तृतीय अध्याय पेज नंबर 22 हीरा श्वाँस अमूल्य है, सर्ब भजन में लाव। व्यर्थ विषय मत खोइये, प्रभु के शरण समाव।
1 हीरा श्वाँस अमूल्य है, सर्ब भजन में लाव। व्यर्थ विषय मत खोइये, प्रभु के शरण समाव।
शब्दार्थ
हीरा, सबसे श्रेष्ठ मुद्रा, नव रत्नों में से एक (श्वास) श्वास, जीवन (विषय) इन्द्रिय भोग (समव) में प्रवेश।
भाष्य
यहाँ पर इस जीवन-श्वाँस को हीरा कहा गया है। जिस श्वाँस रूपी हीरा का
मूल्य नहीं हो सकता। संसार में एक पत्थर को ही हीरा कहा जाता है, जिसका मूल्य होता है, परन्तु अध्यात्म क्षेत्र में इस श्वाँस रूपी हीरे का मूल्य नहीं हो सकता, इसलिए इसे विषय-भोग में मत नष्ट कीजिए। विषय भोग कौड़ी हैं, और अमूल्य श्वाँस हीरा है। इस अमूल्य श्वाँस को देकर विषय उपभोग रूपी कौड़ी न खरीदें, बल्कि इन अमूल्य समस्त श्वाँसा को प्रभु की शरण में लाकर उस के भजन में लगावें। तभी यह अमूल्य श्वाँसा, अमूल्य, परम निधि, प्रभु की प्राप्ति में लग कर अपने मनोरथ को प्राप्त कर सकेगी। इस पद में विषय को व्यर्थ उपभोग करने का निषेध किया गया है। कर्मयोगी सन्त या ऋषिधर्म में रहने वाला जीवन्मुक्त योगी आवश्यकतानुसार संसार-विषय को प्राप्त करके, प्रकृति के यशस्वी धर्म का पालन करता है, व्यर्थ विषय भोग नहीं करता। भौतिक इन्द्रियों का व्यर्थ सुखोपभोग नहीं होना चाहिए। यही इस पद में संकेत किया गया है।
2 जहाँ साच व्यवहार है, करनी साच स्वभाव । वहाँ आप विद्यमान हैं, सत्य सत्य पहँ आव।
शब्दार्थ
(सच) सत्य (व्यवहार) आचरण (स्वभाव) व्यवहार की प्रकृति (विद्यामान) विद्यमान, स्थित, क्रिया (करनी) कर्त्तव्य (आप) महाप्रभु।
भाष्य
जिसका सत्य व्यवहार है और कर्त्तव्य भी व्यवहार रूप में सत्य है, वहाँ आप महाप्रभु विराजमान रहते हैं। अर्थात् उसकी सत्य-कामना पूर्णकर रक्षा करते हैं। सत्य आत्मा को सत्य प्रभु प्राप्त होते हैं। मन, वच, कर्म और व्यवहार से सत्य है एवं जिसका सर्व आचरण, रहन-सहन सत्य है, वहीं प्रभु का वास है अर्थात् वही प्रभु की प्राप्ति कर सकता है। जिनके कर्त्तव्य में किसी प्रकार के दोष हैं, करनी सत्य नहीं है, दिखावटी है, वे व्यक्ति सत्य को नहीं प्राप्त कर सकते और न अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए उस सत्य-स्वरूप प्रभु की प्राप्ति के लिए अपने समस्त जीवन को सत्यमय बनाना पड़ेगा, तभी वह सच्चा, पूर्ण पुरुष हमें प्राप्त होगा। इस दोहे में अपने जीवन को सत्यमय बनाने का उपदेश किया गया है।
3 दम्भ कपट छल झूठ है, वक्र विकृत विचार। वहाँ दूर प्रभु रहत है, अनघ अमोघ अचार।
शब्दार्थ
(दम्भ) पाखण्ड, दिखावटी आचरण (कपट) धोखा (छल) चालाकी (झूठ) असत्य (वक्र) टेढ़ा, कुटिल व्यवहार (विकृत) गन्दा, दोषयुक्त (विचार) भाव (अनघ) पापरहित (अमोघ) अचूक, व्यर्थ न जाने वाला (अचार) आचरण, व्यवहार।
भाष्य
जहाँ पर छल, कपट, पाखण्ड, असत्य एव कुटिलता का विकृत व्यवहार रहता है, वहाँ प्रभु दूर रहता है, इसलिए सर्व बुरे संस्कार, पाप, वासनाओं से रहित होकर, जो प्रभु की उपासना करता है, उसका लक्ष्य कभी व्यर्थ नहीं जाता है। वह अपने सत्य व्यवहार से उस परम प्रभु को निश्चय प्राप्त कर जीवन को सफल करता है, इसलिए अध्यात्म-पथानुयायिओं को आवश्यक है कि समस्त दुर्गुणों को त्याग कर सत्यता के साथ प्रभु की शरण में आवें, उन्हें निश्चय ही प्रभु की प्राप्ति होगी। सच्चा ही प्रभु को पाता है। मन, हृदय और वाणी से जो व्यवहार एक प्रकार का है, वही सत्य है। भीतर हृदय में कुछ और है तथा वाणी में दूसरा एवं आचरण उससे भिन्न है, ऐसे व्यवहार को असत्य दिखावटी तथा कपटयुक्त होने से पाखण्ड कहते हैं। अतएव झूठ, छल एवं पाखण्ड से प्रभु दूर है। वह अपने सच्चे भक्तों को ही प्राप्त होकर, उन्हें परमानन्द प्रदान कर कृत-कृत्य करता है।
4 सन्त चाल साची रहे, झूठ न कछु व्यवहार। सन्त मनीषी अगुण बन, निर्गुण नाम सम्हार।
शब्दार्थ
(संत चल) संत का भीतरी बाह्य व्यवहार (साची) सत्यमय (झूठ) असत्य (संत मनीषी) मनस्वी, मेधावी संत (अगुण) प्राकृतिक दोष-दुर्गुणों से घटक (निर्गुण) चेतन गुण, शुद्ध आत्मा का स्वभाव (सम्हार) अवलंब, धारण।
भाष्य
संत के सभी व्यवहार, साधन और अभ्यास सत्य रहे, असत्य व्यवहार का नितान्त अभाव हो जावे, तभी मेधावी संत दोष-दुर्गुणों से रहित होकर प्रकृति पार निर्गुण नाम अनिर्वाच्य तत्त्व की उपासना करेंगे। समस्त दोष-दुर्गुणों से रहित होकर शुद्ध हृदय से ही प्रभु की उपासना होती है, अन्यथा बाहरी स्वाँग से प्रभु-प्राप्ति का साधन सफल नहीं होता।
5 पुरुष डोर अति सुक्ष्म है, झीना से अति झीन। सुरति निरति रत गम करे, साधक सन्त प्रवीन।
शब्दार्थ
(पुरुषडोर) पुरुष तक नागा का आधार, जिसे संत परिभाषा में मकरतार कहते हैं (साधक) साधन करने वाला (संत) सहज योगाभ्यासी, सद्गुरु-हंस (प्रवीण) चतुर, दक्ष (सुरति) स्वयं (निरति) निरतिषय रति, शब्दानंद की प्राप्ति।
भाष्य
विहंगम डोरी अति सूक्ष्म है, अर्थात् सूक्ष्म से सूक्ष्म अत्यन्त सूक्ष्मान्तर है। जब सुरति निरति में मिलकर गुरुगम्य में प्रवेश करती है, तब उस साधन करने वाले प्रवीण सन्त को शब्द का अनुभव और आनन्द की प्राप्ति होती है।
6 मकर तार दिव लोक में, मण्डल अन्त प्रयन्त । अमृत सागर मुख लगी, समझें भेदिक सन्त।
शब्दार्थ
(मकर तार) मकड़ी के तंतु के समाने एकतार (दिव लोक) अक्षर मंडल (अत) अंत (प्रयंत) तक (अमृत सागर) परमानंद समाधि मंडल, स्वधाम (मुख) जहां से चेतन, प्रवाह प्रवाहित होता है (भेदिक संत) इस अनुभव मार्ग के गुह्य रहस्य को जानने वाले सहज योगाभ्यासी।
भाष्य
मकरतार अक्षर मण्डल के अन्त तक गया है और शब्दामृत अनन्त महासागर का स्रोत जहाँ से प्रवाहित हो रहा है, उसके मुख में लगा है। इस अनुभव रहस्य आभ्यन्तर साधन के मर्म को सद्गुरु भेद के तत्त्वज्ञानी सन्त समझेंगे। यह ब्रह्मविद्या का अनुभव तत्त्वज्ञान परम गोपनीय तथा सर्वश्रेष्ठ है। इस अनुभव रहस्य को योगी समाधिस्थ ही जान सकता है, जिसे इस भेद रहस्य का पूर्णबोध तथा अनुभव है।
7 सद्गुरु मण्डल अग्र है, सैन समाधि प्रदेश। पर पुरुषारथ पूर्ण है, पहुँचे अपने देश।
शब्दार्थ
(सद्गुरु मंडल) अनुभव चेतन समाधि मंडल (अग्र) अग्र (सैन समाधि प्रदेश) जहां पर निरतिशय परमानंद की प्राप्ति होती है, वह स्थान (पुरुषार्थ पर) प्रकृति पार परम पुरुषार्थ अर्थात जीवन के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति रूपी पुरुषार्थ (पूर्ण) अंत, समाप्ति (अपना देश) परमानंद प्राप्त, शुद्ध प्रदेश, अमर लोक।
भाष्य
दिव लोक से सद्गुरु मण्डल अर्थात् सैन समाधि का प्रदेश आगे है। इस समाधि-मण्डल की प्राप्ति जीवन का सर्वोत्कृष्ट, पूर्ण पुरुषार्थ है। इसके पश्चात् दूसरा कोई पुरुषार्थ नहीं है। जहाँ पर जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है, जीवन पूर्ण हो जाता है, वहाँ पुरुषार्थ की पूर्णता है। इसी पुरुषार्थ द्वारा आत्मा अपने विशुद्ध प्रदेश में पहुँच जाती है और अपने वास्तविक आनन्द का उपभोग करती है।
8 करी पिपिल के पन्थ में, श्वेत सदन स्वेती ध्वजा, कैसे कर परवेश। फहराती वह देश।
शब्दार्थ
(करी) हाथी (पिपिल) चींटी (पन्थ) मार्ग (प्रवेश) समावेश (श्वेत सदन) श्वेत धाम (श्वेती ध्वजा) श्वेत प्रकाशमान चमकती ध्वजा (फहराती) लहराती, उड़ती हुई।
भाष्य
शरीर देहाभिमानी रूपी हस्ती, चींटी रूपी सुरति के सूक्ष्म मार्ग में कैसे प्रवेश करेगा? उस श्वेत गृह पर श्वेती ध्वजा उस देश में फहरा रही है। प्रभुप्राप्ति का मार्ग अत्यन्त सूक्ष्म है और वह परब्रह्म, प्रकाश स्वरूप सर्वत्र व्यापक होकर श्वेत समाधि धाम में प्राप्त होता है।
9 कर संबंध निष्प्राण से, निष्अक्षर निष्प्राण। सद्गुरु भेद रहस्य है, अनुभव बोध।
शब्दार्थ
(निःश्वास) श्वांश घटक (निःअक्षर) अक्षरातीत, अक्षर से सूक्ष्म सारशब्द (निष्प्राण) प्राणरहित (रहस्य) मर्म (अनुभव) चेतन-चेतन का प्रत्यक्ष दर्शन (विधान) नियम, अमूर्त।
भाष्य
प्राण और मन की भूमि का त्याग कर देने पर योगी की चेतना निःश्वाँस हो जाती है और वह निष्प्राण एवं अमन होकर निःअक्षर सारशब्द की प्राप्ति करता है। सद्गुरु के इस मर्म भेद को योग विधान द्वारा अनुभव करने पर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
10 प्रथम देह की सुधि नहीं, इन्द्रिन अर्थ अभाव। मन पंगू मर जात है, पूर्ण शान्ति सुख पाव।
शब्दार्थ
(प्रथम देह) स्थूल शरीर (सुधि) ज्ञान, भान (इंद्रि अर्थ) इंद्रियों के विषय (अभाव) पूर्ण शांति, त्याग (पूर्णशांति) पूर्ण निर्विघ्नता (सुख) परमानंद।
भाष्य
विहंगम योग के साधन में धारणा के स्थित होने पर स्थूल शरीर का भान नहीं होता, क्योंकि इन्द्रियाँ अपने कार्यों को छोड़कर अन्तर्मुख हो जाती हैं। इसलिए उनके विषयों का अभाव हो जाता है। विषयों के उपभोग न होने से मन क्रियाहीन एवं पंगु होकर मृतक हो जाता है। तब मन के अभाव से आत्मा को पूर्ण शान्ति और अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है।
11 स्थूल सुक्ष्म के त्याग में, अनुभव शब्द विवेक में, कारण योग शरीर। छूटत कारण धीर।
शब्दार्थ
(स्थूल) स्थूल शरीर (सूक्ष्म) सूक्ष्म शरीर (त्याग) छूटना (करण) कारण शरीर (योग) प्रकृति आत्मा युक्त (शरीर) देह (धीर) मेधावी, मनस्वी योगी।
भाष्य
स्थूल और सूक्ष्म शरीर के त्याग कर देने पर भी अज्ञानयुक्त आत्मा और मूल प्रकृति का सम्बन्ध लगा रहता है। उसको कारण शरीर कहते हैं। वह कारण शरीर भी धीर योगाभ्यासी से शब्द के अनुभव विवेक द्वारा छूट जाता है। योगाभ्यास द्वारा जिस प्रकार से अन्तर चेतना प्रवेश करती है, क्रमशः शरीरों का उत्तरोत्तर त्याग होता जाता है। यही ब्रह्मविद्या योग की महिमा है, जिसे इस पद में वर्णन किया गया है।
12 महकारण कैवल्य को, केन्द्रिक चेतन शक्ति में, त्यागत हँस स्वरूप। परखत शब्द अनूप ।
शब्दार्थ
(महकारण) प्रकृति प्रवाह में आने की दृढ़ भूमि वाली देह जिसमें आत्मा को जगत् में आने का भाव दृढ़ हो जाता है (कैवल्य) अज्ञान अवस्था जिसमें आत्मा अपने 'अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ' यह जानने लगता है (परखत) जाँचना, खोज, कसौटी।
भाष्य
जब हँस अर्थात् विज्ञान अवस्था आत्मा को प्राप्त हो जाती है, तब वह महाकारणऔर कैवल्य इन दोनों शरीरों का त्याग कर देती है और ब्रह्माधार में केन्द्रित अपनी चेतन शक्ति के प्रभाव में प्रकृति पार अनुपम अलौकिक शब्द का अन्वेषण, कसौटी करती है।
13 पर पुरुषारथ धीर का, सद्गुरु सहज प्रसाद। हँस रूप वह मिलत है, मीन अमी नद वाद ।
शब्दार्थ
(पर पुरुषार्थ) पूर्ण पुरुषार्थ, जिसके बाद दूसरा कोई पुरुषार्थ शेष नहीं रह जाता (सद्गुरु) श्रुत ज्ञानप्रवाही, आप्त, ब्रह्मनिष्ठ आचार्य (प्रसाद) स्नेह, सहज (सहज) ब्रह्मशक्ति (हंस रूप) विज्ञान राज्य, शुद्ध आत्म स्वरूप (मीन) मछली (अमी) अमृत (नद) नदी, पूर्वी धारा उत्तर या पश्चिम की ओर निकलती है।
भाष्य
धीर सन्त के पर पुरुषार्थ एवं सद्गुरु की सहज शक्ति के प्रसाद से शुद्ध हँस स्वरूप प्राप्त होता है। जैसे मछली जल प्रपात में भी ऊपर को सीधे चढ़ पर पर्वत पर पहुँच जाती है, उसी प्रकार मीन रूपी चेतन सुरति जड़ जगत् को छोड़ कर क्रमशः ऊपर चढ़ती हुई अनन्त अमृत महासागर को पहुँच जाती है।
दूसरा अर्थ
जल के प्रवाह में बहती हुई मछली समुद्र में पहुँचकर अपने आनन्द को प्राप्त करती है। उसी प्रकार आत्मिक चेतना ऊर्ध्व प्रवाह में बहती हुई अमृत सागर रूपी परमानन्द को प्राप्त कर शान्त और निमग्न हो जाती है। आत्मा जड़ जगत् को छोड़ कर क्रमशः उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अपने वास्तविक चेतन स्वरूप हंस अवस्था को प्राप्त करती है।
14 वेन बाँध मुरुचा कठिन, पांच को उलटा फेर। गगन चढ़े मन मारि कर, मानसरोवर हेर।
शब्दार्थ
(बेन) मेधावी संत (मुरुचा) बोट का मंडन छोड़ कर युद्ध की तैयारी (कठिन) कठोर, कठोर, दुःसाध्य (गगन) भेदिक आकाश, परम व्योम (मानसरोवर) हंसों का साधन अर्थात आत्मा का आनंदमय सागर, सुख-शांति का आगर (उसकी) खोज।
भाष्य
संग्राम करने के लिए सैनिकों को मुर्चा बाँधना पड़ता है। तब वे कठिन परिश्रम करके युद्ध में विजय प्राप्त करते हैं। मुर्चा कई दिन और अनिश्चित् समय तक होता है एवं अन्तिम संघर्ष में प्राण की बिल्कुल परवाह न कर विजय के लिए सैनिक अपने जीवन की बाजी लगाकर युद्ध करता है। इसी को मुर्चा कहते हैं। इसी प्रकार योग समाधि अनुष्ठान का मुर्चा होता है और जिस समय योगाभ्यासी घोर परिश्रम कर पाँच को उल्टा घुमाकर, इनके प्रबल वेग को रोक कर, मन को मार कर महान् दुर्ग, गगन पर चढ़ जाता है, तब वहाँ अमृत सरोवर में अपनी चेतन शक्ति से ब्रह्मतत्व की खोज करता है। इस योग के मुर्चा में शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण, मन एवं सुरति इनपाँचों की अर्द्ध प्रवाह गति को रोककर और इन्द्रिय प्रवाह का अधिपति मन को मारकर गगन में चढ़ने का उपदेश किया गया है। यह आध्यात्मिक संग्राम के मुर्चा को जीतने के लिए कठिन परिश्रम और महान् त्याग-तपस्या की आवश्यकता है. जिसका वर्णन ग्रन्थकार ने किया है। ग्रन्थकार सद्गुरु देव जी अपने व्यावहारिक उपदेश का शिक्षा में लड़ाई, मुर्चा, महारथी शब्द का विशेष प्रयोग करते थे। इसलिए पद में भी आध्यात्मिक सफलता को संग्राम की उपमा देकर पुरुषार्थ द्वारा परब्रह्म प्राप्ति करने का उपदेश दिया है। आपने अपने समाधि-गुहा अनुष्ठान में इसी प्रकार घोर परिश्रम करके लक्ष्य की प्राप्ति की थी। आपने एक आसन से समाधि में कई दिन और सप्ताह तक या कभी-कभी पन्द्रह दिनों तक स्थिर दृढ़ होकर ब्रह्मविद्या का अनुभव तत्त्वज्ञान के महान् श्रेय को प्राप्त किया था।
15 बाँध युद्ध मण्डान को, धीर सन्त मन मार। देह पवन मन थिर करे, सुरति निरति थिर पार।
शब्दार्थ
- (युद्ध मंडन) का घेरा, मूर्छा (बांध) रोक, निर्माण (धीर संत) मेधावी, दृढ़व्रती विहंगम योगाभ्यासी (मन मार) मन को उसके मूल कारण में लय, शांत कर (देह) शरीर (पवन) प्राण (मन) विषयोपभोगी कारण (सुरति) स्वयं (निरति) स्वयं की अंत स्थिति (थिर)
स्थिर (पार) प्रकृति पारब्रह्म ।
भाष्य
मेधावी सन्त आध्यात्मिक संग्राम में विजय प्राप्त करने के लिए योग रूपी युद्ध का मण्डान बाँध कर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शरीर, प्राण, मन सुरति एवं निरति को स्थिर करके प्रकृति पार परब्रह्म का अनुभव साक्षात्कार करते हैं। मेधावी, धीर, मनीषी और वेन ये वैदिक कोष निघण्टु के पर्यायवाची शब्द हैं। इस पद में भी आध्यात्मिक संग्राम को जीतने के लिए शरीर, प्राण और मनादि को स्थिर करने का उपदेश दिया गया है। इस आध्यात्मिक युद्ध मण्डान को बाँध कर ही प्रकृतिपार, परब्रह्म, परमानन्द की प्राप्ति होती है।
16 बाँधि पताल अकाश को, फेरे योग विधान। महारथी योधा सबल, सन्त सोई परधान।
शब्दार्थ
(बाँधी) बंद, रोक (पाताल) नीचे, प्रकृति जगत् (आकाश) ऊपर, चेतन परम आकाश
जहाँ पर परमानंद की प्राप्ति होती है (फेरे) कुशावे (योग निर्देश) योग का नियम, बंधन,
(महारथी वाला) दस हजार रथियों से अकेले लड़ने (योद्धा) युद्ध करने वाला (सबल) बलवान
(संत प्रधान) श्रेष्ठ, उच्च स्थिति को प्राप्त करने वाला योगाभ्यासी।
भाष्य
अधः जड़ प्रकृति प्रवाह को रोक कर उसे सद्गुरु प्रदेश, चेतन धाम को योग विधान द्वारा घुमाकर ले जाने वाले प्रधान सन्त ही सबल योद्धा और पूर्ण महारथी हैं। सन्तविहंगम योगाभ्यासी को ग्रन्थकार ने आध्यात्मिक संग्राम में अकेला लड़कर प्राण-मन को जीतने के कारण परम विजेता महारथी की उपमा दी है।


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