द्वितीय अध्याय पेज नंबर 17 मन मारे मन जीत है, पंगु आतमा होय। गन्ति पन्थ संसार के, पंगु कवन विधि होय।
1 मन मारे मन जीत है, पंगु आतमा होय। गन्ति पन्थ संसार के, पंगु कवन विधि होय।
शब्दार्थ
मनमारे, मन को बहिर्मुख विषयों से उसके मूल कारण में शांति करने पर मन मरता है (मनजीत) मन पर त्रिमूर्ति सन्त (पंगु) लंगड़ा, चलने की शक्ति से हीन (ज्ञान पंथ) संसार के मार्ग में गमन (विधि) रीति।
भाष्य
मन के मरने पर योगी मनस्वी अर्थात् मन का स्वामी हो जाता है। मन के न रहने पर आत्मा की ज्ञान-धारा बाहर प्रवाहित नहीं होती। इसलिए आत्मा पंगु हो जाती है। संसार के मार्ग पर गमन करने से आत्मा पंगु कैसे हो सकती है? इसलिए योग के साधन द्वारा बहिर्मुख शक्ति को अन्तर्मुख कर एक विशिष्ट भूमि पर पहुँचा देने पर मन की बाह्य शक्ति रुक जाती है और मन के शान्त, लय हो जाने पर आत्मा का प्रकृति प्रवाह करने वाला साधन न होने से आत्मा बाह्य क्रिया से पंगु होकर अपने चेतन स्वरूप के विकास के लिए आगे बढ़ती है। योगाभ्यासी को जिसे अन्तरी भूमि का ज्ञान है, वह आत्मा और मन के सम्बन्ध को जानता है और मन से आत्मा अलग होकर कैसे सहज भूमि में स्थित हो सद्गुरु धाम को प्राप्त करती है, इस अनुभव तत्त्व को प्रत्यक्ष अनुभव करता है। ग्रन्थकार ने मन को मार कर अर्थात् मनजीत हो जाने पर आत्मा की पंगु संज्ञा दी है।
2 शून्य शिखर पंगू चढ़े, चढ़ पगवान् न जाय। मन अरु पवन अभाव में, क्षीप्र ऊर्ध्व चढ़ जाय।
शब्दार्थ
पंगू, बिना पैर का, लंगड़ा (क्षिप्र) शीघ्र (ऊर्ध्व) ऊपर, ऊर्ध्व मूल (शून्य शिखर) शून्य शिखा, आकाश की चोटी, सर्वोत्कृष्ट भूमि (अभाव) अनुपयोगी, विकसन।
भाष्य
मन व प्राण जाकर जहाँ शान्त हो जाते हैं, उस भूमि को शून्य कहते हैं। शून्य, सहज शून्य, महाशून्य ये एकार्थवाची शब्द हैं। शून्य की अन्तिम चोटी समाधि मण्डल, परम धाम को इस पद में शून्य शिखर कहा गया है। उस पवित्र प्रकाशमान शिखा परम ज्योति को पगवान् अर्थात् मन, इन्द्रिय को साथ रखने वाला नहीं प्राप्त करता, बल्कि उस शून्य शिखर पर मन और पवनविहीन पंगु आत्मा ही शीघ्र ऊपर चढ़ जाती है। मन व पवन द्वारा आत्मा प्रकृति-संघात में नीचे चली आती है और इसके अभाव में शीघ्र गगन की निराधार चोटी पर चढ़ जाती है। इस पद में विहंगम योग की भूमि का स्पष्ट वर्णन किया गया है, जिसे साधक-अभ्यासी समझ सकेंगे।
3 मैं दूसर मम पन्थ भिन, अन्य पन्थ जग अन्य। मैं क्यों भूलों भरम में, शब्दारोहण मन्य।
शब्दार्थ
(मम्) मेरा (पंथ) मार्ग (शब्दारोहण) शब्दप्राप्त, शब्दाधार पर चढ़ा जाना (बहुत) प्रिय मनोनीत ।
भाष्य
मैं जड़ अनात्म जगत् से भिन्न चेतन स्वरूप शुद्ध आत्मा हूँ। मेरा पन्थ प्रकृति मार्ग नहीं है। संसार का दूसरा पथ है, और मैं दूसरे पथ का पथिक हूँ। मैं इन अज्ञानजन्य मार्ग, अधः प्रवाह प्रकृति में क्यों भूलूँ? मैं एकमात्र सर्व सम्बन्धों को छोड़कर शुद्ध स्वरूप से चिदाकाश में गमन कर शब्दाधार पर चढ़ जाऊँ। शब्दारोहण ही मेरा एक मात्र कर्त्तव्य है। सन्त, योगमार्ग पथिक का एक मात्र प्रकृति पार पथ शब्द मार्ग है। उसी की प्राप्ति से सर्व आनन्द की प्राप्ति और विकास होता है।
4 मायू अनुभव गम्य है, श्रवण नहीं वह होय। गो गोचर क्षर शब्द है, गुण आकाश कर सोय।
शब्दार्थ
(मयौ) शब्द, सारशब्द, परम पुरुष (अनुभव गम्य) चेतन आत्मा द्वारा प्राप्त होता है उस पदार्थ को अनुभवगम्य कहते हैं (गो) इन्द्रिय गण (क्षर) नशामान, अनित्य (गुण) क्रिया शक्ति, कार्य।
भाष्य
मायू वैदिक शब्द है। वैदिक कोल्हाश निघण्टु है, जिस पर यास्क मुनि का निरुक्त अर्थात् भाष्य है। स्वरवेद में कई जगहों पर वेद के शब्द मिलते हैं। निघण्टु में म्यु, स्वर, शब्द, कशा, अक्षर, नक्षत्रा, सपूर्ण, सरस्वती तथा स्वनः आदि 57 शब्द वाणी के अर्थ में सुसंगत हैं। यहाँ पर सारशब्द परब्रह्म को कहा गया है। वह अनुभव गम्य है। वह कान द्वारा श्रवण नहीं होता, बल्कि नाद, विन्दु एवं अनहद से परे अगोचर तत्त्व है। इंद्रियों द्वारा जो शब्द उच्चारित होते हैं, वे भौतिक क्षर शब्द हैं अर्थात्, अनित्य, नाशवान शब्द हैं। उसका अर्थ है सारशब्द आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि आकाश भी प्रकृति से एक तत्व बना है। अतएव वह अनिर्वाच्य शब्द जड़ आकाश का गुण नहीं है। आकाश और उनके गुण शब्द दोनों प्रकृति के कार्य जड़, अनित्य पदार्थ हैं। सारशब्द क्षर, अक्षर पार नित्य अखंड शब्द है। प्रकृति पार आख एवं अगोचर इस महान तत्व को प्रकृति मण्डल में ही कहा गया है।
5 एक तार चटाक लगे, नग्ना अनुभव होय। झुक आकाश भूमि मिले, तब क्या पावे सोय।
शब्दार्थ
(एक तार) एक स्वरूप से (चातक) देखना (नग्ना) शब्द (अनुभव) ज्ञान, साध्य की प्राप्ति (झूक) नीचे, अधः (आकाश भूमि) महाशून्य, अक्षर मण्डल।
भाष्य
आत्मा की प्रकृति देह-संघात में बिखरी हुई सारी शक्ति को खींच कर एक ध्येय एकाकार स्वरूप से अलौकिक, अबाध गति से एकतार देखने को 'चातक' कहा जाता है। ध्येय के एक स्वरूप में जब आत्मा की ज्ञानशक्ति लगती है, तब सारशब्द का अनुभव-विज्ञान प्रत्यक्ष होता है अर्थात शब्द अनुभव की प्राप्ति होती है। जब साधक, सहज योगाभ्यासी की ज्ञानधारा नीचे आकाश, सहज भूमि में मिलती है, तब वह साधक शब्दानंद, परम शक्ति का अनुभव कैसे प्राप्त कर सकता है? इस पद में योगाभ्यास के लिए अक्षर, अक्षर पार एकाकार हो एक मात्र एक ध्येय सारशब्द में ही प्रवेश कर तन्मय-तदाकार हो जाने का उपदेश दिया गया है। शब्द अनुभव परम सुख को प्राप्त करने का यही शुद्ध स्वरूप है। योगी एकपल भी नीचे भूमि में न अक्रांत शब्दाधार, परमानंद में निमग्न हो अमृत परमानंद का आस्वादन करता है।
6 कशा अडीग अडोल है, जग में अक्षर कम्प है, कम्प नहीं है ताहिं। अनुभव दर्शन माहिं।
शब्दार्थ
काशा वाणी, शब्द अर्थात् सारशब्द (अडिग) दृढ़ (अडोल) न हिलने वाला (कम्प) गति, हिलना (अक्षर) एक पाद, जगदान्तर व्यापक अक्षर ब्रह्म (अनुभव, दर्शन) आत्म अनुभव यथार्थ ज्ञान।
भाष्य
प्रकृति आधार छूट जाने पर आत्मा को अनुभव प्राप्त होता है। अनुभव में सार शब्द परम पुरुष की प्राप्ति होती है। व्यापक सत्ता सर्वत्र है, परन्तु विहंगम योगाभ्यास द्वारा प्रकृति के आवरण हट जाने पर आत्मा को परब्रह्म का अनुभव होता है। उसी को दर्शन भी कहते हैं। प्राप्ति की ही प्राप्ति है। ब्रह्म आत्मा के अन्दर या चराचर जगत् में एकरस व्यापक है। जब जड़-चेतन की ग्रन्थि ब्रह्मविद्या योगाभ्यास द्वारा खुल जाती है, तब ब्रह्म का दर्शन अर्थात् प्राप्ति होती है और उस ब्रह्म प्रकाश में आत्मा तथा ब्रह्म का स्पष्ट ज्ञान एवं अनुभव होता है, एवं जिस ओर योगी अपनी दृष्टि फेंकता है, वे सभी पदार्थ यथार्थ रूप से स्पष्ट भासित होते हैं। अनुभव दर्शन होने के बाद जड़-चेतन समस्त तत्वों का बोध होता है। वह कशा अर्थात् सारशब्द समस्त जगत् का आधार, स्कम्भ है एवं अडिग अर्थात् कूटस्थ है। वह दृढ़ स्थिर एकरूप से रहने वाला पदार्थ अकम्प है, उसमें कम्प नहीं है। कम्प गति एक पाद जगत् प्रकृति मण्डल में होती है। सारशब्द अडिग, अडोल अर्थात् कम्प से रहित है। कम्प अक्षर द्वारा जगत् में होता है। कम्प का आधार अक्षर भगवान् हैं।
7 अन्तर अगम अगाध में, बूड़े सन्त समाय। रोम रोम मन्द्रा गजै, पलक दरश झलकाय।
शब्दार्थ
(अन्तर) दहराकाश, मध्य भूमि के भीतर (अगम) जहां मन, बुद्धि का गम नहीं है (अगध) रथ, अथाह (रोम रोम) लोम, सारे अंग-प्रत्यंग सूक्ष्म प्राणाल विभाग में (मंद्राशब्द (पलक दरश) आँख की दृष्टि (झलकाय) प्रकाशित, चमकती हुई ब्रह्म-प्रभा ।
भाष्य
जब संत सहज भूमि को पार कर चिदाकाश रूपी अनंत महासागर में प्रवेश कर सकते हैं, तब अगम-अथाह शब्द-सागर की प्राप्ति होती है। शरीर तथा समग्र इंद्रिय, प्राण तथा अंतःकरणों में शब्द ही प्रकाशमान की प्राप्ति होती है तथा उस काल में योगी की चेतन दृष्टि जहां होती है, वहां प्रकाशमान ब्रह्म-प्रभा का स्पष्ट अनुभव प्रकट होता है। योगी के चारों ओर बाहर-भीतर, अर्ध-ऊर्ध्व सर्वत्र एक प्रभा प्रकाशमान दृष्टिगोचर होता है। विहंगम योग की समाधि, चेतन विज्ञान द्वारा वह प्राप्त होती है। वह योगी योग-विज्ञान से बाहर भीतर सभी नशे में एकमात्र ब्रह्म का ही अनुभव करने लगता है। लाइट लाइट के अतिरिक्त कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती। यह योग की महान भूमि विहंगम योगी सन्तों को प्राप्त होता है। यही जीवनमुक्त विहंगम योगी की स्थिति है, जिसका वर्णन इस पद में किया गया है।
8 नयन श्रवण मुख नासिका, नख सिख शब्द समाय। देव सदाफल पूर्ण है, जहाँ देखो ताहँ पाय।
शब्दार्थ
नयन, चक्षु (श्रवण) कान (मुख) मुख (नासिका) नाक (नख शिख) पैर के नख से सिर की चोटी तक (शब्द) सार शब्द।
भाष्य
जब विहंगम योग की ऊँची भूमि प्राप्त हो जाती है अर्थात् समाधि भूमि की प्राप्ति हो जाती है, तब शरीर के सब अंग-प्रत्यंग, इन्द्रिय और प्राण आदि शब्द प्रकाश से पूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सब में शब्द ही प्रकट प्रवेश होकर अनुभव होता है। जहाँ भी सन्त की चेतन दृष्टि पड़ती है, एकमात्र शब्द का ही पूर्ण अनुभव होता है। शब्द की पूर्णता से देह-संघात, आत्मा प्रदीप्त हो तथा चेतन प्रकाश में प्रकाशित रहते हैं। उस योगी की आत्मप्रभा जड़-जगत् में ही प्रकट होती है, जिसे वह योगी देख कर मुग्ध हो आनन्द के परम प्रकाश में पूर्ण तृप्त रहता है। ब्रह्म-प्रभा को योगी जगत् में कैसे प्रकट करता है या शरीर, इन्द्रिय में उसकी शक्ति कैसे विशिष्ट रूप से प्रकट की जाती है, यह ब्रह्मविद्या योग की कला है, जिसे सद्गुरु, विहंगम योगाभ्यासी, अनुभवदर्शी, सन्तजन जानते हैं। इस पद में भी विहंगम योग समाधि का वर्णन किया गया है। स्वर्वेद के इस अनुभव तत्त्वज्ञान का पूर्ण बोध और आनन्द की प्राप्ति विहंगम योग साधन द्वारा ही प्राप्त हो सकेगी। इसलिए विहंगम योग अत्यन्त उत्कृष्ट तथा अध्यात्म की ऊँची शिखा को प्राप्त कराने वाला अनुभव चेतन पथ है।

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