1 मना मनन जब तक रहे, तब तक भजन न जान। अमन अगम अनुभव चले, सत्य भजन परमान।
शब्दार्थ
(मन) मन का (मनन) मन्मथ, मन-प्रपंच, मन का विषय (अगम) गम से उपयोगी (अनुभव) प्रकृतिरहित शुद्ध आत्मा का विकास (सत्य भजन) वास्तविक भजन का स्वरूप (परमाणु) उदाहरण, साहित्य, आदर्श।
भाष्य
जब तक मन के अन्दर संसार-विषय का मनन, इच्छा और वासना रहती है, तब तक भजन नहीं होता है। मन के अभाव में जहाँ मन की गति नहीं पहुँचती उस चेतन आत्म विकास से परब्रह्म का अनुभव होता है। यही वास्तविक सत्य भजन का आदर्श है अर्थात् इसे ही प्रभु की सच्ची उपासना कहते हैं। अतएव मन के रहते भजन नहीं होता है। मन का निरोध कर लय, शान्त कर देने पर ही चेतन आत्मा, चेतन साधन से चेतन परब्रह्म की प्राप्ति करती है।
2 योग क्षेम प्रभु सब करें, आत्म समर्पित भक्त है, भक्त अन्य नहिं आश। भक्त हृदय प्रभु वास।
शब्दार्थ
(योग) प्राप्त (क्षेम) रक्षा (आश) भरोसा (आत्मसमर्पण) अपने को प्रभु को समर्पित किया (भक्त) उपासक (वास) निवास।
भाष्य
भक्त को जिस पदार्थ की इच्छा होती है, उसको प्रभु प्रदान करते हैं। उसी को 'योग' कहते हैं और जिन पदार्थों को प्रभु देता है, वह उनकी स्वयं रक्षा भी करता है। इसलिए भक्त को दूसरे की आशा नहीं रहती, इसलिए प्राप्त पदार्थ की रक्षा को 'क्षेम' कहते हैं। सर्वस्व अर्पण करने वाला भक्त ही आत्म समर्पित होता है, जिसका अपना कुछ नहीं है, सब प्रभु का है, जीवन, तन, मन एवं वाणी सब कुछ उसी का है, ऐसे ही भक्त को आत्म-समर्पित भक्त कहते हैं। उसी पवित्र अनन्य शरण आस्तिक्य भाव सम्पन्न, आत्म-समर्पित आत्मा में परम दयालु महाप्रभु का वास होता है। भक्त का योग-क्षेम प्रभु स्वयं करता है और उसी को अपना चेतन आनन्द प्रदान कर सुख-शान्ति प्रदान करता है। भक्त को संसार की आश-वासना नहीं होती। वह एकमात्र प्रभु का ही अनन्य शरण होता है और उसी को भक्ति का परमसुख प्राप्त होता है।
3 प्रभु से अन्य इच्छा नहीं, इच्छा दुख कर मूल। विविध वीपदा द्वन्द्व में, इच्छा भ्रम जग शूल।
शब्दार्थ
(इच्छा) मांग, अभिलाषा, चाह (विविध) अनेक प्रकार (विपदा) संकट, संकट (द्वंद्व) कलह, दो का मुकाबला (दुख) आत्म विरुद्ध कष्ट (भ्रम) संशय, अज्ञान (जग) संसार (शूल) अंतर्पीड़ा, संकट (मूल) कारण।
भाष्य
भक्त प्रभु से भक्ति के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ की इच्छा नहीं करता, क्योंकि जगत् के विविध प्रकार की विपदा, कलह और कष्ट का कारण इच्छा ही है। जब आत्मा को अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है, तभी उसे संसार-भोग की इच्छा होती है। अतएव इच्छा होने का कारण भ्रम, अविद्या है, जिसके द्वारा जीव भोगेच्छा के कारण पतन होकर त्रिताप दुःख को प्राप्त होता है। शुद्ध आत्मस्वरूप में इच्छा नहीं होती। जब आत्मस्वरूप में भ्रान्ति होती है, तब प्रकृति-इच्छा अज्ञान से जीव में होती है, इसलिए के अतिरिक्त भक्त दूसरे प्रकार की इच्छा नहीं करते हैं।
4 सद्गुरु नित्य अनादि हैं, मम जीवन आधार। तिलक क्षत्रपति पद मिले, जापर कृपा अपार।
शब्दार्थ
(सद्गुरु नित्य अनादि) जो चारों युगों में इच्छानुकुल संसार में प्रकट होते हैं (मम जीवन आधार) मेरा जीवन-आधार (तिलक) ओके, अभिषिक्त (छत्रपति) सम्राट, विवेचक राजा (पद) उपाधि, प्रतिष्ठा, अधिकार।
भाष्य
चारों युगों में स्वच्छन्द इच्छानुसार प्रकट होने वाले नित्य अनादि सद्गुरु मेरे जीवन के अवलम्ब हैं। जिन पर प्रभु की कृपा अपार होती है, उन्हीं को नित्य अनादि सद्गुरु द्वारा भूमण्डल के चक्रवर्ती आध्यात्मिक राज्य का सम्राट् पद मिलता है। एक काल में एक ही सद्गुरु होते हैं, जिनके प्रकाश में भूमण्डल के अधिकारी जीव परमानन्द को प्राप्त कर विमुक्त होते हैं। अध्यात्म-साम्राज्य के चक्रवर्ती एवं छत्रपति का पद नित्य अनादि सद्गुरु द्वारा प्राप्त होता है। इस पद में ग्रन्थकार ने यही अपना भाव प्रकट किया है। एक राज्य में दो शासक नहीं होते। इस प्रकार भूमण्डल का छत्रपति सम्राट् एक ही होता है।
5 जगत गुरु पद उच्च है, देवैं सद्गुरु देव। चेष्टा व्यर्थ मनुष्य की, मिले कृपा जेहि सेव।
शब्दार्थ
(जगत गुरु) संसार का सद्गुरु (पद) आसन, प्रतिष्ठा (सद्गुरु देव) नित्य अनादि सद्गुरु (चेष्टा) प्रयास (व्यर्थ) वृथा (कृपा) अनुग्रह (सेवा) भक्ति, परम प्रेम।
भाष्य
संसार में सबसे श्रेष्ठ पद जगद् गुरु का है, जिसे नित्य अनादि सद्गुरु प्रदान करते हैं। जिसने अपने जीवन को उस सद्गुरु की शरण में सर्व ओर से दे दिया है, उसी को वह अध्यात्मपति महाप्रभु कृपा करके इस महान् पद को देते हैं, इसलिए इस पद को पाने के लिएसंसारी मनुष्यों की चेष्टा व्यर्थ है, क्योंकि इस पद को नित्य अनादि सद्गुरु ही प्रदान करते हैं। अपने मन का यह पद नहीं होता, न मनमानी कोई सद्गुरु संसार में हो सकता है। मनमानी गुरु बनने से संसार में अंधकार फैलेगा और अन्ध परम्परा बढ़ेगी। इसलिए अधिकारी जिज्ञासुओं को विशुद्ध ब्रह्मविद्या-मार्त्तण्ड वास्तविक सद्गुरु की खोज करनी चाहिए।
6 उत्तम अधिकारी मिले, सारशब्द उपदेश। सद्गुरु सैन लखावहिं, नहिं उपदेश आदेश।
शब्दार्थ
(उत्तम अधिकारी) उत्तम कोटि का मुमुक्षु (सद्गुरु सैन) सद्गुरु का संकेत, संकेत (लाखवहीं) निर्देश, दर्शन, प्रत्यक्ष करना (भाषण) बोलना (आदेश) आज्ञा, नियम।
भाष्य
उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ, अधम एवं अधमाधम ये पाँच कोटियाँ जिज्ञासुओं की होती हैं। शिरोव्रतधारी उत्तम कोटि के अधिकारी की सद्गुरु के दर्शनमात्र से अन्तर-शक्ति जागने लगती है और प्रेम-उत्साह की वृद्धि होने लगती है। योग के अन्तर कमल में सद्गुरु की प्रतिभा पड़ने से, उसमें स्पन्दन और स्फुरणा होने लगती है। यही उत्तम कोटि के अधिकारी का लक्षण है। पूर्व जन्म की संस्कारी आत्मायें ही उत्तम कोटि की होती हैं और उन्हें स्वाभाविक सद्गुरु चरणों में विश्वास और श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है तब वे दृढ़ निष्ठा के साथ सद्गुरु के विशेष परिचय को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी कितनी कथायें सद्गुरु देव जी के जीवन काल में जानी गयी हैं। सद्गुरु की पहिचान संस्कारी पवित्र आत्मायें ही करती हैं। इन उत्तम कोटि के अधिकारियों के मिलने पर सद्गुरुजन सैन, इशारा से अपनी चेतन दृष्टि का उपयोग कर सारशब्द का उपदेश करते हैं। उन्हें भाषण या दूसरे प्रकार के कोई नियम आदेश की शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। दूसरे प्रकार के अधिकारी वे हैं, जो सद्गुरु के चरणों में विश्वास रख कोटि-भेद से साधन-अभ्यास कर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं।
तीसरे प्रकार के अधिकारी वे हैं, जिन्हें अल्पज्ञान और सद्गुरु वचनों पर क्षणिक विश्वास-लगन के साथ तर्क-वितर्क या अनेक प्रकार के संशय, व्यामोह में पड़कर चंचल विचार रखते हुए साधन सेवा में लगे हुए हैं। ऐसे भक्त कनिष्ठ श्रेणी के अधिकारी हैं। चौथा अधम श्रेणी के अधिकारी वे हैं, जिन्हें ईश्वर और गुरु में श्रद्धा न्यून रहते हुए भी साधन अभ्यास में बिल्कुल स्थिरता नहीं है, अभिरुचि न होने पर भी साधन में युक्त होते हैं। ऐसे अधिकारी तत्त्वज्ञान से हीन होने से ऊँची श्रद्धा और प्रेम से रहित होते हैं। पाँचवीं श्रेणी के अधिकरी वे हैं जो क्षणिक ज्ञान के आधार पर दूसरों को देखकर आगे बढ़ना चाहते हैं। स्वार्थ, मान तथा इन्द्रिय सुखों के लिए सदैव लालायित हैं। आलसी, सेवाहीन तथा अभिमानी व्यक्ति को अधिकारी की संज्ञा नहीं के बराबर है, फिर भी ढुलमुल और अपने दुर्बल विचार के होते हुए भी सद्गुरु के सिद्धान्त मार्ग को नहीं छोड़ते। चढ़ते-गिरते पथ में रहना चाहते हैं। ऐसे अधिकारी को पंचम कोटि में गिनना चाहिए। ज्ञान और प्रेम ये ही दो अध्यात्म में आगे बढ़ाने वाले प्रमुख साधन हैं। ज्ञान की आवश्यकता प्रत्येक क्षेत्र में है, परन्तु ब्रह्मविद्या के ज्ञानहीनव्यक्ति जिसे सद्गुरु का पद और सिद्धान्त का बोध नहीं है, साधन अभ्यास में प्रगति नहीं कर सकता।
इसलिए ज्ञान युक्त प्रेम ही अध्यात्म पथ में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। अधिकारी में ज्ञान, वैराग्य, प्रेम, श्रद्धा, आस्तिक्य भाव, पुरुषार्थ और सेवा इन गुणों का होना आवश्यक है। इस पद में उत्तम कोटि के अधिकारी को शैन, इशारा से ही सद्गुरु जन प्रत्यक्ष चेतन-प्रभा देकर सारशब्द का उपदेश कर देते हैं। उत्तम कोटि के अधिकारी के लिये विशेष भाषण और सत्संग करने की आवश्यकता नहीं है। सद्गुरु जन अपनी चेतन-प्रतिभा से ही दिव्यावलोकन के द्वारा कितने भक्त-प्रेमियों को चेतन शक्ति का द्वार खोल देते हैं। सद्गुरु देव ने जीवन के अन्तिम काल में एक प्रेमी भक्त को ऐसा ही किया था। उन्होंने सिर पर हाथ रख करके कह दिया था कि जाओ, बाहर कर दिया, पार कर दिया। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई वचन न कह कर मुझे उपदेश किया कि आप इसे स्थिर कर देंगे। आप से अमुक बात कहेगा। सद्गुरु देव के देहान्त के बाद वह प्रेमी मेरी शरण में आया और मैंने उससे पूछा कि तुम्हें क्या हो रहा है? वह योग की चौथी भूमि का स्थान और दृश्य सद्गुरु देव के मौखिक उपदेश के बिना ही जान गया था और उसका साधन-अभ्यास कर रहा था, उसने मुझे बतलायां। इस प्रकार के सद्गुरु देव के उपदेश भारत के अनेक प्रान्तों के शिष्य नर-नारियों में हुए हैं, जिनके द्वारा उत्तम कोटि के अधिकारी भक्त सद्गुरु देव की महान् महिमा के द्वारा अध्यात्म की ऊँची शिखा को प्राप्त कर चुके हैं। इसके विशद् वर्णन के लिए एक ग्रन्थ रचने की आवश्यकता पड़ेगी। अतः, इस विषय को यहीं समाप्त करता हूँ।
7 ऊर्ध्व सैन की युक्ति में, सद्गुरु सैन लखाव।अन्तर अमल विवेक में,परसत अनुभव आव।
शब्दार्थ
(ऊर्ध्व सैन) सद्गुरु उपदेश मण्डल (युक्ति) योग युक्ति, योग भेद रहस्य (सद्गुरु सैन) सद्गुरु का संकेत, संकेत (लाखव) दिखाव, प्रकाश (अन्तर) अन्दर (अमल) विमल (विवेक) सज्ञान (परसत) छूते ही (अनुभव) आत्म-प्रकाश (अव) प्राप्त।
भाष्य
ऊर्ध्व चेतन मंडल के सन्धि, भेद, योग-ग्रंथी में सद्गुरु देव अपने चेतन दृष्टि-संकेत से प्रकट होते हैं। उस चेतन शक्ति के अनंत स्पर्श की मात्रा से ही आत्म विमल ज्ञान और प्रकाश का अनुभव होता है।
8 अनन्य भक्त प्रभु शरण में, प्रभु से मुक्ति न माँग। आश लक्ष्य जग नहीं, भक्ति अलौकिक लाग।
शब्दार्थ
(अनन्य भक्त) जिसका दूसरा आधार नहीं है, एकमात्र ईश्वर की भक्ति ही आधार है (प्रभु शरण) प्रभु-भक्ति (मुक्ति) मोक्ष (अस) भरोस (वासना) कर्म संस्कार की स्थिति,भोगेच्छ (भक्ति) चेतन प्रभु की आराधना (लाग) युक्त, संगत (निरंतर) सदैव।
भाष्य
प्रभु का अनन्य शरण, अनन्य भक्त प्रभु से मुक्ति तक नहीं माँगता है, क्योंकि प्रभु को तो वह प्राप्त कर ही लिया है। अब दूसरा कौन पदार्थ उससे श्रेष्ठ है, जिसकी वह माँग करे। प्रभु शरण में सब कुछ आपे-आप प्राप्त हो जाता है। जब प्रभु को आत्म समर्पण कर दिया और उसकी ही शरण में जीवन लग गया, तब उससे भिन्न दूसरा आराध्य और ईश्वर कौन है, जिसकी प्राप्ति के लिए प्रार्थना करें? आत्म समर्पित भक्त प्रभु की भक्ति के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ की इच्छा नहीं रखते और न प्रभु से दूसरा पदार्थ माँगते हैं। वह समस्त जगत् की आश-वासना छोड़ कर निरन्तर प्रभु भक्ति में ही लगे रहते हैं। निष्काम भक्त होने से उन्हें मुक्ति तक की माँग नहीं होती। वह एकमात्र प्रभु की आराधना में तन्मय, तदाकार हो उसी में जलमीनवत् लवलीन रहते हैं। यही विशुद्ध भक्ति का पवित्र स्वरूप है। भक्ति से बढ़ कर दूसरा उच्च पद कोई नहीं है।
9 भक्ति परम निधि भक्त को, सर्व रत्न गुण खान। देव सदाफल भक्ति में, अनिच्छित सब अण्।
शब्दार्थ
(भक्त) आत्म समर्पित अनन्य शरण भक्त (परम निधि) महान धन का भंडार (सर्व रत्न) सर्व रत्न (गुण) विज्ञान, कला, कौशल, संपूर्ण विद्या (खान) अगर, ओवरी जहां से सर्व रत्न गोदने पर मिलते हैं (अनइच्छित) बिना इच्छा के।
भाष्य
भक्त को भक्ति परम निधि है और सर्व गुण रत्नों की खानि है। प्रभु की भक्ति में अनिच्छित ही सर्व फल प्रभु की ओर से आते हैं। यही प्रभु भक्ति की महिमा है।
.. इति स्वर्वेद प्रथम मंडल, तृतीय अध्याय भाष्य समाप्त।
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