1 सुरति वेग दृढ़ मन पौन, ऊर्ध्व योनि मुख फेर। कर विलीन स्वच्छन्द हो, गो पचीस गुण चेर।
शब्दार्थ
सुरति, आत्मिक स्वयं (वेग) प्रवाह (ऊर्ध्व) आगे, ऊपर (योनि मुख) स्थान, प्रकट होने का द्वार (फेर) कुकर, अन्तर्मुख (विलेन) लय, शान्त (स्वच्छन्द) बंधनरहित (गो) इंद्रिय पचीस) प्रकृति, पंचचरित्र (गुण) स्वभाव (चेर) सेवक, आज्ञानु विद्वान।
भाष्य
आत्मिक चेतन-प्रवाह को अन्तर्मुख कर मन-पवन को दृढ़ स्थिर करके इनके अर्ध प्रवाह को घुमाकर इनके मूल केन्द्र में लय एवं शान्त, करके योगी स्वच्छन्द हो अपने आत्मस्वरूप में स्थित होता है और प्रकृति की इन्द्रियाँ और उनके गुण स्वभाव आत्मा के अनुकूल हो कर बर्तने लगते हैं। मन, पवन और सुरति के स्थिर होने से प्रकृति की इन्द्रियाँ स्वामिवत् आत्मा के अनुकूल हो वशवर्ती हो जाती है। सुरति के बाह्य प्रवाह को बन्द कर अन्दर चलने पर मन, पवन की गति स्थिर हो जाती है। सुरति के अन्तर्मुख हो जाने पर आत्मा का प्रकृति-प्रवाह बन्द हो जाता है और आत्मा को स्वच्छन्दता प्राप्त होती है। यही इस दोहे का अभिप्राय है।
2 पन्थ ऊर्ध्व गामी चले, पद्म पत्र जल भासता, छूटत पांच शरीर। जिवन्मुक्त पर धीर।
शब्दार्थ
(पंथ) मार्ग (ऊर्ध्वगामी) विहंगम योगाभ्यास (पांच शरीर) शूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य (पद्म पत्र) कमल के पत्तों के समान (भासाता) रूप (पर) प्रकृति पार (धीर) दृढ़ मनस्वी (जीवनमुक्त) योगी।
भाष्य
विहंगम मार्ग पर चलने वाले योगपथिक के पाँचों शरीर छूट जाते हैं और वह जल-कमलवत् संसार में प्रकाशमान हो दृढ़ मनस्वी होकर प्रकृतिपार चिदाकाश में अनुभव-गमन कर जीवन्मुक्त हो जाता है। आत्मा की शुद्ध अवस्था हंस अवस्था है। हंस अवस्था में योगी जीवन्मुक्त हो कर संसार में निर्लेप रहता है। बाहरी कर्म-व्यवहार को छोड़ देने या संसारकी अनासक्ति का विवेक कर, वाचक ज्ञान से जीवन्मुक्त अवस्था की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए एकमात्र साधन अनुभव पथ विहंगम मार्ग है, जिसे ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु जन जानते हैं।
3 पूर्ण ज्ञान वैराग में, साथ होय अभ्यास । उतरे रोंदा धनुष से, तीर न लागे पास।
शब्दार्थ
(ज्ञान) बोध (वैराग) विषय तृष्णा से अनुपयोगी (अभ्यास) साधन (रोंदा) डोरी (धनुष) जिस पर चढ़ा कर बाण मारा जाता है, प्रत्यंचा (तीर) बाण (पास) डूब जाता है।
भाष्य
Vihangam
yoga
पूर्णज्ञान वैराग्य के युक्त होने पर ही साधन होता है। जिस प्रकार धनुष से डोरी उतर जाने पर बाण समीप लक्ष्य को नहीं लगता, वैसे ही पूर्ण ज्ञान वैराग्य से विहीन होने पर अभ्यास द्वारा अनुभव लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए ज्ञान-वैराग्य के पूर्ण होने पर ही योग का अभ्यास करना चाहिए।
4 अहार निन्द के अल्प में, दृढ़ होय अभ्यास। निश्चय नियम विलास में, वर्द्धत विमल विकाश।
शब्दार्थ
(अहार) भोजन (निन्द) निद्रा (विलास) सुख (वर्द्धत) वृद्धि (विमल) पवित्र (विकास) उद्भव, प्रकाश।
भाष्य
आहार और निद्रा के अल्प होने से दृढ़ अभ्यास होता है। संयमी पुरुष नियमित व्यवहार के रखने से सुखपूर्वक पवित्र आत्म-विकास में उन्नति करता है। आहार-विहार नियमित, युक्त होने से एवं सन्तुलित पौष्टिक पदार्थों के सेवन से शरीर में पुष्टि और स्फूर्ति रहती है। सात्विक और शीघ्र पाचक पदार्थ के सेवन करने से तमोगुण का विशेष अभाव रहता है। इसलिए साधक शरीर की रक्षा मात्र के लिए पौष्टिक पदार्थों का सेवन करें। संयमी पुरुष ही साधन अभ्यास को दृढ़ता-पूर्वक करता है और अभ्यास में अन्दर अनुभव होने पर प्राकृतिक चेष्टा या व्यवहार स्वाभाविक अल्प होने लगते हैं। अल्प भोजन और अल्प निद्रा होने से योगाभ्यास में दृढ़ता होती है और अनुभव प्रकाश प्राप्त करने में सुलभता प्राप्त होती है। योगाभ्यासी की ऐसी भी स्थिति आ जाती है कि थोड़े काल में वह अपनी निद्रा को पूरा कर लेता है एवं योग की विशेष भूमि में पहुँच जाने पर एकतार चौबीस घण्टे की अखण्ड समाधि में ब्रह्म-सुख को प्राप्त करता है। इसलिए योगाभ्यासी अनुरागी पुरुषों को आवश्यक है कि ब्रह्मविद्या योगमार्ग में प्रवृत्त होने के लिए संयम-नियम पर विशेष ध्यान देकर आत्मोन्नति के लिए प्रयत्न करें।
5 नाके तार अधार पर, पन्थ अगम चल सन्त । मकर तार छोड़े नहीं, जब लग पहुँच न अन्त।
शब्दार्थ
Vihangam
yoga
(नाके) सहज शून्य पर चिदाकाश में (मकर तार) सूक्ष्म तन्तु, जो आत्मा और ब्रह्म से लगा हुआ है, जो योग के अनुभव साक्षात्कार होने पर प्रकट दीखता है (अन्त) समाप्ति, प्राप्ति, पूर्णता।
भाष्य
योग के अन्तर अनुभव ब्रह्म प्रभा के प्राप्त हो जाने पर विशेष स्थान से एक प्रतिभा अन्दर प्रकट होती है। जिससे मकर तार प्रत्यक्ष हो जाता है। उसी तार के आधार पर सन्त अपने चिदाकाश के मार्ग पर चलता है। जब तक उस प्रकाशमय भूमि की प्राप्ति न हो जाय, तब तक उस मकर तार को अन्तर्दर्शी सन्त न छोडे। ब्रह्मप्रभा के आकर्षण में आत्मा की सारी शक्ति खिंच जाती है। इसलिए आत्मप्रकाश प्राप्त करके चिदाकाश में परब्रह्मप्राप्ति के लिए योगी अन्तर्गमन करें, क्योंकि आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् सहज शून्य पार चिदाकाश का मण्डल आगे है, जो योगियों का परम धाम और प्रकाशमय भूमि है। उसी की प्राप्ति से सच्चिदानन्द परम सुख की प्राप्ति होती है, जिससे जीव आवागमन, भवबन्धन के दुःख से छूट कर अमृत परमानन्द को प्राप्त करता है। यही जीवन का लक्ष्य, परम प्रभु की प्राप्ति एवं परम कृतकृत्यता है।
6 सुक्ष्म शरीर स्थूल से, पृथक करन की युक्ति। कारण फिर पीरथक करे, सन्त सरल गति मुक्ति।
शब्दार्थ
(सूक्ष्म शरीर) अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रिय (स्थूल शरीर) जड़ शरीर (कारण शरीर) बद्धात्मा और प्रकृति का सम्बन्ध (पार्थक) अलग (सरल गति) सहज योग सुरति की स्वाभाविक स्थिरता (मुक्ति) प्रकृति संबंध से निवृत्ति।
Vihangam
भाष्य
आत्मा की चेतना से युक्त होकर प्राण, मन एवं इन्द्रियों की क्रिया होती है। जब चेतना अन्तर्मुख हो कर अपने लक्ष्य की ओर जाती है, तब सब स्थान और मण्डलों को पार करती हुई सद्गुरु-निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जाती है। सब शरीरों की भूमि अलग-अलग है। योग साधन में क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म तथा विशेष प्रकाशमय स्थान पर कारण शरीर का त्याग हो जाता है। सूक्ष्म शरीर को स्थूल से अलग करने की सद्गुरु युक्ति है, जिसके द्वारा पृथक् कर फिर योगी कारण शरीर का त्याग करता है। इसी प्रकार क्रमशः शरीरों का त्याग करके योगी अपनी शुद्ध भूमि पर पहुँच जाता है। सन्तों के सहज मार्ग से इन शरीरों के त्याग करने पर जीवात्मा को प्रकृति के बन्धनों से मुक्ति हो जाती है। इस दोहे में सद्गुरु विधान-नियम, आदेश द्वारा प्राकृतिक शरीरों को त्याग करके अपने शुद्ध स्वरूप में आने का उपदेश किया गया है। आत्मा की शुद्ध अवस्था- हंस अवस्था, छठी देह है।
7 पर शरीर परवेश का, संयम योग विधान। जीते मरता जो जना, भक्ति परम विज्ञान ।
शब्दार्थ
(शरीर पर) दूसरे का देह (परवेष) पत्थर, गमन (सयम) साधन, निरोध (योग विधान) योगकला (भक्ति) चेतन विकास (परम विज्ञान) आत्मिक आवेग का उत्कर्ष)
भाष्य
प्राचीन काल में परशरीर-प्रवेश की विद्या थी और इसके द्वारा आवश्यकतानुसार
योगीजन दूसरे की देह में प्रवेश कर अपना कार्य सिद्ध करते थे। विभूति और योग बल दोनों प्रकारों से परशरीर प्रवेश होता है। इस दोहे में जिस परशरीर प्रवेश का उल्लेख है, वह विहंगम योग द्वारा ही आत्मिक चेष्टा के व्यवहार से योगी दूसरे के शरीर में प्रवेश करता है। सहज योगी विहंगम योग के संयम-विधान से जीते हुए अपने शरीर से निकल कर दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जीवन धारण करता है। इसलिए वह जीते हुए ही अपने शरीर का त्याग कर देने से मृत्यु को प्राप्त होता है। यह विहंगम योगरूपी भक्ति का परम विज्ञान अर्थात् आन्तरिक रहस्य है, जिसके द्वारा योगी का पर शरीर में प्रवेश होता है। विहंगम योगी को दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति स्वाभाविक दशा में प्राप्त होती है, जिसको भौतिक योगी बहुत परिश्रम करके इस विभूति कला को जान कर सिद्ध करता है। अतएव विहंगम योग का आनुभविक योगी अपनी चेतन शक्ति के प्रभाव से सहज प्रदेश के परमाणु मण्डल का ज्ञान रखने से परशरीर में सहज रूप से प्रवेश करता है। यही विहंगम योग का प्राकृतिक महत्त्व है। विहंगम योगी की प्रकृतिपार अनुभव-चेतन-दृष्टि होने से प्रकृति की सारी शक्तियाँ स्वाभाविक रूप से उसके अनुकूल रहती हैं और वह प्रकृति का विजेता ब्रह्माधार पर आत्मिक शुद्ध चेष्टा से प्रकृति मण्डल में महान् कार्यों का सम्पादन करता है।
8 इंगला पिघला सुष्मना, योग युक्ति सम कीन। नाक पृष्ट मैं अरुहम्, स्वर व धाम सुख लीन।
शब्दार्थ
(इंगला) चन्द्र नाड़ी (पिंगला) सूर्य नाड़ी (सुष्मना) शरीर की सबसे सूक्ष्म नाड़ी जो हृदय प्रदेश से निकल कर ब्रह्माण्ड होकर अपने प्रदेश को गयी है (योग युक्ति) योग का ढंग (सम) बराबर, स्थिर (नाक पृष्ठ) आकाश का ऊपरी भाग (आरुहम्) चढ़ जाऊँ अर्थात् चढ़कर (स्वर धाम) शब्द निवास (सुख) परमानन्द (लीन) तन्मय, तदाकार।
भाष्य
योग की युक्ति से इंगला, पिंगला और सुष्मना की गति को स्थिर करके मध्यवर्ती आकाश के ऊपरी स्थान पर चढ़ करके शब्द आनन्द को प्राप्त कर उसके स्वरूप में तन्मय हो जावें। इस पद में अध्यात्म रहस्य की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इस विषय को संकेत द्वारा वेद, उपनिषदों में उपदेश किया है। वेद की आध्यात्मिक ऋचाओं में सब जगह 'नाकस्य पृष्ठे ऊर्ध्व' कहकर ब्रह्मविद्या के साधन का संकेत किया गया है। स्पष्ट रूप से चार वेदों या उपनिषदों में कहीं भी आध्यात्मिक रहस्य का वर्णन नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मविद्या के अनुभव-साधन का ज्ञान गुरुमुखी है। इस गोपनीय ब्रह्मतत्त्व का उपदेश सद्गुरु जन अपने अनन्य शरण अधिकारी की ताईं ही करते हैं। 'नाकः' शब्द निघण्टु का है, जिसे आकाश कहते हैं। स्वर,शब्द, काशा एवं माउ ये वैदिक शंख निघंटु के पर्यायवाची शब्द हैं। पृष्ठ, पृष्ठ, ऊपरी भाग को कहते हैं। इन वैदिक शब्दों का प्रयोग ग्रंथकार ने वैदिक ब्रह्मविद्या के रहस्य का प्रस्फुटन किया है और इसी कारण इस ग्रंथ का नाम आध्यात्मिक तत्वों के प्रकाश करने से 'स्वर्वेद' रखा गया है।
9 मन व प्राण एक साथ में, राखो अन्तर भेद। मन व पवन पृथक रहे, सुरति अर्ध मुख खेद।
शब्दार्थ
(मन प्राण) मन, पवन (अंतर भेद) अंतर्युक्ति (अर्द्धमुख) तरल प्रवाह (खेद) मलीनता, क्लेश।
भाष्य
योग के अन्तर-भेद-साधन की युक्ति से मन और प्राण को एक साथ रखें।
प्राण-मन के पृथक् रहने से सुरति नीचे मुख हो जाती है, जिससे उसमें शिथिलता आ जाने पर बाह्य प्रवाह का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।
10 दिव मण्डल के गम्य में, टलो न पल भर धाम से, नाका पार निवास। यह रहस्य अभ्यास ।
शब्दार्थ
(दिव मंडल) प्रकाशमय अंतराकाश (गम्य) गतिशील व्यावहारिक, युक्ति (नाका पार) प्रकाशमय द्वार के ऊपर (धाम) सद्गुरु धाम, चेतन मंडल (रहस्य अभ्यास) भेदिक अनुभव युक्त साधन।
भाष्य
योगी अपनी आत्माभूमि से गमन कर रहस्य रंध्र के पार चिदाकाश में स्थित है। उस स्थान से एक क्षण भी नीचे नहीं है। इस रहस्य भेद साधन को ही अभ्यास कहते हैं। गीत
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