अध्याय नंबर 9 अब चल ऊषा काल है, नौबत बाजत द्वार। इधर उधर मत देखिए, चढिये सुरति सम्हार।

1 अध्याय नंबर 9 अब चल ऊषा काल है, नौबत बाजत द्वार। इधर उधर मत देखिए, चढिये सुरति सम्हार।

शब्दार्थ

 उषाकाल, ब्रह्ममुहुर्त (नौवत) अभिनंदन (द्वार) द्वार।

भाग्य

 इस दोहे में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में ब्रह्म-प्रकाश के प्रकट होने का वर्णन किया गया है। जिस प्रकार से सूर्य के उदय होने की स्थिति प्रकट होती जाती है, अन्धकार और निशा भाराणासी प्रकार दूर होती जाती है। ऊषा काल अमृत बेला है, जिस प्रकार सूर्य्य की किरणें नहीं फूटी रहती हैं, बल्कि मरीचिमाली सूर्य अपनी प्रखर शक्ति पृथ्वी पर प्रकट करने की तैयारी करता है और अरुणोदय के आते ही तिमिर का क्षय होने लगता है एवं सूर्य के पूर्ण प्रकट होने पर अन्धकार की अत्यन्त निवृत्ति हो जाती है, इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में ब्रह्म-प्रकाश के उदय होने की स्थिति का वर्णन इस दोहे में किया गया है। आत्मा से प्रकृति की देहों का सम्बन्ध क्रमशः जब छूटने लगता है, तब आत्मा की उत्तरोत्तर गति बढ़ने लगती है। विहंगम योग में सारी क्रिया एक ऊँचे चेतन केन्द्र से होती है। सारी शक्ति मन, प्राण एवं आत्मा की एक स्थिति में केन्द्रीभूत हो जाती है, और सारे ज्ञान प्रकाश धीरे-धीरे वहीं से आत्मा में आने लगते हैं। ब्रह्म प्रकाश के प्रकट, प्राप्त होने के समय उषा काल की भाँति अज्ञानतिमिर क्षय होने लगता है एवं प्रकाश आने वाले द्वार पर सप्त प्राणों की मधुर ध्वनि अन्दर में होती है। उस अवस्था में चेतन सुरति को योगीजन सब ओर से एकत्र कर बाहर न देखकर, एकरूप से अपने गुरु प्रदेश में चढ जाते हैं।




2 इन्द्रिय मन वाणी अशन, सन्त संयमी होय। अटल नियम दृढ़ सन्त का, दृढ़ प्रतिज्ञ पर सोय।

शब्दार्थ

 इंद्रिय, आत्मा के प्रभाव को व्यक्त करना (मन) अंतःकरण (आशन) आहार, भोजन।

भाष्य

 मन, बुद्धि, इन्द्रियादिकों को अपने अनुकूल नियम में रखना संयम है। प्रकृति की सारी शक्ति ब्रह्म के आश्रित है। जब योगी योग साधन के द्वारा अपने मन, इन्द्रियादिकों पर स्वतन्त्र शासन कर निज इच्छानुकूल कार्य करने लगता है, तब प्राकृतिक शक्ति भी दृढ़ हो जाती है और वह प्राकृतिक जीवन से भी विश्व में अनेक कार्यों को पूर्ण करता है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण रख कर ही मनुष्य-जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। इसलिए इन्द्रियों, मन, वाणी और आहार का विवेकयुक्त संयम करके अपनी व्यावहारिक स्थिति को योगी दृढ़ रखता है। जिसका मन्न, बुद्धि, आहार आदि पर पूर्ण संयम है, वही अपने नियम-सिद्धान्त पर दृढ़ होकर लक्ष्य को पूर्णकरता है। संयमी पुरुष ही दृढ़ प्रतिज्ञवान् हो कर अपने सिद्धान्त-मार्ग में दृढ़ हो कर योग के महान् लक्ष्य को पूर्ण कर अपने जीवन को सफल करता है। इसलिए अध्यात्म-जगत् में प्रवेश होने वाले को आहार-विहार या सांसारिक सभी कार्यों में आवश्यकता के अनुसार व्यवहार, सम्बन्ध करके संयम के साथ रहकर लक्ष्यप्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। संयमी पुरुष संसार में प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो, जीवन के सब लक्ष्यों को प्राप्त करता है।

3 भोग विघ्न है योग का, सर्व कामना वध। वीत राग निष्काम में, भक्त भक्ति वर साध।

शब्दार्थ

 भोग, इंद्रिय-सुख (वध) बंधन (वीतराग) विषय-इच्छा से अयोग्य भक्ति।

भाष्य

 इन्द्रियों के विषय-प्रवाह में आत्मा की शक्ति बाहर जगत् में चली आती है, इसलिए आत्मिक चेतना को अपने लक्ष्य में स्थिर करने में कठिनाई होती है। अतएव इन्द्रिय-सुख योग में अत्यन्त विघ्न है। विवेकी साधक संयमपूर्वक इन्द्रियों का व्यवहार रखता है। सांसारिक कामना अत्यन्त बन्धन है। जीव कामना से ही प्रकृति के भिन्न-भिन्न विषय तरंगों के लिए लालायित होकर अनेक प्रकार की चेष्टा करता है। जिसको किसी वस्तु की कामना नहीं है, वही वीतरागी एवं निष्कामी पुरुष भक्ति के उत्तम सुख को प्राप्त कर मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करता है। इसलिए सर्व इन्द्रिय भोग-कामना एवं इच्छा से रहित होकर एक अनन्य भक्ति प्रभु की होती है, तब आध्यात्मिक शक्ति का पुनरुत्पादन एवं यशस्वी लाभ प्राप्त होता है।

4 योग युक्ति से कमल सब, सिधा ऊर्ध्व मुख होय। विकशित खेल रहस्य है, अनुभव अद्भुत सोय।

शब्दार्थ

 योग युक्ति, योग कला का अचूक उपाय, उपाय (ऊर्ध्वमुख) ऊपर मुख (कमल) अष्ट चक्र (अनुभव) बोध, क्रियात्मक तत्त्वज्ञान विक्षित) खेला हुआ।





भाष्य

 समस्त ज्ञानों की प्राप्ति के लिए सर्व क्षेत्रों में तत्त्वज्ञान है, जिसके द्वारा वे कार्य-सम्पादन किये जाते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म क्षेत्र में योगियों के पास वह युक्ति है, जिसके द्वारा वे अष्टकमल के मुख को ऊर्ध्व मुख कर देते हैं। ग्रन्थकार सद्‌गुरु देव जी महाराज इस क्रिया को योगियों की लीला और योगियों का खेलवाड़ कहा करते थे। सद्‌गुरु की विशेष युक्ति से अष्टचक्र सीधा ऊर्ध्व मुख हो जाते हैं, और ऊर्ध्वमुख होने पर ही विकसित होते हैं। इस रहस्यमय खेल से जो अपने अन्दर ज्ञान 'अनुभव' होता है, वह आश्चर्यमय है। यह क्रिया सद्गुरुके विशेष अनुग्रह से पूर्ण भाग्यवान् नर-नारी को ही प्राप्त होती है। शब्दों में इसका वर्णन कैसे किया जाय? यह सदगुरु की महती महिमा और उनकी विशेष शक्ति का महान् परिचय है।

5 अष्ट चक्र सम्पुट रहें, अर्धमुखी तन माहिं। फूलें सद्‌गुरु की कृपा, ऊर्ध्व गगन मुख जाहिं।

शब्दार्थ

 अष्ट चक्र, अष्ट कमल (कृपा) प्रेम, प्रसाद।

भाष्य

 इस शरीर के अन्दर अष्ट चक्र हैं, जिनके द्वारा प्राणों के सम्बन्ध से सारे देह-संघात की समस्त क्रियायें होती हैं। प्राकृतिक देह में चक्रों के स्थान होते हुए भी इसे योगीजन ही देखते हैं, एवं इनका ज्ञान योगियों को ही होता है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, ब्रह्मरन्धाख्य और सहस्रार ये आठ चक्र हैं। इन आठ चक्रों का मुख बन्द हो कर नीचे को है। जब सद्‌गुरु की कृपा होती है, तब सभी कमलों का मुख ऊर्ध्वगगन की ओर हो जाता है। सूर्य्य को देखकर ही कमल ऊर्ध्वमुख होकर खिलते हैं, इसी प्रकार ब्रह्मविद्या के विमल प्रकाश में जब ब्रह्म-प्रभा उदय होती है, तब साधक के समस्त सम्पुट कमल खिलकर ऊर्ध्वगगन की ओर मुख कर देते हैं। प्रकाश देने वाला पदार्थ ऊँचा और गतिवान् होता है। इस प्रकार आध्यात्मिक गगन के प्रखर सूर्य्य के प्रकट होने पर शरीर के सभी सम्पुट कमल खिल जाते हैं। परन्तु सद्‌गुरु की दया, विशेष प्रभा से ही इन कमलों को प्रकाश प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वे खिलते हैं। सद्‌गुरु की सहज दया होती है, परन्तु कृपा करने पर होती है। इसलिए अध्यात्म जगत् के सविता सद्‌गुरु जब अनन्य शरण आस्तिक्य भाव-पूर्ण निष्ठावान् भक्त की ओर एक विशेष स्थान से दिव्यावलोकन करते हैं, तब देह के आठों कमल खिलकर ऊर्ध्वमुख हो जाते हैं। यह अनुभूति, ज्ञान सद्‌गुरु के अनन्य शरण भक्तों को प्राप्त होता है और हुआ है।

6 बिना नीर फूले कमल, दृश्य अलौकिक ज्ञान। सन्त याहि सुख जानहीं, भेदिक परम सयान।

शब्दार्थ

 अलौकिक, अद्भुत, पारमार्थिक (भेदिक) योग कला को जानने वाले (परम सयान) पूर्ण कुशल (सन्त) विहंगम योगी।

भाष्य

 ये अष्ट कमल बिना नीर के ही प्रफुल्लित हो जाते हैं एवं इस अलौकिक दृश्य के प्राप्त हो जाने पर योगी के अन्दर विशेष ज्ञान की धारा प्रवाहित होने लगती है। अष्ट-कमल विकसित भेदिक विवेकी सन्त ही इस परम सुख को जानते हैं।

7 मुद्रा प्राणायाम सब, बन्ध करे नहिं सन्त । गुरु प्रसाद फूले कमल, सन्त मता पर अन्त।

शब्दार्थ

 मुद्रा, मन-प्राण को स्थिर करने का एक प्रकार का प्राकृतिक साधन। प्राणायाम, वायु का धारण, वामन (बंध) जालन्धर आदि त्रि बंध (पर) उत्कृष्ट, श्रेष्ठ (अंत) सीमा, समाप्ति।

भाष्य

 राजयोग की चांचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुनि, खेचरी और हठयोग की ब्रजोली, योनि मुद्रा आदि क्रियाएं और प्राण-विज्ञान के समग्र प्राण के विकास स्तम्भन की क्रियाएं तथा मूल बंध, जालन्धर बंध और उडियायन बंध इन प्राकृतिक हथयोग की क्रियाएं को विहंगम योगी संत नहीं करते। विहंगम योग में सद्गुरु प्रसाद से सभी कमल आप ही खिलते हैं। सन्तमत, ब्रह्मविद्या का विशिष्ट अनुभव तत्त्वज्ञान है। विहंगम योग संतों का है। इसमें बाह्य क्रिया-कलाप की आवश्यकता नहीं होती। स्वाभाविक आत्मिक शक्ति का योग हो जाने पर पिंड, ब्रह्माण्ड तथा अष्ट कमल की सारी शक्ति विशेष केन्द्र के प्रभाव से प्रकाशमान रहती है। यह ज्ञान और अनुभव की अंतिम स्थिति है।

8 अष्ट कमल मकरंद में, मन व भ्रमर कर वास। नवां कमल अनूप है, गंध भ्रमर मन नाश।

शब्दार्थ

अष्ट कमल, अष्ट चक्र (मकरंद) पुष्प का रस, कमल की गंध।

भाष्य

 शरीरस्थ अष्ट चक्रों के रस-आस्वादन के लिए मन रूपी भौंरा वास किये हुए है। जब अष्ट चक्र पार नौवाँ कमल की गन्ध भ्रमर को लगती है, तब उसकी सुगन्धि से ही वह अपने स्वभाव को छोड़कर उसी में लय हो जाता है। यही विहंगम योग का मनोलय है।

9 विज्ञान दिव्य नौवाँ कमल, रूप सुन्दर विकास। संत विवेकी जान्हीं, आदि अँकुर प्रकाश।

शब्दार्थ

 विज्ञान, निर्भन्त ज्ञान (आदि अँकुर) अक्षर, हिरण्यगर्भ (प्रकाश) ज्योति विकास।

भाष्य

 विज्ञानयुक्त प्रकाशमान नौवाँ कमल के स्वरूप का अनुपम विकास है। जब तीन पाद अमृत का स्रोत-प्रवाह प्रकृति मण्डल में प्रवाहित होता है. तब सृष्टि का आदि अँकुर ज्योति ब्रह्म प्रकट होता है। इस तत्त्वज्ञान को विवेकी सन्त जानते हैं। इस आदि बीज से ही सृष्टि का विकास हुआ है। इसी प्रकाश में सारे ऐश्वर्य, कला, कौशल और भौतिक समस्त विद्यायें प्रकट होती हैं। समस्त ज्ञान का प्रवाह इसी दिव्य कमल के तत्त्वज्ञान द्वारा जगत् में प्रकट होता है। मन की शान्ति इसी कमल की गन्ध पाकर हो जाती है और अमर योगी अपने प्रदेश में स्थिर होकर शब्द सोमरस का पान करता है।












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