अध्याय नंबर 7 मना क्षणिक वैराग ले, चढ़े उत्तुङ्ग अकाश। तुरत राग में गिरत है, सद्‌गुण जीव विनाश ।

 अध्याय नंबर 7 मना क्षणिक वैराग ले, चढ़े उत्तुङ्ग अकाश। तुरत राग में गिरत है, सद्‌गुण जीव विनाश ।

 शब्दार्थ

मन, इन्द्रिय विषय में रहने वाला (क्षणिक) चंचल (वैराग्य) राग की अनिच्छा (उत्तुंग) भारी स्थूल (राग) भोग इच्छा (विनाश) लय।

भाष्य

 ज्ञानयुक्त वैराग्य ही स्थिर होता है। पूर्ण ज्ञान के पश्चात् ही पूर्ण वैराग्य होता है। मन चञ्चल है, इसलिए विवेकहीन वैराग्य मन का तरंग है। मन के क्षणिक भाव को लेकर जो अध्यात्म पक्ष में आगे बढ़ते हैं, उनको मन का रस प्रलोभन नहीं मिलता। वे मानसिक क्षणिक वैराग्य होने के कारण ध्येय से गिर जाते हैं। उनका लक्ष्य मन के अन्दर है एवं मन के हास-विकास में उनका उत्थान और पतन है। इसलिए मन का वैराग्य लेकर भक्ति-पथ में आगे बढ़ने वाले का शीघ्र राग में गिर कर सद्‌गुणों का विनाश होने से पतन होता है। आत्मा और मन ये दोनों के अलग-अलग क्षेत्र और विकास है। जिज्ञासु के अन्दर जब शुभ गुण, शम, दम आदि प्रकट हो जाते हैं, तभी वैराग्य स्थिर रहता है। संस्कारी आत्माओं के अन्दर सत्याचरण, दृढ़संकल्प और सच्ची गुरुभक्ति होने से मन स्थिर रहता है। वे स्थिर वैराग्य को ज्ञान के द्वारा पूर्णरूपेण धारण कर अध्यात्म पक्ष में आगे बढ़ते जाते हैं। मन का क्षणिक वैराग्य चञ्चल होता है। अतएव मन के विषय-प्रवाह को छोड़कर, सद्‌गुरु द्वारा वास्तविक ज्ञान में पूर्ण निष्ठा रख आत्म-उन्नति के लिए दृढ़, निश्चय एवं निर्धान्त होकर भक्ति-पथ में आगे बढ़ना चाहिए।


2 मना पवन को उलटि कर, गगन निरन्तर लाग। अनुभव रमिता राग का, भीतर बाहर जाग।

शब्दार्थ

 मना, मन और उसका विषय तरंग (पवन) प्राण (गगन) आकाश (अनुभव) चेतन ज्ञान (रमिता राग) व्यापक शब्द भीतर बाहर, अर्ध-ऊर्ध्व, सर्वत्र व्यंजन।

भाष्य
 आत्मा की शक्ति मन और पवन द्वारा प्रकृति में बाहर चली जाती है। वह बर्हिमुख होने वाली शक्ति मन एवं पवन को अन्तर्मुख कर देने पर उलट कर सद्‌गुरु प्रदेश में गुरु-युक्ति से लग जाती है, तब व्यापक शब्द प्रकट होकर बाहर भीतर अनुभव होने लगता है, और आत्मा की शक्ति पूर्णरूप से जागृत हो जाती है।

3 कर ऊश्वाँस अपान को, ऊदविग्न नहिं श्वास को, योग युक्ति से फेर। सुरति निरन्तर हेर।

शब्दार्थ

 ऊषाँस, वायु का रेचन (अपान) मूलाधार स्थित वायु (सुरति) आत्मिक चेतन (उसकी) प्रबलता, प्रयास।

भाष्य

 प्राण-मन के स्थिर होने पर ही सुरति अपने प्रदेश को गमन करती है। इसलिए वायु का सूक्ष्म रेचन करके अपान वायु को योग की युक्ति से ऊपर आकर्षण करने से श्वाँस में उद्विग्नता नहीं होती, जिससे सुरति सहज में अपने प्रदेश में जाकर अनुभवप्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्न करती है। इस सद्‌गुरु विधान को सद्‌गुरु शरण में रहकर जान कस्के अनुभव साधन करना चाहिए।

4 मकर तार परवेश का, हो न योग जो द्वार। अन्ध कूप अन्धा गिरे, निकले कष्ट अपार।

शब्दार्थ

 मकरतार, जीव ब्रह्म कोणीय सूक्ष्म तार।


भाष्य

 वेद में जीव और ब्रह्म को 'सयुजा सखाया' कहा गया है। जीव और ब्रह्म का सदैव सम्बन्ध लगा हुआ है। प्रकृति-आवरण से वह सम्बन्ध ढँका हुआ रहता है। जब योगाभ्यास से प्रकृति का पर्दा हट जाता है, तब आत्मा के अन्दर सूक्ष्म व्यापक परब्रह्म का प्रकाश अनुभव होता है। इस दोहे में उस सम्बन्ध के प्राप्त होने का वर्णन किया गया है। आत्मा एकदेशी होने से शरीर के एक प्रदेश में रह, एक दृष्टिकोण में अपनी शक्ति का संचय करती है। जब शक्ति पूर्ण हो जाती है, तब उस व्यापक सत्ता का सर्वत्र अनुभव होता है। एकदेशी वस्तु होने से जीव की एकदेशी धारणा होती है। इसलिए इस पद्य में उस अनुभव-साधन को बतला कर मकरतार प्रवेश के लिए द्वार का वर्णन किया गया है। जब तक इस प्रकाश-द्वार की प्राप्ति नहीं होती, योगाभ्यासी अन्धकारमें पड़कर नीचे गिर जाता है।

 जब इस तत्त्व के प्रकाश द्वार में शक्ति पहुँच जायगी, तभी सूक्ष्म सुरति परम प्रकाश को प्राप्त होकर चेतन ब्रह्म सुख को प्राप्त करेगी। मकरतार प्रवेश होने का द्वार एक ही है। उसी द्वार में प्रवेश होने पर पूर्ण प्रकाश और आनन्द की प्राप्ति होती है। यही सन्तों का विहंगम मार्ग है। आत्मिक भूमि पर बैठ कर सहजातीत योगी इस द्वार में प्रवेश कर प्रकृति-बन्धन से मुक्त हो, परब्रह्म परमानन्द को प्राप्त करता है। एक पाद भव प्रत्यय वाले योगी बार-बार इस अन्धकूप में गिर कर कष्ट पाते हैं, क्योंकि उन्हें इस द्वार का ज्ञान नहीं रहता। अतएव विहंगम योगी अपनी सयुक्ति से इस अन्धकारमय पथ को छोड़कर शुद्ध, चेतन परमानन्द की प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं।

5 सैन समाधि स्वधाम को, श्वेत शून्य भी नाम। जाहि भूमि लिय सन्तजन, शीश निछावर काम।

शब्दार्थ

 सैन समाधि, विहंगम योग समाधि (श्वेत शून्य) प्रकाशमय प्रदेश (शीश) सिर।

भाष्य

 विहंगम योग समाधि स्वधाम को श्वेत शून्य भी कहते हैं। विहंगम योगी इस भूमि की प्राप्ति के लिये प्रभु को सर्व आत्मसमर्पण कर पूर्णकाम हो जाते हैं। बिना आत्म समर्पण किये प्रभु की प्राप्ति नहीं होती। जब तक जीव का अभिमान छूट नहीं जाता है, तब तक आत्मसमर्पण नहीं होता, न बिना आत्म समर्पण किए भक्ति होती है। अतएव सर्व आश, वासना और अभिमान को छोड़कर एक अनन्य भक्ति द्वारा ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है। यही इस दोहे का अभिप्राय है।

6 सर्व तोर एक जोर लो, पर अनन्य गति जान। सुख शान्ति मिल सन्त को, अन्य डिम्भ सब ज्ञान।

शब्दार्थ

 (डिम्भ) अज्ञान, भ्रम।

भाष्य

 प्रकृति के सारे सम्बन्धों को छोड़कर प्रभु में सम्बन्ध करने पर अनन्य भक्ति होती है। प्रकृति-आधार छोड़कर एक अनन्य भक्ति से ही सन्त को सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त अन्य प्रकृति-मार्ग सब धोखा, भ्रम है। एक मात्र विहंगम मार्ग में ही सर्व छोड़कर एकतार प्रवाह निरन्तर चलता है, जिसे भक्ति कहते हैं।

7 दृष्टि टकटकी लीये, अपरछिन्न गम ज्ञान। सुरति चढ़े पुनि प्रवेश, नीच भूमि अज्ञान।

शब्दार्थ

 टकटकी, एकतार देखना (अपरछिन्न) सर्वत्र व्यापक (ज्ञान) अनुभव, बोध।

भाष्य

 प्रकृति-आधार छूट जाने पर, शुद्ध चेतन आत्मा के सामने एक मात्र ब्रह्म ही दृष्टि में होता है। उसको एकतार देखने को ध्यान कहते हैं। उस ध्यान की एकतार निरन्तर स्थितिहोने पर व्यापक परब्रह्म का अनुभव ज्ञान होता है। अपने पवित्र ज्ञान में सुरति अपने केन्द्र पर जाकर अनुभव करने लगती है, किन्तु जब मन का आधार सुरति से लगा रहता है, तब वह अज्ञान से नीच भूमि प्रकृति में आ जाती है। जब तक मन के साथ जीव का सम्बन्ध लगा रहता है, तब तक सुरति का प्रवाह शुद्ध रूप से नहीं चलता। शुद्ध सुरति के प्रकट हो जाने पर इसका नीचे आवागमन बन्द हो जाता है और योगी मन के जगत् से उपरम होकर एकतार निरन्तर व्यापक अपरिच्छिन्न ब्रह्म का अनुभव करने लगता है। सुरति का आवागमन मन के संयोग से होता है। 

मन की असंग अवस्था में सुरति एकतार प्रवाह से गुरु प्रदेश में गमन कर सुख-शान्ति को प्राप्त कर दृढ़-स्थिर हो जाती है। सुरति आत्त्मा की अपनी चेतनशक्ति है, जिसके सम्बन्ध से प्रकृति के अन्दर सारे देह-संघात की सारी क्रियायें होती हैं। मन से सुरति भिन्न वस्तु है। आत्मा की चितिशक्ति सुरति है। आत्मा का जड़ करण नहीं है। शुद्धात्मप्रकाश उदय होने पर शुद्ध सुरति प्रकट होती है। ब्रह्मविद्या विहंगम योग के साधन द्वारा सुरति और मन का ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए सद्गुरु-प्रकाश में प्रतिदिन चेतन-साधन विहंगम योग का अभ्यास सब को करना चाहिए।
















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