अध्याय नंबर 8 नहीं देह नहिं दृश्य है, नहिं जग सुख दुख भान। श्वेत भूमि यह अगम गम, पूरण पुरुष पुरान।

अध्याय नंबर 8 नहीं देह नहिं दृश्य है, नहिं जग सुख दुख भान। श्वेत भूमि यह अगम गम, पूरण पुरुष पुरान।

शब्दार्थ

 दृश्य, प्रकृति संसार श्वेत भूमि समाधि मण्डल पूर्ण पुरुष।

भाध्य

 जब आत्मा प्रकृति-आधार छोड़कर चिन्मय स्वरूप में आकर ब्रह्मानन्द का आस्वादन करती है, तब देह और देह सम्बन्धी भोगदृश्य सब छूट जाते हैं, क्योंकि आत्मा की चेतना प्रकृति-आधार छोड़कर परब्रह्म में लग जाती है। उस अवस्था में योगी देह में रहते हुए भी विदेह के समान हो जाता है। जब एक पदार्थ का योग होता है, तब स्वाभाविक दूसरे पदार्थ का वियोग हो जाता है। अतएव परब्रह्म की प्राप्ति में प्रकृति का क्रमशः वियोग हो कर आत्मा की विशुद्ध अवस्था प्राप्त होती है। उस अवस्था में मन के अभाव हो जाने से संसार के दुःख-सुख, की प्रतीति नहीं होती। यह सर्वोच्च श्वेत भूमि मन, बुद्धि एवं प्राण से अगम्य है। इनसे उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रकृति पार इस प्रकाशमय भूमि की प्राप्ति से नित्य पूर्ण पुरुष की उपलब्धि एवं जीवन्मुक्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है।


2 श्वेत भूमि अन्तिम मिलै, एक राग एक तान है, रोम रोम ध्वनि एक। एक एक रह एक।

शब्दार्थ

 रोम, शरीर के सूक्ष्म अवयव, अंग, लोम आदि (राग) गाने का स्वर (तान) जिसके आधार पर स्वर निकलता है (एक) जीवात्मा (एक) साधन-मार्ग (एक) परब्रह्म।

भाष्य

 श्वेत भूमि ब्रह्मविद्या योग की अन्तिम भूमि है। यह प्रकाशमय लोक की प्राप्ति केलिए ही वेद तथा उपनिषद् में प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह इस प्रकाश-द्वार को खोल दें।जब यह श्वेत भूमि प्राप्त हो जाती है, तब आत्मा तथा सारे देह-संघात के अंग-प्रत्यंग, अवयवों में एक की ध्वनि प्रकट हो जाती है। सर्व प्रकृति-आधार छूटकर एक ही प्रकाशमय शब्द चारों ओर प्रकाशमान प्रतीत होने लगता है। इस विहंगम योग समाधि में ध्याता, ध्यान एवं ध्येय एक हो जाते हैं और आत्मा चिन्मयस्वरूप से एक आराध्य को प्राप्त कर तन्मय, तदाकार हो जाती है। यह अद्वैत स्थिति विहंगमयोग योग-समाधि में योगियों को प्राप्त होती है। जीव-ब्रह्म दोनों नित्य और भिन्न कूटस्थ वस्तु हैं, लोह-अग्निवत् ब्रह्म के साधर्म्य को प्राप्त होकर जीव तदाकार हो जाता है, अपने अस्तित्व को मिटाकर नहीं। इस पद में विहंगम योग की चेतन-समाधि का वर्णन किया गया है। चेतन-समाधि में जीव ब्रह्म का सुख भोगता है, ब्रह्म नहीं होता, क्योंकि चेतन पदार्थ दूसरे में नहीं मिलते। वे कूटस्थ और नित्य होते हैं।

3 तन मन आशा छाड़ कर, धसे मरे वर सन्त । मान सरोवर मिलतु है, सूख रासि भगवन्त।

शब्दार्थ

 मान सरोवर, हंसों का निवास स्थान (सुख राशि) पूर्णानंद (भगवंत) परम प्रभु।

भाष्य

 महान् सन्त शरीर, इन्द्रिय के सुख भोग की आश, वासना को छोड़कर परब्रह्म में प्रवेश कर लवलीन होते हैं, तभी सुख का सागर आनन्द-स्वरूप भगवान् की प्राप्ति होती है। संसार की आशा, मान, प्रतिष्ठा, भोग और अभिमान में रहने वाले परब्रह्म को नहीं प्राप्त कर सकते। जिसको किसी पदार्थ की इच्छा, आशा एवं राग नहीं है, वही उत्तम भक्त इस भक्ति के परमसुख को प्राप्त करता है। वीतरागी पुरुष को भक्तिपथ का परमानन्द प्राप्त होता है। अतएव अध्यात्म पथिक सर्व आश, मन का विषय राग और भोग की इच्छा को छोड़कर ही प्रभु-प्राप्ति के लिए आगे बढ़े। यही इस दोहे में उपदेश किया गया है।

4 अगम महल निरधार है, तार दिवस निशि लाग। मरमी हँस रहस्य में, अन्तर अनुभव पाग।

शब्दार्थ

 अगम महल, प्रकृति पार अनुभवगम्य भवन, चेतन मंडल जहां पर प्राकृतिक, मन, बुद्धि, इन्द्रियादिकों का गम नहीं है (निराधार) प्रकृति-आधार शून्यता में (तार) एकतार, स्थिर (मर्मि) भेदिक (हंस) अनुभवी सन्त (रहस्य) अनुभव-भेद-विवेक (लाग) सम्बन्ध (पाग।

भाष्य

 अनुभवी भेदिक संत विहंगम योग की सहज युक्ति से शुद्ध चेतन मंडल में एकतार साकार लगे रहते हैं, जिससे शुद्ध आत्मा का अंतर चेतन विकास पूर्णरूप से प्रकाशमान रहता है। शाश्वत चेतन विकास से आत्मा सर्वशक्तिमान् जागृत हो, अहर्निश शब्द मण्डल में लगी रहती है। यह रहस्य अगम महल में स्थित दिव्य सहज योगी शब्दामृत परमानंद को प्राप्त कर कृतकृत्य होजाता है। विहंगम मार्ग शून्य और निराधार अनुभव योग युक्ति है। इस रहस्य को सहज योगी सन्त जानते हैं, अर्थात् सन्तों का सहज मार्ग विहंगम पथ है।

5 शब्द सनेही मैं जगा, भूमि सनेही माहिं। वह लिन धार प्रवाह में, मगन लगन जन जाहिं।

शब्दार्थ

 जगा, प्रयत्न, ज्ञान (भूमि) बैठक (मगन) प्रसन्न, शान्त होना (लगन) प्रेम, मिलाप।

भाष्य

 आत्मभूमि पर ही परमब्रह्म की प्राप्ति का प्रयास होता है। आत्मचेतना के स्थिर, शांत होने पर ही शब्दस्वरूप परमब्रह्म की प्राप्ति के लिए सहज योगी जगता का प्रयास करता है। जो आत्म-आसन पर स्थिर नहीं है, वह आगे शब्द मार्ग, विहंगम योग में पुरुषार्थ नहीं कर सकता। अतएव योगी जन पुरुषार्थ करके अपने आत्मिक स्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं और शब्दस्वरूप परमब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं। वह शब्द स्नेही संत उस परम पवित्र धार के प्रवाह को प्राप्त करने का प्रयास करके प्राप्त कर मगन व शांत हो जाते हैं। यही जीवन की सर्वोच्च कृतिता है।

6 माप नाप निश्चय भया, ठीक ठिकान निशान। मण्डल से बाहर नहीं, अद्भुत खेल समान।

शब्दार्थ

 माप नाप, परिमाण, गुरु प्रदेश मण्डल का ज्ञान (ठिकान) स्थान (निशान) लक्ष्य (ठीक) स्थिर, शान्त (मण्डल) परिधि, घेरा (अद्भुत) आश्चर्यमय (खेल) योगलीला।

भाष्य

 सहज योगाभ्यासी गुरु मण्डल के भेद पर अपनी चेतन शक्ति स्थिर करके उसी में लवलीन हो जाते हैं। यह विहंगम योग की आश्चर्यमय लीला है। इस दोहे में साधन-भेद का स्पष्ट वर्णन किया गया है। योगी की जब तक अपनी चेतना गुरु-मण्डल में स्थिर नहीं होती, तब तक वास्तविक सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। यह गुरुगम्य स्थिति है। अन्धकार में साधन नहीं होता। बिना सद्‌गुरु के यह साधन पूर्ण नहीं होता। इस पद में कही भूमि पर ही सद्‌गुरु की महान् आवश्यकता है। जब सुरति स्वतन्त्र हो, अपने मण्डल से बाहर चली जाती है, तब उसे अपने स्थान पर आना अत्यन्त कठिन है। सद्‌गुरु के अतिरिक्त अपनी चेतना को दूसरा कोई स्थिर नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति एक बार इस लेखक की हो चुकी है। जब चेतना प्रदेश से बाहर चली जायेगी, उस काल में जीवन का अन्त होने लगता है और योगी बैठे हुए स्थिति में रहकर दुःख की गहरी कठिनाई में पड़ जाता है। इसलिए उस काल में सद्‌गुरु-दया से प्राण के सम्बन्ध हो जाने पर नीचे चेतना चली आती है और श्वाँस की उद्विग्नता बन्द हो जाती है। 

इस प्रकार प्राण-मन स्थिर होकर बाहर इन्द्रिय जगत् में आ जाते हैं और धीरे-धीरे नेत्रों में शक्ति आने से प्रकाश आ जाता है। मेरी ऐसी विकट स्थिति में सद्‌गुरु देव ने अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा मेरे प्राणों की रक्षा की थी। इसलिए सद्‌गुरु-प्रकाश में ही प्रकृति-आधार छोड़करचेतनशक्ति से परब्रह्म की प्राप्ति होती है। मनमुखी और गुरुविहीन साधन अन्धकार और महान् पतन का कारण है। अध्यात्म क्षेत्र में बिना सद्‌गुरु के दिव्यावलोकन से प्रकाश प्राप्त नहीं हो सकता। सद्गुरु-ज्ञान के प्रदाता, प्रकाश देने वाले, अनुभव तत्त्व को लखाने वाले और सर्वद्रष्टा आप्त होते हैं। इसलिए सद्‌गुरु प्रकाश में ही आध्यात्मिक शक्ति का विकास और पूर्ण-ज्ञान की प्राप्ति होती है।

7 मायू बादल वर्षती, सहस फुहारा धार। तन मन आतम भर्भीजता, शीतल शान्ति सुधार।

शब्दार्थ

 मयौ, शब्द, परब्रह्म।

भाष्य

 सार शब्द की अमृत धारा और उसके सहस्र फुहारों की वृष्टि से शरीर, आत्मा और मन शीतल, शान्त हो जाते हैं। शब्दस्वरूप परब्रह्म रूपी मेघ के बरसने पर मन एवं इन्द्रिय आदि के दोष-दुर्गुण दूर हो जाते हैं, और सच्चरित्रता एवं सत्याचरण से स्वाभाविक शीतलता प्राप्त हो कर शान्ति की प्राप्ति होती है। योगी सोमरस के पान करने से शरीर-मन के त्रितपन शान्त हो जाने पर, शान्त एवं मधुमान हो जाता है।

8 वरत भंग नहिं हो सके, धर्म छोड़ नहिं साथ। भक्ति तार टूटे नहीं, सन्त प्रबुद्ध सनाथ।

शब्दार्थ

 वर्त, नियम, प्रतिज्ञा (प्रबुद्ध) विवेकी।

भाष्य

 विवेकी सन्त अपने भक्ति-पालन रूपी व्रत को भंग नहीं करते। श्वाँसोश्वाँस अपनी अटल भक्ति का पालन कर निज लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। अपने साधन द्वारा सिद्धान्त-लक्ष्य की प्राप्ति में सदैव दृढ़ प्रतिज्ञ हो एकतार निरन्तर अनुभव आनन्द में निमग्न रहते हैं। जब प्रकृति का साथ रहेगा, जीवन अधीर एवं अनाथ रहेगा एवं जब मन प्रकृति को छोड़कर ब्रह्माश्रित हो अपनी शक्ति का संचय करेगा, तब सनाथ एवं सबल होकर रहेगा। प्रभु प्राप्ति ही जीवन है एवं इसके विपरीत होने पर भक्ति-व्रत को भंग करना है। इसलिए किसी भी अवस्था में रहें, अनेक कष्ट-कठिनाईयों को परिसहन करते हुए सद्‌गुरु नियम-भक्ति-व्रत का सदैव पालन करते रहें। भक्तों का नियम-सिद्धान्त अटल होता है। वे भक्ति-पथ से कभी भी विमुख एवं विचलित नहीं हो सकते।

9 सर्व देह को त्याग दो, मध्य में दूसर नाहिं। अब अपने मारग चलो, जगमग शब्द समाहिं।

शब्दार्थ

 मार्ग पथ जगमग, प्रकाशमान।

भाष्य

 स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि पंच देहों का त्याग करने पर आत्मा प्रकृति वासना को छोड़ने लगती है और आत्मा से प्रकृति-सम्बन्ध के छूटने पर बाह्य दृश्य भी छूट जाता है। उसअवस्था में अपना मार्ग स्पष्ट होने लगता है क्योंकि ब्रह्म-प्रकाश से आत्मा की जड़-चेतन-ग्रन्थि छूटने लगती है एवं बीच में किसी प्रकार का आवरण न होने से शब्द प्रकाश में ही आत्मा अन्तर्गमन करने लगती है।














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