तृतीय अध्याय पेज नंबर 21 काम बृहत नहिं याहि से, भिन्न तुम्हार न कोय। हे अज्ञानी जीव जड़, क्यों न भजन कर सोय।

1 काम बृहत नहिं याहि से, भिन्न तुम्हार न कोय। हे अज्ञानी जीव जड़, क्यों न भजन कर सोय।

शब्दार्थ

 (काम) कर्तव्य (बृहत्) सर्वोत्तम (भिन्न) अतिरिक्त, भिन्न (अग्नि जीव) मोह-बन्धनसे कर्ता, कृतव्यविमुख जीव (भजन) प्रभु-प्राप्ति करने का साधन।






भाष्य

 मनुष्य जीवन में ईश्वर-प्राप्ति के अतिरिक्त दूसरा मुख्य उद्देश्य नहीं है। सबसे बड़ा काम प्रभु की प्राप्ति है. इससे भिन्न दूसरा कर्तव्य श्रेष्ठ नहीं है। हे अज्ञानी विवेकहीन जीवा क्यों नहीं उस परम प्रभु का भजन करता है? संसार में सबसे श्रेष्ठ महान कर्त्तव्य प्रभु का भजन है। इसी के द्वारा जीवन के समस्त फल प्राप्त होते हैं। प्रभु-भक्ति ही जीवन का सार है। इससे बढ़ कर दूसरा जीवन का मौलिक उद्देश्य नहीं है। अतः, हम सर्व काम छोड़कर प्रभु की उपासना करें, क्योंकि यही जीवन की परमकृतकृत्यता है।

2 अब तुम क्या संसार में, चाहो यासे भिन्न । बन स्वभाव अज्ञान में, मन वच काया लीन।

शब्दार्थ (भिन्न) दूसरा (अज्ञान) भ्रम.लीन) तन्मय, तदूप।

भाष्य

 प्रभु प्राप्ति के अतिरिक्त अब तुम इस असार-संसार में क्या चाहते हो? अज्ञान-मोह के कारण प्रकृति के बन्धन में पड़कर शरीर, मन एवं वाणी के विषय में लगे हुए हो। आत्त्मा अज्ञान से अपने स्वरूप को भूलकर प्राकृतिक देह-संघात का ममत्व कर जड़ विषयों के भोग में लीन हो गई है, एवं जड़त्व अभिमान से युक्त होकर शरीर, मन एवं वाणी के विषयों के तद्रूप होकर चलती है। अपने स्वरूप का उसे ज्ञान नहीं है। वह माया के जड़ स्वरूप को ही अपना स्वरूप समझ रही है। इस मोह-अज्ञान निशा में अनेक जन्मों से भटकती हुई संसार-चक्र के महान् कष्ट को भोग रही है। इस संसृति-चक्र से छूटने का उपाय नहीं करती। प्रभु भक्ति से ही संसार का आवागमन, त्रिताप दुःख छूटता है। इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं है।

3 महत् मनीषी जानिये, मायिक जीत स्वभाव । चेतन धर्म स्वभाव में, जग का होय अभाव।

शब्दार्थ

 (महत मनीषी) महान् मेधावी, तत्त्वज्ञानी (मायिक) प्राकृतिक (स्वभाव) त्रिगुण (जीत) विजय (चेतन धर्म) आत्मा का स्वाभाविक धर्म (अभाव) अदर्शन, त्याग विच्छेद ।

भाष्य

 महान मेधावी अनुभव तत्त्वदर्शन को उसी को स्वीकार करें जिसने प्रकृति के त्रिगुण स्वभावों को प्राप्त करके अपने शुद्ध चेतन धर्म की प्राप्ति की एवं जगत् का तिरोभाव कर दिया है।

4 अर्ध मूख झाँकी भई, बन गय अज्ञ स्वभाव। भजन निरन्तर जानिये, उध मुख सहज स्वभाव।

शब्दार्थ

 (अर्थ) नीचे (मुख) द्वार (झॉकी) देखना, दृष्टि (अज्ञ) ज्ञानरहित (उधमुख) ऊर्ध्वमुख, आत्मज्ञान, ऊध्वं प्रवाहै।

भाष्य

 मुक्ति से अर्ध द्वार को देखते-देखते यह जीव अज्ञान से जड़ स्वभाव को प्राप्त 73 कर लिया। आत्मा की अर्द्धदृष्टि ही जीव के पतन का कारण है। इसलिए आत्मिक चेतना ऊर्ध्व मुख करके अपने सहज शुद्ध स्वरूप से महाप्रभु का भजन कीजिए। आत्मा को मुक्ति से आने का संस्कार उसके अन्दर रहता है। जितना कर्मभोग जीव करता है उन सभी कर्मों का संस्कार चित्त के अन्दर संचित हो जाता है। जब योगाभ्यास में चित्त के संस्कार प्रकट होने लगते हैं तब सभी पुरातन कर्म आत्मा के सामने प्रगट होने लगते हैं। इसी प्रकार जीवन्मुक्त योगी को अपने अन्दर मुक्ति से सभी धर्म और व्यवहार स्पष्ट सामने प्रकट हो जाते हैं। आत्मा की शुद्ध अवस्था प्राप्त हो जाने पर समस्त जड़-चेतन पदार्थों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसलिए जीवन्मुक्त योगी को मुक्ति का ज्ञान सदैव स्मरण रहता है। उसी भाव को इस पद में दर्शाया गया है। जिन लोगों को मुक्ति से आवृत्ति जानने के लिए तर्क. बुद्धि या शास्त्र प्रमाणों की आवश्यकता होती है, वे योगी, ऋषि नहीं हैं, क्योंकि जीवन्मुक्त योगी में स्पष्टतः मुक्तितत्व का परिचय रहता है और जीवन अर्द्धमुख झाँकी करने से ही जगत् में प्रकट हो जाता है। यह अनुभूति योगियों को सदैव प्रत्यक्ष रहती है। इसलिए योग द्वारा आत्मिक चेतना को ऊर्ध्वमुख करके निरन्तर-प्रभु का भजन करना चाहिए। यही इस दोहे का अभिप्राय है।

5 कथन त्याग वैराग की, बिना ज्ञान किस काम। शोभा पाव न पति बिना, महिला साज निकाम ।

शब्दार्थ

 (कथन) कथन (त्याग) संसार-संबन्ध से आवश्यक होना (वैराग्य) विषय-तृष्णा से उपयोगी होना (ज्ञान) अनुभव-चेतन-भेद का विवेक (महिला) समाज, रमणी (साज) अलंकरण, श्रृंगार (निकम) अभाव।



भाष्य

 सद्गुरु-अनुभव-भेद-साधन से युक्त वैराग्य और त्याग की महिमा है। एकमात्र बाहरी दुनिया का संबंध छोड़ें कर-विषय-तृष्णा से वंचित हो जाने से ही प्रभु की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए परोक्ष-अपरोक्ष तत्त्वज्ञान और अनुभव योग भेद साधन की आवश्यकता है। वाचक ज्ञान और बाह्य जगत के त्याग से ही अन्तर्मुख जगत में प्रवेश नहीं हो सकता, बल्कि इसके लिए सद्गुरु के साधन अनुभव तत्त्वज्ञान की आवश्यकता है। अनुभव तत्त्वज्ञान से अप्राप्त सन्यास और वैराग्य उस प्रकार का है, जिस प्रकार सौभाग्यवती स्त्री का धारण पति के बिना शोभा नहीं मिलता, बल्कि अव्यय सिद्ध होता है। इसलिए सद्गुरु अनुभव साधन तत्त्व की प्राप्ति से ही भजन करने से वैराग्य और त्याग सफल होता है। बाह्य प्रपंच माया को मोक्ष लेकर सन्यास लेकर वन में जाने से प्रभु की प्राप्ति नहीं होती है, बल्कि आत्म-उत्थान के लिए ब्रह्मविद्या योगाभ्यास द्वारा प्रकृति-जगत से असंग हो विकास चेतना द्वारा जगत का त्याग और विषयों से वैराग्य होना प्रभु की प्राप्ति होती है। ज्ञानहीन त्याग तथा वैराग्य मन के अन्तर्निहित होता हैके विचार और मनन से मनसा का त्याग एवं आत्म-साक्षात्कार प्रभुप्राप्ति नहीं होती। इसके लिए योग ही एकमात्र साधन है, जिससे आत्मा को आत्म साक्षात्कार प्रभाष्टिकर शुद्ध स्वरूप में आने लगती है, और क्रमशः आत्मिक उत्थान से कर चेतना इन्द्रियाप्तिारका साधन होने लगता है। अतएव चेतन ब्रह्मविद्या के अनुभव-साधन द्वारा चखेाका प्राप्तिकी प्राप्तिन करना चाहिए, बाहरी त्याग और मन्मथ माया के प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए।

6 बिना ज्ञान वैराग के, प्रभु से मिलन न होय। जग बन्धन छूटे नहीं, जनम मरण दुख होय।

शब्दार्थ

 (ज्ञान) वस्तु का यथार्थ बोध (वैराग) संसार के राग से अप्रिति, विषय तृष्णा से अनुपयोगी होना।

भाष्य

 ज्ञान-वैराग्य के पूर्ण होने पर भक्ति द्वारा प्रभु की प्राप्ति होती है। बिना ज्ञान-वैराग्य के संसार-बन्धन की निवृत्ति नहीं होती, इसलिए जन्म-मरण, दुःख प्राप्त होता है। संसार की विषय निवृत्ति ज्ञान-वैराग्य के द्वारा होती है। इसलिए अध्यात्म पिपासुओं को ज्ञान-वैराग्य के द्वारा अध्यात्म पथ पर उन्नतिशील होना चाहिये।

7 मन माया मरती नहीं, नहीं वासना नाश। यह शरीर मरि-मरि गया, कर माया मन नाश।

शब्दार्थ

 (मन) संसार-विषय को प्राप्त करने वाला कारण (माया) प्रकृति (वासना) उपभोग की हुई वस्तु का स्मरण, राग (नाश) अभाव, विनाश (शरीर) जड़, स्थूल, देह।




भाष्य

 संसार के दुःख का कारण आत्मा और मन का सम्बन्ध है। मन द्वारा ही आत्मा को दुःख-सुख की प्रतीति होती है। दुःख और सुख ये दोनों प्रकृति-जगत् में मन के धर्म हैं। सारा संसार मन के आधार पर विषय-प्रपञ्च और उसके प्रवाह में बह रहा है, इन्द्रियों में विषय-भोग की आसक्ति और प्रबलता मन के द्वारा होती है। जब आत्मा का मन से सम्बन्ध छूट जाता है, तब संसार-चक्र भी जीव से छूट जाता है। मन के द्वन्द्व, अशान्ति और व्यामोह में सारे प्राणी पड़े हुए हैं। मन से जीव का सम्बन्ध नहीं छूटता इसलिए यह संसार-चक्र के आवागमन का दुःख भी नहीं छूटता। मन के प्रबल बन्धन से जीव दुखी हो त्रिताप के महान् कष्ट को पा रहा है। संसार में जितनी अशान्ति, उपद्रव और कलह हो रहा है, वह सब मन के प्रबल वेग को धारण न करने से हो रहा है। जब मन को योगी जीत लेता है, तब सारे कष्ट, दुःख और विपदायें नष्ट हो जाती हैं। मन का संकल्प एक रूप से जीवन को स्थिर नहीं रखता। मन की तरंग को रोकना समुद्र के चपल तरंगों को रोकने से भी अधिक (दुस्तर) है। मन के चक्र में पड़कर बड़े-बड़े त्यागी, विद्वान् या प्राकृतिक योगी भी संसार के विषय-प्रपञ्च से नहीं बच सके। मन का स्वामी आत्मा मन द्वारा ही संसार के समस्त विषयों के भोग और उसकी रक्षा में सदैव तत्पर है। उसेअपने सुख की परवाह नहीं है, बल्कि मन के विविध विषय-प्रवाह में उसी को सन्तुष्ट और सुखी करने में लगी है। 

जब तक आत्मा मन के सुख को छोड़कर अपने सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न न करेगी, तब तक आत्मा को सच्चे सुख और शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। योग की कला द्वारा जब आत्मा चेतन-प्रभा को प्राप्त करती है. तब मन का स्वभाव छूट जाता है और वह शान्त होकर आत्मा के अनुकूल हो कार्य करने लगता है। आगे उत्तरोत्तर भूमि प्राप्त होने पर जीव से मन का सम्बन्ध छूट जाता है और आत्मा मनस्वी होकर परमानन्द नित्य सुख को प्राप्त करती है। इस पद में बतलाया गया है कि मन रूपी माया तो मरती नहीं। इसलिए संसार भोग की वासना का चित्त से नाश नहीं होता। मन के मरने पर ही संसार की वासना छूट सकती है। जब तक मन है तब तक संसार, भव-बन्धन, आवागमन दुःख की प्राप्ति होती रहेगी। यह शरीर बार-बार मरता है, परन्तु मन के न मरने से यह भव-बन्धन दुःख नहीं छूटता, इसलिए माया की निवृत्ति के लिए मन की निवृत्ति, विनाश होना आवश्यक है। मन रूपी माया के अभाव से ही इस संसार-सागर से जीव तर कर परमानन्द मोक्ष को प्राप्त करेगा, इसलिए सारे बाह्य दृश्य प्रपंच मन के भीतर हैं, अर्थात् मन ही माया है एवं मन में ही माया समाई हुई है। इस मन को ही मारने और जीतने का उपदेश अनुभवी, क्रान्तप्राज्ञ तत्त्वदर्शी सन्तों ने उपदेश किया है। जीव का प्रबल शत्रु मन है, इसलिए सबसे प्रथम मन का निग्रह कर इसके मूल कारण में विलय कर देने के पश्चात् ही आत्मा को वास्तविक सुख-शान्ति की प्राप्ति का मार्ग सुलभ होगा।

8 आशा तृष्णा किमि मरे, मन माया किमि नाश। वेन युक्ति बताइये, कवन मार्ग सत्य भास।

शब्दार्थ

 (आशा) संसार की आशा, भोग-प्राप्ति की अभिलाषा, विश्वसनीय (तृष्णा) रंगना, भोगेच्छा (वेन) मेधावी सर्वदृष्टा (सत्यभास) सत्य का प्रकाश, शतपथ।

भाष्य

 जगत् की आशा, विषय-तृष्णा कैसे मरेगी एवं मन रूपी माया का कैसे विनाश होगा और इसके नाश के लिए कौन-सा मार्ग है? हे वेन ! क्रान्तप्राज्ञ मनीषीजन ! सत्य बतलायें। सत्य उपदेश करें। विहंगम योग के साधन अभ्यास से ही जब आत्मा की ऊर्ध्व गति होने लगती है, तब अक्षर के प्रकाश से मन शान्त होकर अपने मूल कारण तत्त्व में लय हो जाता है। जहाँ से मन का उद्गम हुआ है, उसी स्थान पर पहुँचकर मन शान्त होता है और योगी मनस्वी होता है। वेन, मेधावी, मनीषी एक अर्थ के वाचक, समानार्थक वैदिक शब्द हैं।

9 मन सह गो विषयों थके, चेष्टा बुद्धि अभाव। प्रथम अवस्था योग की, आगे पर परभाव।

शब्दार्थ

(गो) इंद्रियगण (सह) साथ (थके) हास, गतिहीन (चेष्टा) यत्न (अभाव) दर्शन (योग) विहंगम योग (प्रभाव) तेज, प्रताप।



भाष्य

 विहंगम योग की धारणा, प्रथम अवस्था में मन के सहित इन्द्रियाँ थक कर अपने कारण में शान्त हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा, तर्क-वितर्क से रहित हो जाती है। तब आत्मा आगे अपने चिन्मय शुद्ध स्वरूप से परमानन्द का उपभोग कर प्रकृति-बन्धन से छूट जाती है।

10 प्रारब्ध तव साथ है, नामधनी शिर धाम । फिर तुम क्या चिन्ता करो, भजन करो निसकाम।

शब्दार्थ

 (प्रारब्ध) शरीर संबंधी कर्म भोग, जिस कर्म से जीवनमुक्त योगी का शरीर धारण हो रहा है (नामधनी) सर्ववाच्य अवाच्य नाम का धनी, स्वामी, परम अक्षर अर्थात सारशब्द (श्री धाम) सर्वोपरि, सर्वचिंतक, चेतन धाम (निष्काम) प्राकृतिक इच्छा से संबंधित ।

भाष्य

 योगी को परमानन्द प्राप्ति के पश्चात् शरीर का प्रारब्ध-भोग ही रह जाता है, फिर चिन्ता किसकी है, जब समस्त चराचर जगत् का स्वामी सिर पर स्थित है, इसलिए सर्व कामनाओं को छोड़कर महाप्रभु का भजन करना चाहिए। योगी को देह का भोग शेष रहता है, क्योंकि किसी कर्म के अनुकूल ही यह शरीर प्राप्त हुआ है, इसलिए शरीर और शरीरस्थ प्रारब्ध को भोग कर ही योगी मुक्त होता है। संचित और क्रियमाण ये दो कर्म योगी में नहीं होते। संचित का योगाग्नि में क्षय हो जाता है और क्रियमाण कर्म में योगी असंग अर्थात् निर्लेप रहता है। केवल शरीर का प्रारब्ध योगी के साथ रहता है और वह संसार में जल-कमलवत् असंग हो, कुम्हार के चक्र के समान आप ही आत्मिक चेष्टा से सारे देह-संघात की क्रिया को करता रहता है। शुद्ध आत्मिक भूमि से ही योगी इस शरीर संघात की क्रिया को करता है, इसलिए प्रकृति और उसके कर्म उपभोग उसमें नहीं होते। वह असंग होकर समस्त कर्मों का कर्त्ता और उपभोक्ता होता है।

11 मोह शोक चिन्ता भ्रम, करो सर्वथा त्याग। अभय महाप्रभु को भजो, देश काल सब लाग।

शब्दार्थ

 (मोह) अशक्ति (शोक) अकस्मात दुःख (चिंता) भोगप्राप्ति की अभिलाषा का चिंतन (सर्वथा) नितान्त (त्याग) ठीक (अभय) दूसरे के घाट से वंचित, निर्भय (देश) स्थान (काल) समय (लाग) के साथ।

भाष्य

 मोह, शोक, चिन्ता एवं भ्रम को सर्व ओर से त्याग कर, निर्भय होकर, देश-काल की सभी स्थितियों में महाप्रभु का भजन करो, किसी भी कठिनाई या आपत्ति में महाप्रभु की भक्ति नहीं छूटे, यह उत्तम भक्त का आदर्श है। अतएव सब काल, सब देश और सब स्थिति में महाप्रभु की भक्ति होनी चाहिए। यही उत्तम विवेकी भक्त का लक्षण है।

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