द्वितीय अध्याय पेज नंबर 16 जाहि निशा जिव जागते, ताहि निशा मुनि सोय। जामे जागहिं संयमी, तामे जग जिव सोय।

1 जाहि निशा जिव जागते, ताहि निशा मुनि सोय। जामे जागहिं संयमी, तामे जग जिव सोय।

शब्दार्थ

 निशा, रात्रि, तिमिर (मुनि) मनस्वी, मन अन्तर्मुख हुआ योगी (संयमी) मन, प्राणादि को निग्रह कर वश में करने वाला (जीव) जीवात्मा।


भाष्य

 जिस माया-मोह अन्धकार की रत्रि में संसारी जीव जाग कर उसमें रत रहते हैं, उस संसार-माया की रात्रि में मन, बुद्धि तथा प्राण को अन्तर्मुख कर मुनिजन सो जाते हैं। इसी प्रकार व्यतिक्रम रूप से जिस अनुभव योग-विवेक की प्रकाशमान ज्योति से भरी हुई रात्रि में योगाभ्यासी संयमी पुरुष आनन्द में विभोर रहते हैं, उस प्रकाशमान रात्रि में संसारी जीव ज्ञानविहीन होकर अज्ञान-मोह निशा में सोये रहते हैं। जिस निशा में संसारी जीव जागते हैं, उस निशा में मुनिजन सोते हैं एवं जिसमें अन्तर्मुख हुए संयमी पुरुष जागते हैं, उस रात्रि में संसारी जीव ज्ञानविहीन हो सो जाते हैं।

2 अज्ञानी जग में जगे, अध्यात्म संयमी जाग। दोनो गमन विलोम है, सत्य संयमी लाग।

शब्दार्थ

 अग्नि, अवेवेकी (अध्यात्म) ब्रह्मविद्या (संयमी) साधक, सहज योगाभ्यासी (गमन) गति (विलोम) तटस्थ, विरुद्ध।

भाष्य

 अज्ञानी जीव संसार में जागते हैं और संयमी पुरुष अध्यात्म आत्म-उत्थान और ब्रह्मप्राप्ति के लिए जागते हैं। दोनों मार्ग एक से भिन्न उलटा है। इसलिए संयमी पुरुष संसार को छोड़कर सत्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रबुद्ध होकर निशिदिन जागते अर्थात् प्रयत्न करते हैं।

3 अन्तर परम रहस्य से, दूरवीन गम लाव। परम पुरुष छबि देखिये, अकथ अनूपम भाव।

शब्दार्थ

 (अंतर) भीतर, अंतराकाश (परम रहस्य) परम विश्वास, भेदिक युक्ति (दूरवीन) दूरविद्या वस्तु के दर्शन का यंत्र (गम) गमन (छबि) शोभा।

भाष्य

 अन्तर्राकाश में गोपनीय भेदयुक्ति रूपी अंतिम दर्शन गमन दृष्टि से परम पुरुष की अनुपम अकथानीय शोभा को देखें। बिना अंतराकाश की दिव्य दृष्टि के चेतन अनुभव परमब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती।

4 मनसा मनन मनाय मन, संत मौन व्रत धार। वाणी संयम उलटी कर, सन्निकर स्वर पार।

शब्दार्थ

 मनसा, मन से (मनन) विषय चिंतन (मनय) रोककर (मन) इंद्रियों से विषयरस लेने वाला (मौन व्रत) वाणी मन की अंतस्थितिमुख (सन्निकर) घाट (स्वर) शब्द (पार) पेरेंट, तरन।

भाष्य

 मन से समस्त विषयों को समूल नष्ट कर, मन के निर्विषय, शान्त होने पर, सन्तजन मौन व्रत धारण करते हैं। जब तक मन का विषय-तरंगें उठा करती है, तब तक वाणी से नहीं बोलना मौन नहीं कहला सकता। मौनव्रत तो तब होता. जब मन के अन्दर कोई विषय न आवे और सन्त मनस्वी होकर मन को अपने वश में कर लेवें। ऐसे मौन व्रतधारी सन्त संयम द्वारा वाणी को अन्तर्मुख कर परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी इन चारों वाणियों के पार सद्‌गुरु केन्द्र में उसके समीप ही सर्वाधार सारशब्द की प्राप्ति करते हैं। स्वर्वेद की परिभाषा में मन को इन्द्रियों से रोककर अन्तर्मुख लय और शान्त कर देने पर मौन होता है। योगाभ्यास में अन्तर्मुख स्थिति होने पर जब योगी अमन हो जाता है, तब आपे-आप वाणी मन की शक्ति, बाह्य क्रिया को बन्दकर अपने मूलाधार में स्थित रहती है। यही मौन का वास्तविक स्वरूप है, केवल वाणी से नहीं बोलना मौन नहीं है। यह मौन योग के आन्तरिक साधन द्वारा ही प्राप्त होता है, स्वतन्त्र मनमुखी साधन से नहीं।

5 आप शब्द के बीच में, अन्य वस्तु नहिं आय। ऊर्ध्व प्रवाही भजन है, ऊतकर्ष जिव पाय।

शब्दार्थ

 (आप) जीवात्मा (शब्द) परम पुरुष (ऊर्ध्व) ऊपर, चेतन प्रवाह (उत्कर्ष) विकास,महानता।

भाष्य

 प्रकृति देह-संघात के सम्बन्ध से रहित हो जाने पर आत्मा अपने स्वरूप में आ जाती है। उस काल में आत्मा और सार शब्द परम पुरुष के बीच में दूसरी कोई वस्तु नहीं आती, अर्थात् आत्मा के सामने केवल परब्रह्म सत्पुरुष ही चेतन दृष्टि में प्रत्यक्ष दीखता है और आत्मा का चेतन प्रवाह ऊर्ध्व को बहने लगता है। जीवन के महान् विकास की इसी अवस्था को भजन कहते हैं।

6 द्रोणाचल के चढ़त में, थकत श्वाँस भर आय। कठिन परिश्रम चढ़ गया, त्यों साधक चढ़ पाय।

शब्दार्थ

 द्रोणाचल, द्रोण गिरि, पर्वत (थकत श्वास) श्वास की तीव्र गति होने से उद्विग्नता (साधक) योगाभ्यास, अध्यात्म पथिक।

भाष्य

 द्रोण गिरि, पर्वत पर चढ़ने से थक जाने के कारण श्वाँस भरी हुई आती थी, क्योंकि थकावट में चलने पर श्वाँस का वेग बढ़ जाता है। परन्तु मैं कठिन परिश्रम करके द्रोण गिरि पर चढ़ गया। इसी प्रकार कठिन परिश्रम करके मन और पवन की गति में दृढ़ स्थिर होकर पुरुषार्थी साधक अपने लक्ष्य को प्राप्तकर चढ़ जाता है। ग्रन्थकार सद्गुरु सदाफल देव जीमहाराज सम्वत् १६६२ विक्रमी में प्रयाग से हिमालय यात्रा में द्रोण गिरि, पर्वत पर गये थे, जिसकी चर्चा आपने इस दोहे में की है।

7 नहिं हम है न हमार है, मिट दुखमय संसार। दोष शोक से रहित है, भक्ति अमल तत्त्व सार।

शब्दार्थ

 हम, प्राकृतिक देहाभिमान (हमारे) अनात्म जगत् का मोह-ममत्व (दोष) आत्मा और प्रकृति विपरीत व्यवहार (शोक) आवश्यकता, अंतरपीड़ा (भक्ति) शुद्ध चेतन विकास (अमल) विकार घटक (तत्व सार) सारतत्व, सत्य पदार्थ।


भाष्य

 जब आत्मा से प्रकृति और देह-संघात के समस्त कर्म-वासना, मोह और ममत्व का सम्बन्ध छूट जाता है, तब सारे दोष-दुर्गुणों के अभाव हो जाने पर मोह, शोक, विपदा एवं दुःखमय संसार छूट जाता है और सर्व दोषरहित शुद्ध भक्ति, चेतन प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है।

8 पूर्ण ज्ञान वैराग है, प्रेम छका रस घोट। नहीं रात नहिं दिवस है, परितु व्याप्त नहिं ओट।

शब्दार्थ

 प्रेम, मिलाप, स्नेह (छका रस) पूर्ण इच्छा (घोट) संरचना (परितु) सर्वत्र, चारों ओर (ओट) आकर्षण, परदा।

भाष्य

 अध्यात्म पथिक अनुरागी को पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वैराग्य होने पर ही भक्ति का परम सुख प्राप्त होता है। प्रकृति के आवरण टल जाने पर वह सर्वत्र एक रस परिपूर्ण ब्रह्मानन्द का आस्वादन करता है। चेतन प्रकाश के उदय हो जाने पर जड़-संसार की दिन-रात्रि नहीं रहती, बल्कि चेतन अनुभव प्रकाश अहर्निश चिदाकाश में उदय हुआ रहता है।

9 स्थिर बाज अकाश में, अपने सावज खोज। मर्मी स्थिर धाम में, सारशब्द तत्त्व खोज।

शब्दार्थ

 (स्थिर) आबरू हुआ (बाज) पक्षी विशेष (सावज) शिकार (खोज) ढूंढ़ना (मर्मि) भेदिक साधन (स्थिर धाम) सद्गुरु प्रदेश, लक्ष्य भूमि (सारशब्द) परमानंद परम पुरुष (तत्त्व)पदार्थ।

भाष्य

 जैसे आकाश में स्थिर पक्षी बाज पक्षी अपने शिकार पक्षी को खोजते हैं, उसी प्रकार भेदिक संत सद्गुरु लक्ष्य स्थिर धाम को खोजते हैं, चिदाकाश में परम तत्व सारशब्द को खोजते हैं।

10 मननशील वीतराग है, संत हिमालय वास । झरना शीतल वायु जल, बल समृद्धि तत्त्व भास।

शब्दार्थ

 मननशील, मन की गति का अंतर्मुख हुआ, सत्यसत्य का दर्शन हुआ,धीर पुरुष (वीतराग) विषय-राग से घटक (संत) योगी (तत्त्वभास) गुण का उदय।

भाष्य

 मननशील अर्थात् मन की गति को निषेध वाला अन्तर्मुख गति में विलेन करने वाला, विषयों से बना हुआ संत हिमालय में वास करता है। योगियों के लिए हिमालय वास से प्राकृतिक सारे तत्व शुद्ध रूप में प्राप्त होते हैं, एवं एकांत, निर्विघ्न स्थान होने से सरलता से योगाभ्यास में पवित्र आनंद की प्राप्ति होती है। झरना का शीतल जल और हिमालय की शुद्ध वायु से प्रकृति के तत्वों का पूर्ण विकास होता है और देह, प्राण एवं शरीर के स्थायित्व में शक्ति प्राप्त होती है। स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन एवं बुद्धि-विकास तथा योगाभ्यास के लिए हिमालय के जलवायु साधन सर्वोत्तम हैं। योगी एकाकी एकान्त में निवास कर सूक्ष्म ब्रह्म तत्त्व का सिद्धांत कर आत्म जीवन को धारण कर परमानन्द को प्राप्त करता है।

11 अरण्य हिमालय का गोला, संत एकांत निवास। सर्वोत्तम निर्विघ्न है, साधन सहज विकास।

शब्दार्थ

 अरण्य, वन, कानन (हिमालय) पहाड़ का पर्वत (निर्विघ्न) विघ्नरहित (गुहा) गुफा, कन्दरा।

भाष्य

 हिमालय पर्वत की अरण्य गुहा में सन्तजन अकेला निवास करते हैं। वह हरेक प्रकार के संसारी विघ्नों से रहित उत्तम स्थान है, जहाँ पर योगाभ्यास साधन के विकास के लिए सुगमता प्राप्त होती है। निर्विघ्न स्थान होने से साधन सरलता से चलकर पूर्ण होता है। योगियों, तपस्वियों और वीतरागी पुरुषों के लिए एकान्त अमृत है, परन्तु रागी, भोगी एवं संसारी, विषयासक्त पुरुषों के लिए एकान्त स्थान विषतुल्य है। संसारी पुरुषों के लिए एकान्त में भजन करना सदैव वर्जित है। संसारी पुरुषों का एकान्त निवास उनके अधःपतन का एक कारण है। इसलिए योगी पुरुष ही, जो वीतरागी हैं, हिमालय या अरण्य की कन्दराओं में निवास कर अपने तपस्वी जीवन से अमृत लाभ प्राप्त करें।

12 मम सद्गुरु आज्ञा है, देह त्यागु अभिमान। जूलो सदा सुख सिंधु में, अंतर अनुभव ज्ञान।

शब्दार्थ

 अभिमान, दया, ममत्व (झूलो) हिलना, लटकना (सुख-सिंधु) आनंद-सागर परब्रह्म (आदेश) आज्ञा (अनुभव ज्ञान) चेतन विकास का विवेक।

भाष्य

 मुझे सद्‌गुरु का आदेश है कि सारे देह-संघात का अभिमान त्याग कर आनन्द-सागर शब्दाधार चेतन डोरी पकड़कर सदैव झूलते रहो। तब अन्तर अनुभव तत्त्व का ज्ञान प्राप्त होगा। जब तक देहाभिमान योगी से नहीं छूटता है, तब तक वास्तविक सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए देह-ममत्व के छूट जाने पर अन्तर अनुभव में चेतन सुख-सागर का प्रवाह धार प्राप्त होता है और उसी में योगी तल्लीन हो ब्रह्मानन्द, सोमरस को पान करताहै। यही इस दोहे का स्पष्ट अर्थ है, जिसे नित्य अनादि सद्‌गुरु ने ग्रन्थ रचयिता सद्‌गुरु देव को उपदेश किया है।

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