तृतीय अध्याय पेज नंबर 20 मन व पवन को पलटि कर, सीधा कमल अनाम। स्वःमंडल अनुभव करौं, काकुत् चेत अनाम।

1 मन व पवन को पलटि कर, सीधा कमल अनाम। स्वःमंडल अनुभव करौं, काकुत् चेत अनाम।

शब्दार्थ

 (पलति कर) ऊर्ध्वमुख कर (सीधा) सोझ, अकेला, असंग (कमल अनाम) रहस्यमय नौवा कमल ( मंडल) चेतन समाधि मंडल (अनुभव) प्रत्यक्ष प्राप्त हुआ, सज्ञान की प्राप्ति, साक्षात्कार (काकुत) शब्द (चेतन) चेतन (अनाम) प्राकृतिक नाम अलौकिक, अनिर्वाच्य तत्व, परम अक्षर सारशब्द।


भाष्य

 मन और पवन की अर्द्ध गति को उलट कर उसे नौंवा कमल में सीधा शान्त करके महाशून्य पार चिदाकाश में चेतन परम अक्षर, सारशब्द का अनुभव करें। मन, पवन एवं अक्षर पार चिदाकाश, स्वःमण्डल है। योग की सर्वोच्च भूमि को स्वःमण्डल कहते हैं, जहाँ चेतन शब्द का योगीजन प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। इस दोहें में योग की अन्तिम भूमि का वर्णन किया गया है। काकुत, शब्द, स्वर ये पर्यायवाची शब्द हैं।

2 कमल फूल गर्जत गगन, अमीय वृष्टि घनघोर। अन्तर खेल रहस्य का, नाचत चेतन मोर।

शब्दार्थ

 (कमल) तारा चक्र (फूल) नवोदित (गर्जन गगन) गगन ध्वनि (अमीय) अमृत (घन) बादल (घोर) उग्र, उग्र (खेल) क्रीड़ा (रहस्य) भेद, मर्मयुक्ति (चेतन मोर) शुद्ध आत्मा।


Yog


भाष्य

 भेदिक कमल के प्रफुल्लित होने पर गगन में ध्वनि प्रकट होती है, एवं शब्दामृत मेघ प्रबल वेग से अमृत वर्षा करता है। इस अन्तर रहस्यमय खेल को देखकर चेतन आत्मा नाचने लगती है। योगाभ्यास में शब्द और उसकी धार को अमृत वर्षा की उपमा देकर अन्तर साधन, भेद रहस्य का वर्णन इस दोहे में किया गया है।

3 कुण्डलिनी स्थिर रहे, डंड ऊपरी भाग। फन सो सुषमन रन्ध को, बन्द किये रह लाग।

शब्दार्थ

 (कुंडलिनी) चेतन प्रवाह को रोक वाली शक्ति, जिससे प्रकृति चक्र में आत्मा की सघन हुई शक्ति निवास करती है (दंड) मेरुदंड (ऊपरी भाग) ऊपरी स्थान (सुषमां रन्ध्र) दशम द्वार (बंद) रोक (लाग) का संबंध, लगा हुआ।

भाष्य

 मेरुदण्ड के ऊपरी भाग में कुण्डलिनी स्थिर ह ोकर दशम द्वार के रन्ध्र को अपने फन से लगा कर बन्द किये रहती है, जिससे सुष्मना का रन्ध्र नहीं खुलता।

4 योग युक्ति से सर्पिणी, सुषमन मुख टल जाय। ऊर्ध्व द्वार नभ का खुले, सुषमन तार समाय ।

शब्दार्थ

 (सर्पिणी) कुण्डलिनी (सुष्मान) बीच की नाड़ी जो कपाल के छिद्र से ली गई है (तल) हट, दूर (ऊर्ध्व द्वार) ऊपर का द्वार (नाभ) आकाश (तार) मकर तार (समय) प्रवेश।



भाष्य

 गुरु की योग-युक्ति से कुण्डलिनी सुष्मना के मुख से हट जाती है, जिससे आकाश का द्वार खुल जाता है और मकर तार का सम्बन्ध होकर अन्तर प्रवेश होता है।

5 मकर तार सुषमन लगी, उलटे गगन दुआर। दिव मण्डल झूलन परे, धारक सन्धि अधार ।

शब्दार्थ

 (उल्टा) ऊपर (गगन द्वार) गगन का द्वार (दिव मंडल) दिव लोक (झूलन) हिलना, कम्प (धारक) धारण करने वाला (सन्धि) योग, अक्षर और परब्रह्म का सम्बन्ध माधार) सहाला, स्तम्भ अवलम्बन।

भाष्य

 नीचे आधार छोड़ कर गगन के प्रकाशमय द्वार में मकर तार से सुष्मना लगी हुई है। इसके द्वारा द्वार के सन्धि-आधार से अक्षर मण्डल में शब्दाधार से अन्तर झूलन होने लगता है। शब्द आधार पर ही झूलन होता है और अक्षर के आधार से कम्प होता है। भेदिक आनुभविक सन्त इसको समझेंगे। कुण्डलिनी के टल जाने पर और ऊपरी प्रकाश प्राप्त होने पर हिलना-डुलना बन्द हो जाता है। यह योग रहस्य अनुभव विवेक में प्राप्त होता है, जिसे अन्तर्दर्शी अनुभवी सन्त जानते हैं।

6 अनुभव सहज उत्थान में, धर अधरा के पार। आसन अगम सुवास है, स्थिर अचल विचार ।

शब्दार्थ

(अनुभव) आत्म-उत्थान (सहज उत्तेजना) चेतन विकास, विहंगम योग की प्रथम भूमि (स्थिर) शांत (अचल) दृढ़ (विचार) ज्ञान (धर) पिंड (अधर) ब्रह्माण्ड।


भाष्य

 प्रकृति से असंग चेतन चेतन आत्म-विकास क्षर, अक्षर पर अगम आसन पर वास करने पर दृढ़ और निश्चल ज्ञान की प्राप्ति होती है।

7 ज्ञानशिखा परदिप्त में, दग्ध दंस खुल वाट। चेतन शुद्ध प्रताप में, मिले महानद घाट ।

शब्दार्थ

 (ज्ञान शिखा) चेतन ज्योति, ब्रह्म प्रभा (दग्घ) क्षय, नाश (दंस) कर्म (बाट) मार्ग (महानाद) प्रकृति पार, चेतन आनंद का सागर (घाट) आकाश का स्थान (परदिप्त) प्रकाश, उदय।

भाष्य

 चेतन ज्योति, ब्रह्म-प्रभा के प्रकट हो जाने पर आत्मा के समस्त शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाने पर बन्द चेतन मार्ग मिल जाता है एवं आत्मा की शुद्ध चेतन शक्ति के प्रभाव से अमृत परमानन्द को प्राप्त करने की भूमि प्राप्त हो जाती है। वैदिक कोष निघण्टु में 'दंस' कर्म को कहते है। दंस वैदिक शब्द है।

8 लीला अद्भुत अगम है, अनुभव गमन अगाध। साहस बल सद्गुरु दया, महा प्रलय कोइ साध ।

शब्दार्थ

 (लीला) खेल (अद्भुत) अलौकिक, आश्चर्यमय (प्रकृति पार चेतन, आत्म-विकास (अगाध) अथाह, असीम (साध) साधन लगना (साहस बल) आत्मिक उत्थान का पराक्रम, बल।



भाष्य

 विहंगम योग का अनुभव योग समाधि की लीला आश्चर्यमय, अनुभव गम्य, अपार है। अपने परम पुरुषार्थ के प्रताप और सद्‌गुरु की दया से कोई मृत्युंजय अमर योगी महाप्रलय तक इस विहंगम योग समाधि में रत रहते हैं।

9 सुक्ष्म सोत ब्रह्माण्ड में, अर्ध महानद धार। मन मनसा भ्रम त्याग से, अन्तर प्रकट अधार।

शब्दार्थ

 (सूक्ष्म) सूक्ष्म, झीना प्रवाह (ब्रह्माण्ड) कपाल, सिर (अर्थ) नीचे (महाद) आनंद सागर परब्रह्म (धार) प्रवाह (प्रकट) ब्रह्माण्ड) अज्ञान (आधार) आदि स्थान, अवलंब।

भाष्य

अनन्त, शक्तिशाली, आनन्द सागर शब्द सत्पुरुष की धार ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म स्रोत होकर नीचे गिरती है। उस अन्तर प्रकट धार के आदि स्थान को मन और उसके समस्त अभिमान, वासना और अज्ञान का त्याग कर प्राप्त करें।

10 तार टूट नहिं भजन में, निशिदिन चाह चढ़न्त। तुम से इन सुख सिन्धु से, तारक धारक अन्त।

शब्दार्थ

(चाह) इच्छा (चाह) आनंद की क्रिया (सुख सिन्धु) आनंद का सागर, परम प्रभु (तारक) तारने वाला, तार का आधार (धारक) धारण करने वाला (अंत) पूर्ण, अंत (तार) लगातार।

भाष्य

 एकतार लगा हुआ प्रभु का भजन होता है। भजन में निशिदिन गुरु प्रदेश में ऊपर चढ़ने की क्रिया सदैव लगी रहती है, जब तक कि आत्मा और आनन्द सागर प्रभु से तारने वाली धारण शक्ति का सम्बन्ध होकर पूर्णता न हो जाय। अर्थात् भजन तभी पूर्ण होता है, जब अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है। पुरुषार्थी योगाभ्यासी लगातार अभ्यास की गति को बढ़ाने की चेष्टा रखता है, तभी वह लक्ष्य को पूर्ण करता है। भजन एक तार निरन्तर होता है, उसमें विच्छिन्नता नहीं होती। यही भजन का स्वरूप है।

11 महाशून्य के अन्त में, शर्म सेन्धु मुख ज्ञान। शीश निरन्तर दीजिये, अन्तर अनुभव ध्यान।

शब्दार्थ

(महाशून्य) सहज शून्य, महाकाश (शर्म-सेन्धु) सुख का सागर (मुख) द्वार (ज्ञान) बोध (शीश) आत्म समर्पण (अन्तर) अक्षर पार (अनुभव ध्यान) चेतन, चेतन क्रिया।

भाष्य

 परमाणु मण्डल को महाशून्य कहते हैं। वैदिक परिभाषा में इसी को दहराकाश कहा गया है। विहंगम योग अनुभव तत्त्वज्ञानी इस रहस्य को जानते हैं। उस अन्तराकाश के अन्त में सुखसागर का मुख है। उसका ज्ञान करके अपने को उसमें सदैव के लिए समर्पण कर दीजिए, तब अन्तर का अनुभव और प्रभु का ध्यान होगा। आत्मसमर्पण करने वाला प्रभु भक्त ही योग-समाधि के महान् सुख को प्राप्त करता है। जो आत्मसमर्पण नहीं कर सकता एवं जिसे उस सुखसागर के मुख का ज्ञान नहीं है, वह परम सुख परमानन्द को कैसे प्राप्त कर सकता है? प्रकृति मण्डल में मन के आधार पर जो आत्मसमर्पण होता है, वह मन का रंजन और मन की लीला है। ब्रह्मविद्या विहंगम योग के प्रकाश में दहराकाश के भेद तत्त्वज्ञान से आत्मसमर्पण होता है। योग की विशिष्ट प्रतिभा के प्राप्त होने पर ही योगी अन्तराकाश के भीतर अपने शीश कोनिछावर करता है। जो अपने को प्रभु में सर्वस्व निछावर एक अनन्य भाव से समर्पित होता है, उसी को प्रभु वरण कर अपने ज्ञान का स्रोत उसमें प्रवाहित कर कृतकृत्य करते हैं। आत्म समर्पित भक्त ही प्रभु को पाता है। यही भक्ति का शुद्ध स्वरूप है। भक्ति आत्मा से होती है, कर्म, मन, वाणी के व्यवहार और इन्द्रियों के साधन से नहीं। प्रभु, मन, बुद्धि वाणी और विचार स परे हैं। इसलिए प्रकृति मन, वाणी के अवराधन और साधन से उसकी प्राप्ति नहीं होती और न आत्मसमर्पण होता है। अतएव अध्यात्म विद्या अभिलाषी अधिकारियों को आवश्यक है कि सद्‌गुरु के योग विधान द्वारा आत्मसमर्पण कर प्रभु भक्ति के परम आनन्द को प्राप्त कर जीवन को कृतकृत्य करें। यही जीवन की सर्वोत्कृष्ट सफलता है।

12 सुख सिंधु का मुख कहां, पंच तीर्थ कहां कौन स्वरूप अनाम ।

शब्दार्थ

 (सुख सिन्धु) आनंद का समुद्र (मुख) द्वार (पंचतीर्थ) योग की पांचवी भूमि (सदमय) गृह (स्वरूप) चित्र, अनुभूति (अनाम) अवच्य।

भाष्य

 प्रश्न करके अध्यात्म तत्त्वों का उपदेश देने का विधान वेदों में पाया जाता है। अथर्ववेद में 'केन सूक्त' है, जिसमें स्कम्भ स्वरूप विषयक प्रश्न किये गये हैं। इस पद में प्रश्न करके उदात्त ब्रह्मतत्त्व का संकेत किया गया है। सुखसागर का मुख कहाँ है एवं पंचतीर्थ तीर्थों का स्थान कहाँ पर है तथा नित्य आनन्दमय गृह कहाँ है एवं अव्यक्त नाम कौन है? प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है-

1. अक्षर पार चेतन धार जहाँ से प्रकट हो नीचे आत्मा को प्राप्त होती है। वही चेतन धार का उद्गम स्थान सुखसागर का मुख है।

2. योग में इन्द्रिय, मन, प्राण, सुरति और आत्मा इनके पवित्र होने के पाँच स्थानों को 'तीर्थ' कहा गया है। योगी की इन पाँच भूमियों में स्नान कर योगी पवित्र होता है। इसलिए इन्हें पंचतीर्थ कहते हैं। इन पंचतीर्थों के स्थान क्रमशः योग भूमि में आचार्य गण बतलाते हैं, जिसे अध्यात्म तत्त्वज्ञानी अनुभव साधक जानते हैं।






3. सद्द्म गृह को कहते हैं। सद्द्म शब्द वैदिक निघण्टु का है। चेतन परब्रह्मप्राप्ति मण्डल समाधि धाम को नित्य गृह कहते हैं। आत्मा के एकदेशी होने से उसका साधन और प्राप्ति भी एकदेशी होती है, परन्तु ब्रह्मतत्व का अनुभव सर्वत्र परिपूर्ण होता है। साक्षात्कार एकदेशी और अनुभव सर्वदेशी व्यापक होता है। स्थूल से सूक्ष्म होने के कारण स्थान-भेद से भूमियाँ भी सूक्ष्म रूप से उत्तरोत्तर प्राप्त होती जाती हैं। परब्रह्म की भूमि नहीं होती। वह तो सर्वव्यापक वस्तु है, परन्तु आत्मा का प्रकृति आवरण हटाने के लिए साधन योग द्वारा आत्मा में निहित परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सूक्ष्म होना पड़ता है और उस सूक्ष्मता की गहराई स्थान-भेद से उत्तरोत्तर सूक्ष्महोती जाती है। इसलिए आत्मिकशक्ति केन्द्रित करने के लिए क्रमशः पाँच केन्द्र अर्थात् पाँच भूमियों का निरूपण किया गया है। चेतन परमानन्द परम प्रभु ही नित्य गृह हैं, जिसमें समस्त चराचर प्राणी आश्रय पाकर अपने कर्मों का उपभोग करते हैं। इस चेतन, नित्य सत्ता का कभी नाश नहीं होता। परब्रह्म नित्य होने से उसकी प्राप्ति भी नित्य है। इसलिए उस चेतन गृह परमानन्द समाधि मण्डल साकेत को 'नित्यसद्द्म' कहा गया है।

4. उस परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि वह मन, बुद्धि और वाणी का विषय नहीं है। इसलिए उस ब्रह्म सत्ता के स्वरूप का लक्षण वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि वह अवाच्य एवं अकथनीय तत्त्व है, इसलिए कह, अकह एवं अगोचर होने से उस स्वरूप को 'अनाम' कहते हैं। जिस पदार्थ को आत्मा अनुभव करती है उस चेतन अनुभव को जड़-वाणी कैसे वर्णन कर सकती है? संसार के भौतिक सुखों के स्वरूप-वर्णन नहीं किये जा सकते हैं। उनका अनुभव होने पर ही उनकी स्पष्ट यथार्थता प्राप्त हो सकती है तब प्रकृति पार अनुभव गम्य आनन्द का वर्णन कैसे हो सकता है? इसलिए इसकी पूर्ण मर्मज्ञता रसास्वादन करने पर ही विदित हो सकेगी। यह अनुभवगम्य, परम सुख का वर्णन वाणी का विषय नहीं है। चेतन, चेतन का आनन्द है, योग है, इसलिए इस पद में परम पुरुष के स्वरूप का वर्णन करने में असमर्थता प्रकट कर उसे 'अनाम' घोषित् किया गया है।

13 सूख पदारथ अन्य नहिं, नहीं प्राप्त बढ़ कोय। अन्य ऊच्च कोइ पद नहीं, नाम बड़ा नहिं होय।

शब्दार्थ

 (सुख) सुख (पदारथ) सत्ता, वस्तु (प्राप्य) प्राप्त करने योग्य (अच्छा) बड़ा, श्रेष्ठ, (नाम) सत्पुरुष, परम अक्षर।

भाष्य

 सच्चिदानन्द परमपुरुष से भिन्न सुख देने वाला दूसरा पदार्थ नहीं हैं और इससे भिन्न दूसरा कोई प्राप्त करने योग्य श्रेष्ठ पदार्थ भी नहीं है। इस ब्रह्मानन्द प्राप्ति, जीवन्मुक्ति अवस्था प्राप्ति से भिन्न दूसरा कोई अवस्था या पद नहीं है। सारशब्द परम पुरुष से श्रेष्ठ दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। परब्रह्म सत्पुरुष के द्वारा ही जीव को सुख-शन्ति की प्राप्ति होती है। यही जीवन का सर्वश्रेष्ठ कार्य है, जो इस मानव जीवन में ही प्राप्त हो सकता है। अतएव पुरुषार्थी आत्मायें इसी शरीर से परम पुरुष की प्राप्ति कर सर्वोच्च जीवन्मुक्ति पद को प्राप्त कर सर्व ओर से पूर्ण कृतकृत्य हो जाती है। यही जीवन की सर्वश्रेष्ठ सार्थकता है।

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