द्वितीय अध्याय पेज नंबर 15 अक्षर वह कूटस्थ है, सृष्टि शक्ति सब जान। शुद्ध शब्द अक्षर गजै, माया नाहिं अजान।
1अक्षर वह कूटस्थ है, सृष्टि शक्ति सब जान। शुद्ध शब्द अक्षर गजै, माया नाहिं अजान।
शब्दार्थ
अक्षर, ब्रह्म (कूटस्थ) एक रूप से रहने वाला (माया) प्रकृति (अजान) जड़,अनित्य।

भाष्य
अक्षर नित्य कूटस्थ वस्तु है। समस्त चराचर जगत् में उसी की शक्ति से सारी क्रियाएँ हो रही हैं। प्रकृति के अन्दर जड़-चेतन मिश्रित अनेक शब्द हैं, किन्तु एक पाद प्रकृति मण्डल के अन्दर शुद्ध शब्द-अक्षर ही प्रकाश कर रहा है। वह मायाकृत जड़ शब्द नहीं है। योगियों के अधर प्रकाश में अक्षर ब्रह्म का स्पष्ट अनुभव होता है। अक्षर के प्रकाश से समस्त प्राण, इन्द्रियों और चक्रों में शक्ति उदय होती है एवं सुषुप्ति में अक्षर प्राण द्वारा ही आत्मा के सम्बन्ध से निमेष-उन्मेष एवं शरीर के समस्त व्यवहार-कर्म चलते हैं। इसलिए अक्षर चेतन अनुभवयुक्त शब्द है, जिसका प्रकाश अनुभव योग की चतुर्थ भूमि में होता है।
2 अक्षर माहीं कम्प है, माया योग विकाश। सृष्टि के प्रादुर्भाव है, अक्षर जग परकाश।
शब्दार्थ
कम्प, गति, हिलना, थर्राहट (योग) सम्बन्ध (माया) परमाणु (विकाश) उत्थान, प्रगति (प्रादुर्भाव) प्रकट, प्रारम्भ ।
भाष्य
अक्षर के कम्प से ही परमाणुओं में संयोग होने लगता है, अर्थात् परमाणुओं का विकास होने लगता है, जिससे सृष्टि की रचना आरम्भ होती है। अक्षर के प्रकाश से परमाणुओं के योग-विकास द्वारा जगत् की रचना होती है।
3 गुप्त प्रकट है समय से, नित्य व अक्षर जान। सृष्टि पाद अक्षर रहे, व्याप्त अकाश महान।
शब्दार्थ
गुप्त, लुप्त, अन्तर्मुख, अदर्शन, छिप जाना (प्रगट) प्रत्यक्ष, बहिर्मुख (समय) सृष्टि और प्रलय काल (सृष्टि पाद) एक पाद चराचर जगत् (व्याप्त) व्यापक, प्रकाशमान (महान्) सर्वोत्कृष्ट, बड़ा।
भाष्य
अक्षर नित्य वस्तु है। उसके प्रकट और गुप्त होने से अपने-अपने काल में सृष्टि और प्रलय दोनों होते हैं। अक्षर का नाश कभी नहीं होता है। प्रकट होने पर सृष्टि और गुप्त,लोप हो जाने पर प्रलय हो जाता है। एक पाद सृष्टि महा आकाश महामण्डल में अक्षर सर्वत्र व्याप्त हो रहा है एवं उसकी सर्वत्र क्रिया हो रही है अर्थात एक पाद अक्षर का निवास क्षेत्र है. व्यापसे चराचर समस्त सृष्टि की क्रिया हो रही है। अक्षर जगत् का आदि प्रकाश है।
4 भेदी योगाभ्यास में, दिवा धाम परकाश। सो अक्षर परकाश है, पन्थ अग्र सुख रास।
शब्दार्थ
भेदी योगाभ्यास) योग के अनुभव रहस्य को जानने वाला मर्मज्ञ (दिवाधाम) योग की चौथी भूमि जिसे दहराकाश कहते हैं (पंथ) मार्ग (अग्र) आगे (सुख-रास) परब्रह्म, पूर्णानन्द, सत्पुरुष।
भाष्य
चेतन अनुभव पथ विहंगम योग का अभ्यासी दिवधाम अर्थात् योग की चतुर्थ भूमि में जिस प्रकाश को देखता है, वह अक्षर का प्रकाश है। पूर्ण प्रकाश सच्चिदानन्द परब्रह्म का मार्ग उससे आगे सूक्ष्म है। सुरति निरति हो कर, अपरिच्छिन्न परमानन्द का उपभोग करती है। अक्षर प्रकाश से निःशब्द परम पुरुष का मण्डल आगे अत्यन्त गहन है। साधक अनुभव तत्वज्ञान के द्वारा ही अक्षर और निःशब्द-भेद को जान सकेंगे।
5 पाट बन्द है गगन की, बाहर रोक प्रकाश। अन्धकार अन्तर रहे, मोह कर्म जग पाश।
शब्दार्थ
पाट, चौड़ाई, किवाड़ (अन्तर) भीतर (मोह) आसक्ति (जगपाश) संसार-बन्धन।
भाष्य
चेतन अनुभव पथ गगन द्वार का किवाड़ बन्द रहने से बाहर निःशब्द का प्रकाश रुका रहता है, जिससे आत्मा को प्रकाश नहीं मिलता। इस कारण अन्धकार अन्दर रहने से संसार का मोह-बन्धन, जग-आसक्ति जीव से नहीं छूटती है।
6 खूले अधर किवार जब, अन्त मिटे अँधियार। अन्तर दृश्य विलोकिये, रचना अपरम् पार।
शब्दार्थ
अघर) आकाश, चेतन मण्डल (विलोकिये) प्रत्यक्ष दर्शन (रचना अपरम्पार) अनन्त दृश्य।
भाष्य
जब सद्गुरु-भेद-साधन-अभ्यास के द्वारा आकाश की किवाड़ी खुल जाती है, तब आत्मा की समस्त अन्तरी अँधियारी दूर हो जाती है। उस अवस्था में अपने भीतर अनन्त महाप्रभु का जो दृश्य है, उन्हें चेतन दृष्टि से देखिये। अधर किवाड़ के खुल जाने पर आत्मा के अन्दर पूर्ण प्रकाश प्राप्त होता है। उस चेतन दृश्य को योगीजन प्रत्यक्ष देखते हैं। परब्रह्म प्रकाश से ही आत्मा का अन्धकार दूर होता है और चेतन दृश्य प्रकट प्राप्त होता है।
7 विघ्न साथ है भजन में, संग विरक्त न राख। जाहि साथ नहिं जगत का, ताहि साथ प्रभु राख।
शब्दार्थ
विघ्न, रुकावट, बाधा (संग) साथ (विरक्त) ज्ञान योगी. शुद्ध रूप से एकाकी भजन करने वाला।
भाष्य
विरक्त के लिए भजन में दूसरे का संग विघ्न है। इसलिए पूर्ण विरक्त ज्ञानवान् योगी किसी को साथ न रख कर अकेला भजन करते हैं। भजन पूर्ण रूप से अकेला होता है। संसारी मनुष्यों के संग से अनेक द्वन्द्व, अशान्ति एवं माया-प्रपंच आया करता है। इसलिए योगाभ्यासी को संसारी जनों से अलग रहकर योगाभ्यास करना चाहिए। समाधिस्थ पूर्ण योगीश्वर होने पर वह योगी पुरुष सद्गुरु के आदेश अनुकूल संसार-भ्रमण कर विश्व का आध्यात्मिक कल्याण करते हैं। जगत जिसके साथ नहीं है. उसी पवित्र भक्त को प्रभु अपनी शरण में रखकर ज्ञान और आनन्द को पूर्ण रूप से प्रदान करते हैं। इसलिए विरक्त पुरुष को भीतर-बाहर सब ओर से संसार का त्याग कर प्रभु का भजन करना चाहिए। विरक्त योगाभ्यासी संसारीजनों से पृथक् रहकर प्रभु की उपासना करेंगे, तभी उन्हें सुख-शान्ति की प्राप्ति होगी, अन्यथा संसारीजनों के सम्बन्ध से विघ्न और अनेक उपद्रव सामने आने लगेंगे।
8 जगत मित्र है जाहि का, मित्र दोय कैसे बने, ताहि मित्र प्रभु नाहिं। ध्येय अद्वैत समाहिं।
शब्दार्थ
(मित्र) साथी (ध्येय) लक्ष्य (अद्वैत) अकेला।
भाष्य
जिसे जगत् का सम्बन्ध नहीं है, उसी को प्रभु अपने साथ रखते हैं। दो प्रकार के स्वभाव के मित्र नहीं होते। संसारी जनों का दूसरा स्वभाव आचरण है और विरक्त प्रभु भक्त का दूसरा स्वभाव-जीवन-व्यवहार है। इसलिए विरक्त और संसारीजनों में मित्रता नहीं हो सकती। एक कर्म, गुण एवं स्वभाव के व्यक्ति में ही संग या मित्रता होती है। भिन्न प्रकृति के स्वभाव के प्रतिकूल व्यक्ति में प्रेम, स्नेह या मित्रता नहीं होती। इसलिए विरक्त संसारी जनों का त्याग कर एक अद्वैत ध्येय प्रभु की भक्ति में अपने जीवन को समर्पण कर देते हैं। जिस प्रकार से परब्रह्म असंग और निर्लेप है, उसी प्रकार प्रभुभक्त भी संसार में असंग, निर्लेप होकर प्रभु का भजन करता है। दोनों में एक कर्म, गुण और स्वभाव होने से मित्रता सहज में ही हो जाती है। ईश्वरत्व सृष्टि रचनादि गुणों के अतिरिक्त ईश्वर और जीव के परस्पर मिलने के गुण स्वाभाविक रूप से संयोग कराते हैं। इसीलिए जीव और ब्रह्म को वेदों में सखा कहा गया है, अन्तर इतना ही है कि जीव अल्प-शक्तिमान है और परब्रह्म सर्वशक्तिमान है। जो गुण या शक्ति जीव में परिमित है, वही शक्ति और प्रभा ईश्वर में अनन्त और पूर्ण है। इसी आधार पर भूल से नवीन सम्प्रदायों में जीव को अंश कहा गया है। वास्तव में परब्रह्म चेतन, सर्वज्ञ एवं नित्य होने से एकरूप रहता है। उसकास भी परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि वह सत्य है एवं जगत् का निमित्त कारण है। ध्येय एक अर्थति कभी पति से ही जीव और ब्रह्म की मित्रता होती है। इसलिए सर्व अभिमान, कुतर्कना छोड़ कर एक अद्वैत ब्रहा की उपासना कर जीवन के महान् लक्ष्य, परमानन्द की प्राप्ति करनी चाहिए।
9 ज्ञान शिखा निशि दिन बरे, सदा अकम्प अखण्ड। धीर पुरुष वह धन्य है, सद्गुरु लाल प्रचण्ड।
शब्दार्थ
(ज्ञान शिखा) परब्रह्म प्रकाश (बरे) जले, प्रकाशित (अकम्प) दृढ़ (अखण्ड) एक तार (प्रचण्ड) महान्, श्रेष्ठ (धीर पुरुष) अध्यात्म संयमी, दृढ़ पुरुष।
भाष्य
जब योगी को पूर्ण प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है, तब शान्त, एक रस ज्ञानज्योति में आत्मा दिन-रात जला करती है। ऐसी अवस्था को सद्गुरु का महान् प्रिय सेवा संयमी धैर्यवान् पुरुष ही प्राप्त करता है, जो अत्यन्त भाग्यशाली और पूर्ण पुरुषार्थी है।
10 आदि सृष्टि के मूल में, प्रकटे शब्द विदेह। तीन लोक पीछे बने, प्रकृति त्रिघात अपेह।
शब्दार्थ
आदि सृष्टि, सृष्टि का प्रारम्भ, मूलारम्भ, अयोनिज सृष्टि (विदेह) देह से बाहर, देह का मूलाधार प्रेरक (शब्द) अक्षर (प्रकृति) माया (त्रिघात) सत, रज एवं तम इन त्रिगुणों का परस्पर मिलाप, घात-प्रतिघात (अपेह) चेष्टाशून्य, जड़।
भाष्य
मूलारम्भ सृष्टि के प्रादुर्भाव में सबसे पहले विदेह शब्द अर्थात् व्यापक शब्द प्रकट होता है। उसके द्वारा चेष्टा करने पर शून्य परमाणुओं के सत्त्व, रज एवं तम के क्रमिक विकास से तीन लोकों की रचना होती है।
11 सार शब्द के प्रकट में, घट उजियारी होय। पुरुष संयमी जागते, मोह निशा जिव सोय।
शब्दार्थ
सारशब्द, पूर्ण पुरुष (उजियारी) उजाला, प्रकाश (मोह निशा) अज्ञान निशा।
भाष्य
सहज योगाभ्यासी संयमी पुरुष के शरीर में सार शब्द जब प्रकट हो जाता है, तब आत्मा के समस्त अन्धकार दूर हो जाते हैं और प्रकाश पूर्णरूप से प्रकट हो जाता है। इसको भेदिक संयमी पुरुष ही जानते हैं। मोहनिशा में सोये हुए जीव इस तत्त्व को नहीं जानते। इसी शरीर से परम पुरुष की प्राप्ति तथा जीवन्मुक्ति होती है। इसीलिए इस पद में घट उजियारी कह कर प्रकाश प्राप्त करने का निर्देश किया गया है। जीते जी मुक्ति होती है, मरने पर तो प्रारब्ध भोग के अनुसार जन्म होता है। इसलिए परम पुरुषार्थी संयमी पुरुष इसी जन्म में परब्रह्म की प्राप्ति कर जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त करते हैं। अतएव समस्त मानव प्राणी 'अब भजन करेंगे' इसकीतैयारी में समय नष्ट न कर इस अमूल्य श्वाँसा को प्रभु उपासना में लगा कर सार्थक करें।
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