति आधार पर होते हैं। इनमें से आत्मिक चेष्टा, आकर्षक प्रपंच क्षर जगत् में प्रवृत्त होता है। आत्मा की शक्ति मन और प्राण के बाह्य जगत में चली जाती है। इस प्रवृत्ति से जगत् प्रपंच का भान होता है, और जब मन-पावन को छोड़ कर सुरति शुद्ध रूप से सद्गुरु भेद आकाश की ओर गमन करती है, तब समस्त कर्म, भ्रम और दुःख का निवृत्ति हो जाती है। सन्तों का अद्भुत योग विहंगममार्ग सर्व कर्म, धर्म और तप आदि क्रिया से अनुपयुक्त सर्वोत्कृष्ट उत्तम पद है। संत-पाद सर्व पूज्य और अत्यंत महान हैं और उनकी अनुभव-योग-समाधि की भूमि सर्वोच्च और सर्वोच्च है।
3 आसन स्थिर शान्त दृढ़, हिले दुमे नहिं देह। बैठे मनमथ मारि कर, सुमिरे पुरुष विदेह।
शब्दार्थ
मन्मथ, मन-विषय-तरंग (पुरुष) व्यापक परम प्रभु (विदेह) देह से अनुपयोगी।
भाष्य
बिना दृढ़ आसन हुए योग समाधि में स्थिरता एवं लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए योग समाधि में आसन दृढ़, स्थिर, शान्त होना चाहिए एवं अडिग और अकम्प होकर मन के सारे विषय प्रपंचों को छोड़ कर सर्व पार, व्यापक परब्रह्म का सुमिरन करना चाहिए।

4 स्थिर सुख आसन करे, मकर तार का ज्ञान। सद्गुरु द्यौ वंदन करें, शून्य भेद पर ध्यान।
शब्दार्थ
स्थिर सुख आसन, स्वाभाविक सुखासन जिसमें बैठ कर स्थिरता हो (मकर तार) शब्द और आत्मा से संबंधित धारण-शक्ति (सद्गुरु) सिद्धांत से मुक्त करने वाले (द्यौ) दिव धाम (शून्य) महाशून्य (भेद) मर्म, रहस्य, युक्ति (ध्यान) दर्शन अनुभव योग समाधि में एकता।
भाष्य
सुखपूर्वक बैठने में जिससे स्थिरता हो, उसे 'आसन' कहते हैं। विहंगम योग समाधि में दृढ़ आसीन होकर मकर तार का ज्ञान करके दिवधाम पर सद्गुरु नमस्कार करके महाशून्य पार, अव्यक्त एवं अनुभवगम्य परम पुरुष का ध्यान-उपासना करें। यही विहंगम योग का साधन है। आसन, सद्गुरु और व्यापक आधार की शक्ति का ज्ञान प्राप्त करके शून्य भेद के तत्त्व-बोध से प्रकृति पार परब्रह्म की उपासना का विधान इस दोहे में किया गया है।
5 पुरुष अमानव की कृपा, परख तत्त्व निःशब्द । टूटे तार न भजन का, हेय सकल क्षर शब्द।
शब्दार्थ
(अमानव पुरुष, नित्य-अनादि सद्गुरु (निःशब्द) अनिर्वाच्य, सारशब्द (भजन) प्रकृति पार साधन (हे) त्याज्य क्षर शब्द, प्राकृतिक ब्रह्माण्डी, अनित्य शब्द।
भाष्य
जब आत्मा की चेतना प्रकृति-पार चेतन प्रदेश में स्थिर हो जाती है, तब सद्गुरु की कृपा से पिण्ड-ब्रह्माण्ड के भौतिक सारे शब्द योगाभ्यासी से छूट जाते हैं। विहंगम योग के साधन में ब्रह्माण्डी भौतिक सभी शब्द छूटते जाते हैं, और योगी अन्तर प्रकाश में आगे बढ़ता जाता है। जब एक पाद मण्डल प्रकृति छूट जाती है, तब उस स्थान पर दिव्य सद्गुरु का प्रकाश प्राप्त होता है, तब वहीं नित्य दयालु सद्गुरु की कृपा से वह अनिर्वाच्य अक्षरातीत-निःशब्द का परख अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शन होता है। उस निःशब्द परम तत्त्व को देखना, अनुभव तथा साक्षात्कार करना भक्ति है। साक्षात्कार के पश्चात् ही भजन एवं इसके वास्तविक आनन्द की प्राप्ति होती है। जब तत्त्व स्पष्ट प्रत्यक्ष होने लगे, तब उसको एक तार निरन्तर देखना भक्ति है, उस भजन की गति एक रूप से रहे, वह अन्तर अनुभव प्रयत्न से कभी विलगाव न हो, यही उत्तम प्रयत्न भक्ति है। प्रभु में एक तार अविच्छिन्न प्रेम-प्रवाह को ही भक्ति कहते हैं, जिसका सम्बन्ध कभी न टूट सके। यही भजन का स्वरूप सद्गुरु देव जी ने बतलाया है।

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