चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 24 स्थूल देह विस्मरण में, स्थूल देह कर त्याग। प्राण बुद्धि मन छूटते, जान सुक्ष्म तन त्याग।
1 स्थूल देह विस्मरण में, स्थूल देह कर त्याग। प्राण बुद्धि मन छूटते, जान सुक्ष्म तन त्याग।
शब्दार्थ
(स्थूल देह) रज-वीर्य से बनी हुई देह अर्थात् भौतिक शरीर (विस्मरण) भूल, विस्मृति, स्मरण न होना (त्याग) अभाव (प्राण) पवन (बुद्धि) मेधा (मन) इंद्रियों का प्रेरक (सूक्ष्म तन) सूक्ष्म शरीर (त्याग) अलग, विश्राम।
भाष्य
योगाभ्यासी में आत्मिक शक्ति के अन्तर्मुख हो जाने पर इस पार्थिव जड़ शरीर का भान नहीं होता। इस जड़ शरीर के भाव का स्मरण न होने से इस शरीर के बाह्य सम्बन्ध की क्रिया नहीं होती। आत्मा बाह्य जगत् से उपरम हो अपनी चेतना को अन्दर सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध रखती है। इस अवस्था में स्थूल शरीर का चेतनत्व न होने से इसका त्याग, इस दोहे में बतलाया गया है। इस शरीर से ही परमपुरुष की प्राप्ति एवं जीवन्मुक्ति होती है। योग विज्ञान द्वारा क्रमशः आत्मा प्रकृति के सम्बन्धों को छोड़ती हुई अपने स्वरूप में आ जाती है और अपने चेतन स्वरूप से प्रभु की भक्ति कर परमानन्द स्वरूप परब्रह्म को प्राप्त करती है। योग द्वारा क्रमशः प्रकृति का त्याग और उत्तरोत्तर आत्मिक शक्ति का विकास एवं परम सुख परमानन्द की प्राप्ति होती है। स्थूल शरीर के स्मरण न होने से स्थूल देह का त्याग होता है और जब प्राण, मन एवं बुद्धि से सम्बन्ध छूट जाता है, तब सूक्ष्म शरीर का भी त्याग हो जाता है। प्राण, बुद्धि एवं मन से ही विषय प्रपंच और प्राकृतिक व्यवहार चलते हैं, इसलिए योग साधन में आत्मिक चेतना जब इनसे उपरम हो आगे सूक्ष्म प्रदेश में स्थिर हो जाती है, उस काल में सूक्ष्म शरीर का भी त्याग हो जाता है। दस इन्द्रिय, पाँच प्राण, मन, बुद्धि चित्त और अहंकार इन उन्नीस तत्त्वों की देह को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। अतएव बुद्धि, चित्त एवं अहंकार, मन और प्राण से आत्मिक चेतना का सम्बन्ध छूटते ही सूक्ष्म शरीर का त्याग हो जाता है, यह जानना चाहिये। यही इस दोहे का अभिप्राय है।
2 सत रज तम का त्याग में, कारण देह अभाव। पृथक रूप चेतन रहे, रोक प्रवृत्ति प्रभाव।
शब्दार्थ
(सत, रज, तम) प्रकृति के त्रिगुण (कारण) ब्रह्मायुक्त आत्मा और जड़ प्रकृति (देह) शरीर (अभाव) संबंध से संबंधित, त्याग (पृथक) अलग (चेतन) आत्मा (रोक) बंध, विशिष्टता (प्रवृत्ति) आत्मा का प्रकृति प्रवाह (प्रभाव) शक्ति, तेज।
भाष्य
जब आत्मा से प्रकृति के त्रिगुणों का सम्बन्ध छूट जाता है, अर्थात् इनका तिरोभाव हो जाता है, तब कारण शरीर का अभाव हो जाता है। प्रकृति के सम्बन्ध से ही प्रकृति के त्रिगुणोंके व्यवहार होने से आत्मा की बाह्य प्रेरणा प्रकट होती है और इन त्रिगुणों के द्वन्द्व से जीवन प्रकृति-प्रवाह में बहने लगता है। जब योगी से त्रिगुणों का अभाव हो जाता हैं, तब वह त्रिगुणातीत योगी त्रिगुणों के अभाव होने से कारण शरीर का त्याग कर देता है। कारण शरीर के अभाव हो जाने पर आत्मिक शक्ति का बाह्य प्रवाह बन्द हो जाता है और आत्मा प्रकृति से पृथक् अपने चेतन स्वरूप को प्राप्त करती है। आत्मा और प्रकृति के सम्बन्ध को कारण शरीर कहते हैं। जब योग के प्रबल पुरुषार्थ द्वारा आत्मा से प्रकृति के त्रिगुणों का सम्बन्ध छूट जाता है, तब आत्मा शुद्ध स्वरूप में आकर तेजस्वी और बलवती हो जाती है। उस आत्मिक प्रभाव से प्रकृति का प्रवाह बन्द हो जाता है और शुद्ध आत्मा की शक्ति अपनी चेतन भक्ति में पवित्र रूप से अग्रशील हो. शुद्ध आनन्द की उपलब्धि करती है।
3 आलस निद्रा है नहीं, प्रकृति जड़त्व अभाव। सम चेतन परकाश है, कारण जान सजाव।
शब्दार्थ
(अलस) सुस्ती, सांकेतिकता, मंदपन (निद्रा) सुषुप्ति (प्रकृति) माया (जदत्व) प्रकृति का धर्म, त्रिगुणों का भाव (कारण) संबंध (सजाव) उत्पाद, कृत्रिम निर्मित सम) एक स्वरूप, समान।
भाष्य
आत्मा से जड़ प्रकृति के अभाव हो जाने पर आलस और निद्रा का नितान्त अभाव हो जाता है और आत्मा अपने एक स्वरूप से निज चेतन स्वरूप में विराजमान हो जाती है। यही कारण शरीर के अभाव का लक्षण जानें। विहंगम योग समाधि में जब त्रिगुणों का अभाव हो जाएगा, तभी योगी अपनी अखण्ड समाधि में चिरकाल तक स्थिर हो, ब्रह्मानन्द, परमसुख को प्राप्त करेगा। प्रकृति के अभाव हो जाने पर ही योग और समाधि होती है। प्रकृति मण्डल में जड़समाधि, ज्ञानहीन अवस्था में होती है, परन्तु चेतन समाधि विहंगम योगियों की होती है, जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चिन्मय अवस्था में ब्रह्मानन्द सुख का उपभोग करती है। विहंगम योगी की ज्ञान-धारणा जब स्थिर हो जाती है, तब वह दिनोंदिन ज्ञानमय प्रदीप्त होती जाती है और आनन्द की प्राप्ति होती है। विहंगम योगी सदैव योगदशा में स्थित रहता है। प्राणायाम, कुम्भक करने वाले हठयोगी जितनी देर तक प्राण व मन को स्थिर रखते हैं, उतनी ही देर उनकी समाधि बनी रहती है, फिर वे बाहर प्रकृति प्रवाह में चले आते हैं, परन्तु विहंगम योगी सदैव विराजधाम के अविरल चेतन धारा में स्नान कर ब्रह्मानन्द-रसं का आस्वादन करते हैं। विहंगम योगी सदैव सुष्मना की शैय्या पर सोता है और उसका अन्तरी प्रवाह सदैव चलता रहता है, इसलिए वैदिक, अनुभव-पथ विहंगम योग है, जहाँ पर आत्मा का प्रकृति आधार छूट जाता है।
प्रकृति आधार छूटने पर ही समाधि या प्रभुभक्ति का पूर्ण रूप से साधन चलता है, इसलिए इस दोहे में निद्रा और आलस्य के अभाव का वर्णन किया गया है। समाधि के अतिरिक्त अन्य अवस्था में थोड़े काल में ही योगी निद्रा को पूरा कर सदैव अन्तर लगन, प्रभुभक्तिमें तत्पर रहता है। समाधि में प्रकृति प्रवाह बन्द हो जाता है। इसीलिए आत्मा और ब्रह्म का शुद्ध सम्बन्ध स्थिर प्रकट होता है। योगीजन अपनी विहंगम योग-समाधि में चिरकाल तक स्थिर हो ब्रह्मानन्द सुख का उपभोग करते हैं। षट्मास समाधि में रहने वाले योगियों के नाम सुने जाते हैं और योगी दृढ़ासीन होकर ही अखण्ड समाधि में पवित्र परमानन्द, महासुख को प्राप्त करता है। इन (२. ३) दोनों दोहों में कारण शरीर के त्याग का लक्षण किया गया है। कारण शरीर के त्याग में आत्मा प्रकृति को छोड़कर अपने चेतन स्वरूप को प्राप्त कर स्थिर होती है। यही कारण शरीर के भाव का लक्षण इस पद में किया गया है। कारण शरीर के बाद दो और शरीर प्रकृति में हैं, जिनका वर्णन आगे के दोहे में किया गया है।
4 संस्कार संसार का, केवल है निर्मूल। त्याग महा कारण भया, जान सकल भ्रम मूल।
शब्दार्थ
(संस्कार) भाव, वासना (केवल) नित्यान्त (निर्मूल) नाश, मूल अनुपयोगी (भ्रम) अज्ञान मूल) कारण।
भाष्य
प्रकृति की संस्कार वासना जब तक आत्मा में लगी है, तब तक वास्तविक सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। योग की विशिष्ट अवस्था में अज्ञान, भ्रम-संस्कार का नितान्त अभाव हो जाता है। संसार के संस्कार का निर्मूल, क्षय होने पर महाकारण देह का अभाव हो जाता है। प्रकृति के भोग की दृढ़ प्रवृत्ति होने वाली अवस्था को महाकारण देह कहते हैं। महाकारण देह में आत्मा को प्रकृति भोग की इच्छा दृढ़ बलवती हो जाती है और आत्मा का बाह्य प्रवाह होने लगता है। जब योग की ऊँची भूमि पर योगी पहुँच जाता है, तब वे प्रकृति भोग के संस्कार जिनके कारण आत्मा जगत् में आ कर अनेक कष्ट, दुःख तथा परितापों को सहन करने लगी थी, वे संसार के संस्कार नितान्त क्षय हो जाते हैं, तब महाकारण देह का त्याग हो जाता है। भोगेच्छा होने से ही माया का सम्बन्ध जीव से होता है, इसलिए प्रकृति की भोगेच्छा, मूलकारण संस्कार के क्षय होने पर ही आत्मा ऊर्ध्व गति को प्राप्त होगी, इसलिए संसार के मूलकारण संस्कार के क्षय होने की अवस्था का वर्णन इस दोहे में किया गया है। इसी को महाकारण देह का त्याग जानें। बिना महाकारण देह का त्याग किये आत्मा आगे नहीं बढ़ सकती। प्रकृति का प्रवाह योगाभ्यास द्वारा महाकारण देह के त्याग करने से होता है, वाचक ज्ञान या बाहरी त्याग करने से नहीं, इसलिए योगाभ्यास द्वारा संस्कार-वासना के क्षय करके ही योगी अध्यात्म की ऊँची शिखा को प्राप्त करता है। विहंगम योग के साधन मार्ग से ही संसार का संस्कार-बन्धन छूट जाता है और इसी के क्षयसे मायाबन्धन की निवृत्ति होती है।


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