द्वितीय अध्याय पेज नंबर 14 कपट छिद्र छल त्याज के, सच्चे दिल प्रभु धार। खुला हृदय प्रभु भजन में, नीर वासना पार ।।१६।। शब्दार्थः- (कपट) धूर्तता (छिद्र) दोष-दृष्टि (छल) धोखा (खुला हृदय) शुद्ध अन्तःकरण (निर्वासना) इच्छार्थ।

1कपट छिद्र छल त्याज के, सच्चे दिल प्रभु धार। खुला हृदय प्रभु भजन में, नीर वासना पार।

शब्दार्थ

 (कपट) धूर्तता (छिद्र) दोष-दृष्टि (छल) धोखा (खुला हृदय) शुद्ध अन्तकरण (निर्वासना) इच्छार्थ।

भाष्या

 सद्‌गुरु योग है जीवन के सभी मनोवाञ्छित फल को प्राप्त करते हैं। प्रभु शरण में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों फल प्राप्त होते हैं।


2 प्रभु प्रसाद सद्गुरु दया, मन होय स्वाधीनता। अन्य युक्ति कोई नहीं लागे, सद्गुरु चरण प्रधान।

शब्दार्थ

 प्रसाद, आशीर्वाद (दया) दूसरे का दुःख दूर करने की इच्छा।

भाष्य

 सद्गुरु चरणों में लगा हुआ अनन्य शरण अधीन भक्त ही प्रभु की प्रसन्नता और सद्गुरु की दया अर्थात् करुणा से मन को अपने स्वाधीन करता है। इस सद्‌गुरु-स्नेह और प्रभु-दया के अतिरिक्त मन को स्वाधीन करने की दूसरी युक्ति नहीं लग सकती है।

3 सत्यग्राही वश पाँच है, अन्तर शब्द विवेक । सहजे सत मारग मिलै, अन्तर सत पर टेक।

शब्दार्थ

 सत्याग्रही, सत्य को ग्रहण करने वाला (वश) अनुकूल, अधीनस्थ (अंतर-शब्द) सार शब्द, परम पुरुष (विवेक) अनुभव, तत्त्वज्ञान (सहज) सहज शून्य में स्वाभाविक (अंतर) अंदर (सत्पर) सत्य में (टेक)) निश्चय, लक्ष्य।

भाष्य

 सत्यपथ पर आरूढ़ हुए सहज योगाभ्यासी को पाँचों विषय वश में हो जाने पर अन्तर सारशब्द परम पुरुष का अनुभव साक्षात्कार होता है। मन, इन्द्रियों के विषय सहज प्रदेश में पहुँच जाने पर शान्त हो जाता है और अपना चेतन पथ, सत्य मार्ग प्राप्त होकर अन्तर्लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

4 योग कथन रत भोग में, योग मूल नहिं हाथ। कथन गहन एक सम मिलै, नर से देव सनाथ।

शब्दार्थ

 योग साधन (भोग) विषय उपभोग (कथन) वाचक ज्ञान (गहन) साधन अनुभव क्रियात्मक जीवन (सनाथ) शक्तिमान, आत्मबल (देव) संत, दिव्यज्ञान।

भाष्य

 सद्‌गुरु-उपदिष्ट योग मार्ग का ज्ञान होते हुए भी जो विषय-भोग में लिप्त हैं, वे अजितेन्द्रिय पुरुष योग के मौलिक उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। योग तत्त्वज्ञान के अनुसार उसके साधन-भजन करने से ही नर से देवत्व भाव की प्राप्ति होती है और वह सहज योगाभ्यासी आत्मबलशाली होकर दिव्य गुणों को धारण करता है। परोक्ष वाचक ज्ञान से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए साधक को अपने योग साधन में प्रवृत्त होकर अनुभव लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिए।

5 श्रवन नयन मन बयन में, वसत निरन्तर पीव । विरहिनि अरु जाने नहीं, पन्थ निरखि हिय पीव।

शब्दार्थ

 श्रवण, कान (नयन) नेत्र (मन) अंतःकरण (बयान) वाणी (विरहिणी) पति के लिए व्याकुल पत्नी (निरखी) ब्रह्मांड।

भाष्य

 विरहिन स्त्री की वाणी, चक्षु, मन एवं कान सभी अपने पीव में ही निरन्तर मिलने के लिए लगे रहते हैं। सभी इन्द्रिय अन्तःकरणों से उसे प्रिय पति के मिलने की ही सदैव उत्कण्ठा हुई रहती है। वह दूसरों को नहीं जानती। सदैव वियोगी पति के आने वाले मार्ग को देखती रहती है। इसी प्रकार योगाभ्यासी प्रभु-भक्त की मन, बुद्धि, प्राण और शरीर की सभी शक्तियाँ एक ध्येय की ओर एकरूप से लग जाती हैं। तभी वह परम प्रभु के मिलने का पथ सुलभ होता है और उसकी प्राप्ति होती है। एक ध्येय, एक सिद्धान्त और एक मार्ग पर चलने वाला दृढ़व्रती भक्त ही ईश्वर-प्राप्ति रूपी महान् लक्ष्य को प्राप्त करता है। अनेक तर्क-वितर्क, संशय और व्यामोह में रहने वाला साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता।

6 परम पुरुष वह पूर्ण है, अजा अनन्त असीम। अपूर्ण नहीं किसि काल में, सहज समान महीम।

शब्दार्थ

 (परम पुरुष) सर्व शक्तिमान परम प्रभु (अजा) नित्य (अनन्त) सीमा-रहित (महीम) महिमा।


भाष्य

 वह परम पुरुष नित्य, अनन्त एवं असीम होकर अपने सहज स्वाभाविक महिमा से सदैव परिपूर्ण है। वह किसी काल में अपूर्ण नहीं रहता। नित्य पदार्थ सदैव कूटस्थ एक रूप से रहते हैं। इसलिए ब्रह्म तीनों काल में एक रूप से रह सदैव चराचर जगत् में परिपूर्ण व्याप्त है।

7 हे प्रभु महिमा आपकी, अगम अनन्त अपार। नेति नेति अज श्रुति कहै, जन अधीन किमि पार।

शब्दार्थ

 नेति, अनंत, माप सीमा न हो (अज) नित्य (श्रुति) वेद (महिमा) गौरव।

भाष्य

 हे प्रभो! आप की महिमा अगम, अनन्त और अपार है, जिसको सदैव चारों, वेद नेति-नेति कहते हैं, अर्थात् जिसकी इति यानी सीमा नहीं, अनन्त है। आपकी उस अनन्त महिमा को मैं अल्पज्ञ जीव कैसे वर्णन करने में समर्थ हो सकता हूँ?

8 विदेह विदेही को मिले, छुटे देह अभिमान । जिवन्मुक्ति जीवनमृतक, दुर्लभ यह जग जान।

शब्दार्थ

 (विदेह) देह से अनुपयोगी (जीवन्मुक्ति) जीते जी प्रभुप्राप्ति (जीवन्मुक्ति) जीते जी अनात्म जगत् से पृथक्करण इन्द्रिय जगत् से मृत हो जाना।

भाष्य

 सहज योगी सारे देह-संघ के अभिमान को विदेही हो, विदेह परम पुरुष को प्राप्त कर जीवन्मृत प्राप्त करके प्रभु की प्राप्ति हो। संसार मैं जीवनमुक्त पद की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। यह महान पद किसी सद्गुरु भक्त समाधिस्थ को ही प्राप्त होता है। योगी देह-संघात से उपराम हो कर विदेह राज्य में परमानंद का उपभोग करता है। प्राकृतिक जगत् की विशेषता नहीं। इसलिए उस योगी को जीवन्मृतक का प्रयोग दिया गया है। जो जीवनमुक्त होता है, वही देह छूट जाने पर विदेहमुक्त होता है। योगी को देहभिमान नहीं होता, न विहंगम योग समाधि में प्रकृति के मोक्ष का भान ही होता है। इसलिए देह रहे हुए दुनिया से मुक्त हो जाने के कारण उसे जीवनमुक्त कहा गया है। ऐसे जीवनमुक्त योगी संसार में दुर्लभ हैं। योग-कला द्वारा देहाभिमान छूट जाने पर ही योगी अंतराकाश में आ कर विदेह होता है। विदेह योग की विशिष्ट स्थिति है। इसे अनुभवी साधक जान मनी और देहध्यास को ठीक करने के लिए चिन्मय स्वरूप में आ कर परमानंद प्राप्ति के मर्म-भेद को समझना चाहिए।

9 एक पाद निःशब्द से, अक्षर से सब सृष्टि है, अक्षर है उत पान। अक्षर माहिं समान।

शब्दार्थ

 एक पाद, एक भाग (निःशब्द) सार शब्द, परम पुरुष (अक्षर) अकह प्रजापतिब्रह्मा।

भाष्य

 निःअक्षर परम पुरुष के एक पाद में अक्षर प्रकट होता है और उस अक्षर से ही समस्त सृष्टि का कार्य-व्यवहार होता है एवं अन्त में यह विशाल सृष्टि उसी अक्षर में ही प्रवेश करती है। उत्पत्ति, पालन तथा लय जिसके द्वारा होता है, वह अक्षर ब्रह्म है।

10 अक्षर के परभाव से, परमाणू में योग। मह मण्डल आकाश है, जनम आद्य सब भोग।

शब्दार्थ

 परभाव, शक्ति, प्रतिभा (परमाणु) जगत् का सूक्ष्म कारण, सूक्ष्म अणु (महामंडल) आकाश का घेरा (जन्माद्य) उत्पत्ति, पालन, लय (भोग) क्रिया।

भाष्य

 जगत् का मूल समवायी कारण प्रकृति है, उसे ही परमाणु कहते हैं। परमाणु-माया, प्रकृति, अलिंग और अव्याकृत ये एक अर्थ के वाचक शब्द हैं। एक पाद प्रकृति के मण्डल में अक्षर के प्रभाव से परमाणुओं में योग होने लगता है। परमाणुओं के योग से ही सृष्टि का निर्माण होता है। बिना अक्षर के परमाणुओं में गति संचार नहीं हो सकता। प्रलय में परमाणु निष्कम्प रहते हैं। जब परब्रह्म की ईक्षण शक्ति उदय होती है, तब अक्षर के प्रकट होने पर गतिविहीन परमाणुओं में क्रमशः योग होने लगता है और एक पाद आकाश का मण्डल बन जाता है। उसे ही ब्रह्माण्ड कहते हैं। जन्म, उत्पत्ति, पालन एवं लय आदि समस्त जीवों के कर्म और उसके भोग इस अक्षर केद्वारा ही होते हैं। अक्षर जगत की साड़ी क्रियाएं होती हैं और अक्षर जगत की साड़ी क्रियाएं अक्षर द्वारा ही परब्रह्म जगत का निर्माण, पालन एवं लय करके तीन पाद अमृत में सच्चिदानंद स्वरूप से होती हैं। अक्षर एक नित्य कूटस्थ वस्तु है। अक्षरों का पूर्ण विवरण स्वर्वेद के पंचम मण्डल में आगे पढ़ें।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पंचम अध्याय पेज नंबर 32 ब्रह्मवेत्ता दरबार में, बैठो सज्जन होय। गो मन अ‌ङ्ग सम्हार कर, वाणी चपल न होय ।

प्रथम मण्डल षष्ठ अध्याय पेज नंबर 33 अंतर दृष्टिहिं सूक्ष्म कर, झिना से अति झिन। अनुभव में अनुभव करो, संत माता परवीन ।

पंचम अध्याय पेज नंबर 29 क्षर पर अक्षर गाजता, निःअक्षर सब पार। मण्डल तीनों अलग है, अनुभव ज्ञान अपार ।