तृतीय अध्याय पेज नंबर 18 महकारण कैवल्य दो, जिवन्मुक्ति नहिं देह। देह चार वे रहत हैं, रह असंग निज गेह ।
1 महकारण कैवल्य दो, जिवन्मुक्ति नहिं देह। देह चार वे रहत हैं, रह असंग निज गेह।
शब्दार्थ
(जीवन्मुक्ति) जीते जी मुक्ति अर्थात् इस शरीर में ही प्रभु की प्राप्ति (देह) शरीर (असंग) संग्रहित, जल कमलवत् निर्लेप (गेह) गृह।
भाष्य
स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और हंस ये आत्मा की छः अवस्थायें अर्थात् छः देह होती हैं। आत्मा की शुद्ध देह हंस अवस्था है। हंस देह से जीव क्रमशः कैवल्य, महाकारण देह को प्राप्त होकर फिर कारण, सूक्ष्म और स्थूल को प्राप्त होता है। जब कैवल्य देह में जीव को अपने में ब्रह्मत्व का भाव आ जाता है, तब वह इस अभिमान से ब्रह्मानन्द को छोडकर नीचे प्रकृति-प्रवाह के भाव को दृढ़ करने लगता है और कैवल्य से महाकारण देह को प्राप्त करता है। जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध छूटने का कारण 'अहं ब्रह्मारिम' का भाव है। 'मैं ब्रह्म हूँ' जब यह अभिमान जीव में आ जाता है, तब वह अमृत परब्रह्म को छोड़कर पतन हो प्रकृति-प्रवाह में आ जाता है। महाकारण देह से प्रकृति में आने की दृढ़ भावना जीव को हो जाती है। कैवल्य और महाकारण ये दोनों देह अज्ञान-भ्रम के कारण प्राप्त होती हैं। जब आत्मा का प्रकृति से सम्बन्ध हो जाता है, उस प्राकृतिक अवस्था के प्राप्त देह को कारण देह कहते हैं। जब वहाँ से आत्मा का प्रकृति के भोग के लिए नीचे पतन होता है, तब इस सूक्ष्म देह को उन्नीस तत्त्वों की प्राप्ति हो जाती है।
दश इन्द्रियाँ, पाँच प्राण एवं चतुष्टय अन्तःकरण ये उन्नीस तत्त्वों की बनी हुई सूक्ष्म देह है। सूक्ष्म शरीर में आत्मा को प्रकृति के करण उपभोग के लिए प्राप्त हो जाते हैं। सूक्ष्म शरीर के प्राप्त हो जाने पर यह जीवात्मा रज-वीर्य के द्वारा गर्भ में प्रवेश कर व्यक्ति बाहर जगत् में आ जाता है। जन्म, बाल, किशोर, तरुण, वृद्ध एवं मृत्यु इन छः अवस्थाओं को प्राप्त होने वाली देह को स्थूल देह कहते हैं। स्थूल शरीराभिमानी जीव कर्म और संस्कार द्वारा भोग प्राप्त करके बार-बार जन्म-मरण महादुःख को प्राप्त होता है। जीव के दुःख का कारण जन्म ही है। जब जन्म और मरण एवं त्रिगुणों के त्रिघात द्वन्द्व से जीव छूट जाएगा तभी उसे अपने शुद्ध स्वरूप में आने पर आनन्द एवं पूर्ण सुख की प्राप्ति होगी। आत्मा की शुद्ध देह हंस देह है, जिस काल में वह प्रकृति के बन्धनों से अत्यन्त छूटकर अपने शुद्ध स्वरूप से अव्याहत गति से परमानन्द का उपभोग करती है। आत्मा के शुद्ध रूप से परमानन्द का ही उपभोग होता है। अज्ञान-भ्रम की अवस्था में ही जीवन प्रकृति के सुखों की इच्छा और उसकी प्राप्ति कर जन्म-मरण के संसृत क्लेश से दुःखी रहता है। इसलिए आत्मा की शुद्ध अवस्था हंस अवस्था है।
जब योगी इस शरीर से परम पुरुष की प्राप्ति कर जीवन्मुक्त हो जाता है, तब अज्ञान-भ्रम की ग्रन्थि एवं अनात्मजड़-जगत् का आत्मा से अभाव हो जाता है। इसलिए उस जीवन्मुक्त योगी में अज्ञान, भ्रम न रहने के कारण कैवल्य और महाकारण दोनों देहों का अभाव हो जाता है। फिर भी वह योगी इस शरीर में रहकर अपने इन्द्रियादिकों के द्वारा शरीर सम्बन्धी प्रकृति-व्यवहार को चलाता है। परन्तु इन देह-इन्द्रिय संघात में रहकर भी जल कमलवत् असंग, निर्लेप रहता है। इसलिए शरीर में रहने के कारण जीवन्मुक्त सहज योगी में स्थूल, सूक्ष्म, कारण और अपनी शुद्ध सत्ता हंस देह रहती है। इन प्राकृतिक तीन शरीरों के साथ रहने पर भी वह योगी इनके धर्मों से असंग हो अपने शुद्ध चेतन स्वरूप में रह ब्रह्मानन्द, परमसुख को प्राप्त करता है। जीवन्मुक्त और विदेह मुक्त ये योगी की दो अवस्थायें होती हैं। शरीर छूटने पर ही वह शरीर सम्बन्धी कर्मों और प्रकृति त्रिगुणों से नितान्त अलग होता है। जब तक शरीर में है, तब तक असंग निर्लेप अवस्था में भी प्रकृति के धर्म उसके शुद्ध आत्मिक चेष्टा से होते रहते हैं, परन्तु प्रकृति के धर्म उसको स्पर्श नहीं करते। वह प्रकृति के सारे कार्यों को करते हुए इन कर्मों से असंग रहता है। इसलिए जीवन्मुक्त सहज योगी में प्रकृति के तीनों शरीरों से सम्बन्ध रहता है और इन सारे देह-संघात के सम्बन्धों से असंग हो, वह इस शरीर में मुक्त होकर अपनी शुद्ध हंस अवस्था में विराजमान रहता है। यही जीवन्मुक्त योगी का स्वरूप है। जीवन्मुक्त योगी ही विदेहमुक्त होता है, अर्थात् जो मुक्त है, वही विमुक्त होता है।
2 योग वियोग परमाणु से, पर शरीर परवेश। कल्प तीसरी युक्ति है, अमरत्व आदेश।
शब्दार्थ
(योग) संबंध (वियोग) विच्छेद, अलग (पर शरीर) दूसरे के देह (कल्प) योग या औषधि के अर्थ से नए शरीर (अम्रत्व) स्वतन्त्र जीवन धारण करने की शक्ति, मृत्युंजयआदेश) नियम, निर्देश।
भाष्य
तीन प्रकार के अमरत्व होते हैं। इन तीन साधनों से योगीजन अमर होकर अपने इच्छानुकूल संसार में गुप्त या प्रकट भ्रमण कर जगजीवों को दर्शन देते हैं। अमर योगी हिमालय गुहा या निर्जन स्थानों में शुद्ध परमाणु ज्ञान से अपने शरीर को स्थिर कर अपने परमानन्द में निमग्न हो जाते हैं। कोई-कोई अमर योगी इच्छानुकूल महाप्रलय तक अपने शरीर को रखते हैं। जीवन्मुक्त हो जाने पर योगीजन अपनी इच्छानुसार इस भौतिक संसार में चिरकाल तक निवास करते हैं और भक्त-प्रेमियों को प्रकट होकर व्यक्त शरीर से दर्शन भी देते हैं। जब योगमार्ग के अनुभव-पथ के अभ्यासी भक्त को अपने मार्ग में कठिनाई पड़ती है, तब ये अमर योगी उसकी आत्मा में अपनी ज्ञान-शक्ति का संचार कर उसको अपना आध्यात्मिक प्रकाश प्रदान करते हैं। तीन प्रकार के अमरत्व में परमाणु योग-वियोग पहिला अमरत्व है। इस परमाणु योग-विज्ञान द्वारा योगी पुरुष परमाणुओं की लोम-विलोम की क्रिया द्वारा शरीर को दृढ़-स्थिर कर देता है। योग और वियोग द्वारा शरीर के परमाणुओं में दृढ़ता आ जाती है और नव जीवन को धारण करयोगी दृढ़-स्थिर शरीरवाला हो जाता है।
परमाणुओं में सदैव गति रहती है। उस गति, क्रिया को जानने वाला प्रकृति-विज्ञान का योगी अपने शरीर को संसार में चिरकाल तक रखता है। इसमें भी दो प्रकार के भेद हैं। पहिला योग-वियोग द्वारा शरीर का धारण और रक्षण होता है. और दूसरे में परमाणु के वियोग-योग की अनुभव-कला से योगीजन शरीर के परमाणुओं को लोम-विलोम द्वारा उसमें लय कर शरीर का अभाव कर देते हैं, जिससे कितने योगी पुरुषों का शरीर देहान्त काल में नहीं प्राप्त होता। यह परमाणु लय विज्ञान द्वारा शरीर का त्याग कर योगी अमरत्व को या विदेहमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करता है। शरीर के परमाणुओं को क्रमशः लय करके विदेह होने की क्रिया को अमरत्व कहते हैं। अतएव परमाणु-विज्ञान द्वारा ही शरीर को स्थिर और शरीर का लय ये दोनों क्रियाएँ योगीजन करते हैं। यह एक प्रकार का अमरत्व है।
दूसरा अमरत्व, जिसके द्वारा शरीर छूट जाने पर भी योगी लोग दूसरेके शरीर में प्रवेश कर चिरकाल तक संसार में रहकर अपना आध्यात्मिक प्रकाश संसार को प्रदान करते हैं, यह काया-प्रवेश है। जो योगीजन प्रकृति-प्रबल वेग में अपने शरीर को रखने में असमर्थ हो जाते हैं, तब वे योग विज्ञान द्वारा दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यह भी क्रिया प्रकृति-विज्ञान में सबसे श्रेष्ठ है। यह भी क्रिया परमाणुओं के योग द्वारा ही होती है। जिसको परमाणु-क्रम का ज्ञान नहीं है और न ब्रह्मलोक की प्राप्ति है, वह प्राकृतिक योगी काया प्रवेश नहीं करता। ब्रह्माधार पर ही प्रकृति की सारी क्रियायें होती हैं। विभूति जानने वाला प्राकृतिक योगी भी इस काया-प्रवेश द्वारा दूसरे के शरीर में प्रवेश करता है। परन्तु विहंगम योगी, जिसकी सदैव ऊर्ध्व चेष्टा अनुभव-पथ में होती रहती है, उसके लिए यह क्रिया एक क्रीड़ामात्र है। यह स्वाभाविक शक्ति जीवन्मुक्त योगियों में स्वयं प्रकट होती है और योगी की यह महिमा है कि वह स्वतन्त्र रूप से काया-प्रवेश या शरीर का त्याग कर अमरत्व को प्राप्त करे। विहंगम योगी को अल्प चेष्टा से ही यह प्रकृति की महती क्रिया स्वाभाविक सरलता से सिद्ध हो जाती है।
उसको इसके लिए विशेष यत्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वाभाविक सहज चेष्टा से यह क्रिया स्वतः हो जाती है। किसी प्रधान और आवश्यक हेतु के कारण ही इस क्रिया को कोई योगीपुरुष प्रयोग करता है। यह योगियों की साधारण क्रिया है, कोई विशेष अवस्था की प्राप्ति का चिह्न नहीं है। परन्तु यह योग-विज्ञान भारत के प्राचीन योगियों की विद्या है, जिसका वर्णन सद्गुरु सदाफलदेव जी महाराज ने अपने इस सद्ग्रन्थ में किया है। तीसरा अमरत्व कल्प का होता है। जड़ी-बूटी और योग रसायन के प्रभाव से इन औषधि संयम द्वारा भी शरीर को दीर्घ काल तक संयमी पुरुष रखते हैं। ब्राह्मी महाकल्प के द्वारा यह शरीर दीर्घ काल तक रहता है और भी प्रयोग प्राचीन ग्रन्थों में पाया जाता है, जिसका विज्ञान आज लुप्त है। शुद्ध वायु-जल और औषधि-विज्ञान के कल्पों द्वारा भी योगीजन शरीर को दृढ़ रखते हैं, परन्तु इस विज्ञान और संयम का पालन करने वाले पुरुषों का अत्यन्त अभाव है।
महाकल्प के प्रयोग द्वारा शरीर के परमाणु दृढ़ और स्थिर हो जाते हैं और बुद्धि का महान् विकास होता है। यह क्रिया हिमालय, एकान्त स्थान, शुद्ध जलवायुमें हो सकती है, जिसका प्रभाव शरीर, प्राण-बुद्धि और मन पर पड़ता है। यह कल्प विज्ञान भी महान् विज्ञान है, जिसके प्रयोग से शरीर दृढ़ हो कर इच्छानुकूल संसार में स्थिर रहता है। यह क्रिया अनुभवी सत्पुरुष द्वारा ही करनी चाहिए। यह भी कल्प विद्या प्राचीन योगियों की विद्या है। अभी भी अनेक स्थानों पर इन अमरत्व प्राप्त योगियों के दर्शन मिलते हैं और योगीजन हिमालय या वन की गुहा में अपने कल्प या योग विज्ञान द्वारा शरीर को रखकर स्वतन्त्र रूप से अपनी योग-समाधि में निमग्न रहते हैं। अमरत्व की कला अध्यात्म-विद्या आनुभविक, जीवन्मुक्त योगियों के द्वारा ही प्राप्त होती है और इन महती क्रियाओं को योगीजन ही करते हैं। इसलिए इस विद्या के पूर्णवेत्ता महान् योगीश्वर सद्गुरु देव ने अपने इस सद्ग्रन्थ में आवश्यक समझकर इस गुप्त विद्या की चर्चा की है।

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