प्रथम मंडल प्रथम अध्याय। प्रार्थना दोहा

सत्य असत्य से अलग है,सो पर सत्य स्वरूप। अकथ अलौकिक तत्व है, अज अनादि वर रुप।

1 शब्दार्थ 

सत्य, एक रूप से रहने वाला अक्षर काल आत्मा असत्य, प्रकृति का कार्य जड़ अनित्य जगत बाह्य माया प्रपंच अलग, भिन्न सत्यं, स्वागत स्वजातीय विजातीय, भेद सून्य तीनो काल में एक से रहने वाला अकथ, वाणी से जिसका वर्णन न हो सके अलौकिक तत्व अप्राकृतिक, दिव्य चेतन स्वरूप के, नित्य अनादि जिसका कोई कारण नहीं है। वररुप, जो सर्व रुपों में अपने शुद्ध स्वरूप से विराजमान होकर सबका नियन्ता साक्षी हो महान् सच्चिदानंद स्वरुप से प्रकाशमान है।


भाष्य 

वह जगन्नियन्ता्, परब्रह्म, प्रकृति आत्मा काल आदि नित्य प्रदार्थों में व्यापक हो कर तिन पाद शुद्ध सच्चिदानंद, स्वरूप से प्रकाशमान है। उसका वर्णन वाणी एवं इन्द्रिया से नहीं हो सकता। वह अवाच्य परब्रह्म प्राकृतिक जड़ स्वरुपों से पृथक चेतन शुद्ध स्वरूप से प्रकाशमान है। उसके समान दूसरा कोई सजातिय पदार्थ नहि है, जिससे उसकी उपमा दी जाए, एवं उसके समान दूसरी कोई विजातीय वस्तु नहीं है कि समानता कर सके। वह व्यापक होने से स्वगत भेद-शून्य त्रिकालावाध्य, गुणातीत सबका स्वामी है। सर्वनाम रूपों का स्रष्टा एवं आधार स्कम्भ है।

2 चित चेतन संता रहे ज्ञान असीम अनन्त। ज्ञान योनि मय पूर्ण है, चित् स्वरूप भगवन्त।

शब्दार्थ 

चित, परब्रह्म चेतन, नित्य एक अनन्त जिसकी सिमा न हो योनि, के कारण। 

भाष्य 

परब्रह्म नित्य चेतन अस्तित्व से सदैव प्रकाशमान है। वह कूटस्थ संता सदैव एक रूप से रहित है। उसमें हास विकास नहीं होता। उसका स्वभाव गुण क्रिया अनन्त अनादि है। वह सर्वव्यापी अनन्त संता समस्त ज्ञानो कारण है। एवं सब शास्त्रों का योनि मुलाधार है। ज्ञान प्रभु एक रस सर्वव्यापक है।

3 परमानन्द महान है, शब्दानन्द स्वरूप। अपरछिन्न, सागर भरा अमृत तत्व अनूप।

शब्दार्थ 

अपरछिन्न सीमा परिधि से रहित अमृत सत्य नित्य स्वरूप कूटस्थ। 

भाष्य 

जगत के समस्त सुख अनित्य है। परमानन्द परमप्रभु- सुख सबसे महान और श्रेष्ठ है। तीन पाद - अनिवार्यच्य नि शब्द आनन्द स्वरूप परमप्रभु की प्राप्ति से जीव अमर हो जाता है। वह अमृत - महासागर भरा हुआ है। उस अनन्त महासागर कि सिमा नहीं है। वह एक रस सर्वव्यापक होकर ओत-पोत परिपूर्ण है।

4 सच्चिदानंद स्वरुप है, मम अराध्य भगवान। बार - बार वन्दन करू, युक्ति भेदरत ज्ञान।

शब्दार्थ 

सच्चिदानंद, संत चित् आनन्द अर्थात नित्य ज्ञान आनन्द स्वरूप प्रभु युक्ति, ढंग उपाय।

भाष्य 

मै सच्चिदानंद, स्वरुप आराध्य भगवान को सदगुरु भेद ज्ञान युक्ति  से युक्त हो कर बारम्बार नमस्कार करता हूं।


5 आदि अन्त अरु मध्य में, शाश्वत जाको सेव। अमृत अन्तर्यामी हो नमो नमो मम देव।

शब्दार्थ 

शाश्वत, सदैव अमृत संजीव नित्य अन्तर्यामी आत्मा अक्षर प्रकृति में ओत-पोत एक रस व्यापक हूं।

भाष्य 

योग की उत्कृष्ट तीन भूमियों अन्तरिक्ष दिव और स्वधाम में जिसकी सदैव उपासना की जाती है, मेरे उस अविनाशी अन्तरात्मा परम देव को नमस्कार है। नमस्कार है।





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