चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 25 चेतन शुद्ध स्वरूप से, स्वर निधि गोता होय। तन्मय भय जलमीन इव, हँस देह है सोय।
1 चेतन शुद्ध स्वरूप से, स्वर निधि गोता होय। तन्मय भय जलमीन इव, हँस देह है सोय।
शब्दार्थ
(स्वरनिधि) शब्द सागर, परम पुरुष (गोता) प्रकट (तन्मय) तदाकार (हंस देह) विज्ञान देह अर्थात शुद्ध आत्मा का चैतन्य स्वरूप, जिसमें परमानंद का उपभोग होता है।
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भाष्य
जब कैवल्य देह का योगाभ्यास द्वारा अभाव हो जाता है, तब आत्मा प्रकृति से सम्बन्ध होने का कारण, अविद्या से निवृत्त होकर अपने शुद्ध चेतन स्वरूप से परम अक्षर, सारशब्द रूपी महासागर में प्रवेश करती है। आत्मा से जब अविद्या की ग्रन्थि छूट जाती है, तब वह प्रकृति-बन्धन से छूट कर अपने चेतन स्वरूप से परम अक्षर, निःशब्द, परमपुरुष को प्राप्त करती • है। उस शब्दसागर में जलमीनवत् उसके स्वरूप को प्राप्त होकर परमानन्दित हो जाती है। इसी को हंस देह कहते हैं जैसे मछली समुद्र को पाकर उसमें लीन हो आनन्दित हो जाती है, उसी प्रकार विशुद्ध आत्मा परब्रह्म, परमानन्द को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाती है। समाधि में जीव लोह अग्निवत् परब्रह्म के स्वरूप को प्राप्त कर शुद्ध हँस अवस्था को प्राप्त करता है। यही आत्मा का शुद्ध स्वरूप है और विज्ञान की ऊँची शिखा है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और हंस इन छः शरीरों की अवस्थाओं और उत्तरोत्तर आत्मा के विकास के स्वरूप का वर्णन इन उपर्युक्त छः दोहों में किया गया है।
2 वीतराग अपरोक्ष नहिं, अन्य न कर उपदेश। योग्य न सद्गुरु पद लिये, अन्ध प्रथा भ्रम भेश।
शब्दार्थ
(वीतराग) राग से अनुपयोगी (अपरोक्ष) प्रत्यक्ष (अंध पूर्ण) अंधकार-मय मार्ग (भ्रम) अज्ञान (भेष) जीव कल्पित मत-सम्प्रदाय।
भाष्य
विषय भोग की इच्छा को राग कहते हैं। जब आत्मा से प्रकृति भोग की इच्छा नितान्त दूर हो जाती है, तब आत्मा योगाग्नि में प्रदीप्त, शुद्ध होकर परब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करती है। इसलिए ब्रह्मविद्या के आचार्य सद्गुरु प्रकृति मोह बन्धन से निवृत्त होकर परब्रह्म का योग समाधि में अनुभव साक्षात्कार करके ही संसार को ब्रह्मविद्या-अनुभव-तत्त्वज्ञान का उपदेश करते हैं। बिना वीतराग, अनुभव साक्षात्कार किये दूसरों को उपदेश नहीं कर सकता। सद्गुरु पद को प्राप्त होकर ही ब्रह्मविद्या के आचार्य अधिकारी जिज्ञासुओं की ताई अध्यात्म तत्त्वज्ञान का उपदेश करते हैं। बिना सद्गुरु पद प्राप्त हुए, अधिकारविहीन उपदेष्टा होने से संसार में अनेक भेष-सम्प्रदायों की रचना होती है। भ्रम, अन्धकार से जिसका ज्ञान ढँका हुआ है, अपरोक्ष बोध नहीं है, ऐसे अनधिकारी व्यक्ति को दूसरों को उपदेश नहीं करना चाहिए। श्रुत-ज्ञान प्रवाही ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही सद्गुरु होता है और सद्गुरु ही सद्गुरु बनाते हैं। जिस पवित्र आत्मा में सद्गुरु की ज्ञान प्रतिभा प्रकट हो जाती है एवं दिव्य चेतन धारा प्रवाहित हो जाती है, वही सद्गुरु निर्मित आत्मसमर्पित भक्त सद्गुरु पद के योग्य है। अपने मन से कोई सद्गुरु पद को प्राप्त नहीं कर सकता। सद्गुरु की ज्ञान धारा ऊपर से आती है और वही ज्ञानधारा जिस आत्मा के अन्दर प्रकट प्रवाहित होती है, वे महापुरुष सद्गुरु पद पर सुशोभितहोते हैं। अनुभव साक्षात्कार, वीतराग होने पर ही सद्गुरु का पद प्राप्त होता है। वेद वेदांग और शास्त्रों के पढ़ने से कोई सद्गुरु नहीं हो सकता। बल्कि जिस आत्मा में अनुभव चेतन दृष्टि सदगुरु की दया से प्राप्त होती है, वही श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरुष सद्गुरु पद के अधिकारी और ब्रह्मविद्या के आचार्य सद्गुरु होते हैं। ज्ञान दृष्टि के खुल जाने पर ही ब्रह्मप्रमा अन्दर प्रकट होती है और उसी के द्वारा बाह्य-आभ्यन्तर समस्त तत्त्वों का बोध होता है। पुस्तक पढ़कर और वाचक ज्ञान होने से सद्गुरु पद प्राप्त नहीं होता।
किसी वस्तु का यथार्थ तत्त्वज्ञान अनुभव होने पर ही उस विद्या का कोई वेत्ता और उपदेष्टा हो सकता है। कोरे वाचक ज्ञानी, विद्वान् को ऋषि, आचार्य या गुरु मानना संसार में अन्धकार फैलाना है। अनुभव तत्त्वबोध के न होने पर ही वैदिक विज्ञान के हास में अनेक पन्थ, सम्प्रदायों की रचना हुई है, इसलिए इस पद में सद्गुरु के पद प्राप्त होने पर ही ब्रह्मविद्या के उपदेश करने का अधिकारी बतलाया गया है। मनमुखी कोई सद्गुरु नहीं होता, बल्कि गुरुमुखी, आप्त, अनुभवदर्शी, महान् तत्त्ववेत्ता और वीतरागी पुरुष ही सद्गुरु पद को प्राप्त करते हैं, इसलिए वेद-वेदांग और शास्त्रों के ज्ञान हो जाने पर भी ब्रह्मविद्या के बोध और अनुभव विज्ञान की प्राप्ति के लिए अधिकारी बन सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। परोक्ष ज्ञान के पश्चात् अपरोक्ष विज्ञान होना चाहिए। यही कारण है कि समस्त वेद-विद्याओं के पढ़ने के बाद भी वाचक ज्ञानी ब्रह्मविद्या के वास्तविक बोध से वंचित रहते हैं और वैदिक विद्यायें मात्र वाचक ज्ञान ही रह गयीं और वैदिक रहस्य का लोप होने लगा। वेदों में पितृ विद्या, भूतविद्या एवं दैवविद्या है, परन्तु इन विद्याओं के वेत्ताओं का नितान्त अभाव है। कितने वैदिक विद्वान् पितृविद्या की व्याख्या करने वाले निपुत्री और संतानहीन पाये जाते हैं। कारण कि उन्हें पितृविद्या का केवल वाचक ज्ञान है। उसका उन्हें अनुभव-विवेक नहीं है। यही दशा अपराविद्या के विद्वानों की है। वे बाह्य ज्ञान को ही प्राप्त कर आत्मा को कृतकृत्य कर रहे हैं और अपने में श्रेष्ठत्व का विवेक रखते हैं, इसलिए अध्यात्म जिज्ञासु अधिकारियों को आवश्यक है कि सर्व अभिमान कुतर्कना को छोड़कर अपने आध्यात्मिक कल्याण की प्राप्ति के लिए ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण को प्राप्त करें।
3 अज सुकृत दर्शन नहीं, होय दर्शन नहीं। वह सद्गुरु पद है नहीं, वैकल्पिक गुरु जग माहीं।
शब्दार्थ
(अज सुकृत) नित्य अनादि सद्गुरु देव (दर्शन) साक्षात्कार, प्रकट दर्शन (व्यर्थ) निरर्थक (परीक्षा) जांच, अवलोकन, निर्णय।
भाष्य
जो गुरु चारों युगों में अपनी इच्छानुकूल, स्वतन्त्र प्रकट होकर संसार के भव तपित जीवों को अमृत शान्ति प्रदान करते हैं, उन्हें नित्य अनादि सद्गुरु कहते हैं। उन्हीं को इस पद में अज, सुकृत कहा गया है। ब्रह्मविद्या के आदि आचार्य सुकृत देव हैं। इन्हीं को वेदों में 'अज' या सुकृत कहा गया है। जब तक ब्रह्मविद्या के आचार्य को इस अज, सुकृत का प्रत्यक्ष दर्शन नहींहोता, न उनकी परीक्षा होती है, तब तक सद्गुरुपद नहीं प्राप्त होता। नित्य अनादि सद्गुरु की ज्ञान-धारा जब अधिकारी आचार्य में आ जाती है, तभी सद्गुरु का पद प्राप्त होता है। अजगुरु की स्वाति शिष्य पदाधिकारी सद्गुरु को प्राप्त होती है और उसी से वह आत्मा बलवती और तेजस्वी एवं ब्रह्मविद्या की सर्व कलाओं का वेत्ता एवं पूर्ण मर्मज्ञ हो जाती है। इसलिए अज सुकृत द्वारा ही सद्गुरु का पद प्राप्त होता है। जिन्हें सद्गुरु का दर्शन नहीं, वे मनमुखी गुरु संसार में व्यर्थ गुरुपद को धारण करते हैं। सभी गुरुओं के गुरु नित्य अनादि अज सुकृत देव हैं। उन्हीं के द्वारा सृष्टि प्रारम्भ काल से ब्रह्मविद्या के अधिकारी जीव तत्वज्ञान बोध पाकर अमृत परमानन्द को प्राप्त कर कृतकृत्य होते हैं।
4 जब तक सुकृतदेव की, आज्ञा सनद न छाप। मन मुख सद्गुरु नहीं बने, अद्भुत सद्गुरु माप।
शब्दार्थ
(सुकृत देव) अज सद्गुरु (आज्ञा) आदेश (सनद) प्रमाण पत्र (छाप) तिलक, संकेत (मनमुख) स्वतन्त्र गामी, नियम स्थिर गति वाला (सद्गुरु) ब्रह्मविद्या का गुरु आचार्य (अद्भुत) आश्चर्यजनक (मानचित्र) आयाम, तौलिया-जोख।
भाष्य
जब तक अज सुकृत देव का आदेश, प्रमाण और अभिषेक प्राप्त नहीं होता, तब तक मनमुखी सद्गुरु का पद नहीं होता। सद्गुरु के लिए सद्गुरु की अद्भुत प्रस्तुति है। वह सत्य आख़री पर ही सद्गुरु का पद प्राप्त होता है। सद्गुरु देव सद्गुरु तोड़ रहे हैं। कोई जीव सद्गुरु नहीं बनाता। यही इस दोहे का अभिप्राय है।
5 गति विहँग न्यारा चले, प्रकृति अल्प भू ज्ञान। निराधार वे ऊड़ता, ज्यों जग में व्योमयान।
शब्दार्थ
(गति विहॅग) विहंगम योग का पथ (न्यारा) अलग (अल्पभू) अल्प भूमि (निराधार) आधार रहित (जग) संसार (व्योमयान) आकाश में उड़ने वाले जहाज।
भाष्य
विहंगम योगी प्रकृति का ज्ञान रख करके उससे आगे निराधार गति से आकाश में चलता है, जिस प्रकार संसार में पृथ्वी मण्डल का ज्ञान रखते हुए निराधार व्योमयान आकाश में उड़ता है। विहंगम योग में प्रकृति का ज्ञान रख कर अपने मण्डल के भीतर चेतन सुरति निराधार होकर आकाश में गमन करती है।
6 सार शब्द उपदेश है, गूँगा गूँगे सैन। अवर भेद जाने नहीं, मूक होय मिल सैन।
शब्दार्थ
(सारशब्द) पर पुरुष (उपदेश) दीक्षा, तत्त्वज्ञान (गंगाल) मूक व्यक्ति (सैन) संकेत (भेद) सांकेतिक ज्ञान, अनुभव-भेद, साधन-रहस्य।
भाष्य
उत्तम कोटि के शिरोव्रतधारी अधिकारी के लिए सारशब्द अर्थात् ब्रह्मविद्या के अन्तिम कोटि का उपदेश गूँगा और गूँगे की सैन के समान है। जैसे गूँगा गूँगे की सैन को समझ लेता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक सदुपदेश को आचार्य अपनी ज्ञान प्रतिभा के दिव्य संकेत द्वारा ही अधिकारी की ज्ञान-दृष्टि खोलकर बतला देते हैं। उत्तम कोटि के भक्त को आचार्यगण सैन, संकेत से ही ब्रह्मविद्या का उपदेश दे देते हैं और वह अधिकारी उस तत्त्वज्ञान बोध को प्राप्तकर शान्त और निमग्न हो जाता है। इस भेद को अनाधिकारी नहीं जानते। मन, इन्द्रियगणों के दोष शान्त हो जाने पर, बाहरी विषय-प्रवाह अधिकारी के शान्त रहते हैं, इसलिए वह मूक हो जाता है। मूक होने पर ही ब्रह्मविद्या का तत्त्वज्ञान का बोध पूर्ण रूप से प्राप्त होता है, अशान्त और अजितेन्द्रिय व्यक्ति ब्रह्मविद्या-उपदेश का अधिकारी नहीं होता। इसलिए शम, दम आदि गुणों से सम्पन्न अधि कारी होकर ब्रह्मविद्या तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए।
7 पीले प्याला प्रेम का, मुख पर लाली आय। प्रिय मुख ज्यों लाली पड़ी, वह छवि वरनि न जाय।
शब्दार्थ
(प्याला) प्रेम पात्र जिसमें रस रखा है (प्रेम) भक्ति आनंद, सोमरस (लाली) प्रकाश, प्रियतम की प्रतिभा (प्रिय) प्रभु, स्वामी (छवि) शोभा (वर्णि न) अकथानीय।
भाष्य
शब्दामृत का पान करने पर योगी मधुमान हो जाता है और उसके अन्दर परम प्रियतम प्रभु की लाली आ जाती है, अर्थात् उसके परम प्रकाश से आत्मा ओत-प्रोत परिपूर्ण हो जाती है, प्रिय मुख की लाली जब अपने मुख पर प्रकट होती है, उस काल की छवि अर्थात् आनन्दमय परम सौन्दर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। वह आत्मरति अनुभव करने योग्य है। उस परम सुख प्राप्त होने की छवि अनुपमेय है। जब योगी का अधर किवाड़ खुल जाता है, तब ब्रह्मानन्द की अमृतधारा प्रकट प्रवाहित होने लगती है। उस अवस्था में योगी ब्रह्म में किलोल करता है और उस प्रथम मिलन का सुख और शोभा वर्णन नहीं किया जा सकता। इस ब्रह्म किलोल में योगी परमानन्द को प्राप्त कर अपने को कृतकृत्य करता है। इसी भाव को सद्गुरु देव ने इस पद में इस रूप में वर्णन किया है।
8 मीन महानद बूड़ कर, समझे जीवन प्रान। सूखे रह सकती नहीं, त्यों जन प्रभु महँ जान।
शब्दार्थ
(मीन) मछली (महानद) समुद्र या बड़ी नदी (जन) प्रभु-भक्त।
भाष्य
मछली अपने जीवन का प्राण जल को समझ कर समुद्र में बूड़कर रहती है। जल बिना एक क्षण भी जीवन को धारण नहीं कर सकती, उसी प्रकार प्रभु के भक्त अपने जीवन को प्रभु-भक्ति के अतिरिक्त एक क्षण भी विलग नहीं रखते। यही जलमीनवत् भक्ति की महती महिमाहै। प्रभु की भक्ति जलमीनवत् होती है, जिसमें जीवन का एक श्वाँसा भी प्रभु को छोड़कर बाहर न जावे। यही जलमीनवत् उत्तम भक्ति का पवित्र स्वरूप है।
9 ज्वाला अगिन प्रदिप्त में, समिधा कूद स्वभाव। ज्योति स्वरूपी बन गई, त्यों हरि जन हरि भाव।
शब्दार्थ
(ज्वाला) लहर, आँच (अगिन) अग्नि अर्थात् अग्नि शिखा (प्रदीप्त) करिश्मा, धधकती हुई (हरिजन) प्रभु के आत्मसमर्पित भक्त (समिधा) लकड़ी, यज्ञ का इंधन।
भाष्य
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि में समिधा जलकर उसके ज्योति-स्वरूप बन जाती है, उसी प्रकार प्रभु के आत्मसमर्पित भक्त प्रभु को सर्वस्व निछावर कर उसी के स्वरूप हो जाते हैं, अर्थात् जिस प्रकार लकड़ी अग्नि में प्रवेश कर जल करके अग्नि का स्वरूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार प्रभु के भक्त सर्व अभिमान छोड़कर आत्म समर्पण करके प्रभु के स्वरूप हो जाते हैं, तभी उन्हें भक्ति का परम सुख प्राप्त होता है।
10 समर क्षेत्र में कूद कर, रण ज्वाला पर जाय। प्राक्रम ज्योतिय प्रकट कर, दूर ज्योति नहिं पाय।
शब्दार्थ
(समर क्षेत्र) लड़ाई का मैदान (रणज्वाला) घोर युद्ध अर्थात् युद्ध काल की प्रचण्ड अग्नि, जिसमें योद्धा अपनी विजय प्राप्ति के लिये जीवन की बाजी लगा देते हैं, (प्राक्रम) प्रबल पुरुषार्थ की अन्तिम अवस्था (दूर ज्योति) अलग प्रकाश, विजय प्राप्ति के लक्ष्य में अन्य चेष्टा से रहित।
भाष्य
जिस प्रकार वीर योद्धा लड़ाई के मैदान में जाकर घोर युद्ध में अपने प्रबल पुरुषार्थ को प्रकट कर, विजय प्राप्त कर लेता है, उस काल में तनिक भी शत्रु को समय नहीं देता। उसी प्रकार प्रभु आत्मसमर्पित सन्त योगाभ्यास रूपी परम तपस्या की अग्नि में अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपनी सारी शक्तियों को लेकर अपने ध्येय की प्राप्ति में उसके स्वरूप बन जाते हैं। उस काल में एक तिल भी अपनी ध्येयचेष्टा से विलग नहीं होते। भक्ति में प्रभु-प्राप्ति-काल-योग-अनुष्ठान में योगसाधकों की ऐसी ही अवस्था होनी चाहिए, तभी इस आध्यात्मिक संग्राम में विजय प्राप्त होगी। ग्रन्थकार सद्गुरु देव जी ने इसी प्रकार घोर परिश्रम कर समाधि-अनुष्ठान में एक तिल भी बाहर श्वाँस न करके अहर्निश पुरुषार्थ द्वारा इस जीवन्मुक्ति अवस्था को प्राप्त किया था। उसी भाव को आपने इस दोहे में प्रकट किया है। योग के प्रबल पुरुषार्थ द्वारा ही जीवन्मुक्ति, परम अवस्था की प्राप्ति होती है।
11 सती चिता पर भस्म हो, सतीत्वहिं परिचय देय। जीते जी क्यों मानिये, सिध प्रमाण परमेय।
शब्दार्थ
(सती) पतिव्रतधर्म का पालन करने वाली पत्नी (चिता) श्मशान (प्रमाण) साक्षी (परमेय) जिसमें प्रमाण शामिल है, प्रतिपाद्य वस्तु।
भाष्य
सती स्त्री अपने पति के साथ भस्म होकर अपने सतीत्व की रक्षा कर अपना परिचय देती है। जीते जी वह सतीत्व का कैसे परिचय दे सकती है? वह भस्म होकर ही स्वतः उसका प्रमाण बन सतीत्व रूपी प्रमेय को सिद्ध कर देती है। जीवन्मृतक होकर प्रभु में आत्म समर्पण कर उस परमप्रभु की प्राप्ति होती है। भक्तिपथ में शूर और सती का उदाहरण देकर भक्ति के परम पथ की महिमा गायी गयी है। इसी प्रकार प्रभु-भक्त अपने सर्व आश, अभिमान को छोड़कर एक प्रभु की प्राप्ति में अपने जीवन को अर्पण कर देता है, तभी उस परमपद, परमानन्द की प्राप्ति से कृतकृत्य होता है। सती दूसरे का पिष्टपेषण नहीं करती, बल्कि अपना परिचय स्वतः दे दूसरे के लिए प्रमाण स्वरूप बन संसार के लिये अपने स्वतः प्रमेय बन जाती है।
12 एक अवस्था लय मिलै, अन्य अवस्था आय। साथ साथ नहिं बनत है, धर्मी धर्म बताय।
शब्दार्थ
(अवस्था) दशा-गति-समय (लय) अभाव (अन्य) दूसरा (धार्मिक) धर्म करने वाला (धर्म) कर्तव्य क्रिया।
भाष्य
जिस स्थिति का धर्मी होता है, वह उसी स्थिति से अपनी दशा में अपने धर्म का पालन करता है अर्थात् धर्मी के अनुसार ही धर्म होता है। जिस भूमि का धर्मी होता है, उसी के अनुसार वह धर्म करता है। एक अवस्था के अभाव में दूसरी अवस्था प्राप्त होती है। दोनों अवस्थाएँ एक साथ नहीं रहतीं। इसलिए अपनी भूमि के ज्ञान के अनुसार ही अपने साध्य की प्राप्ति होती है और उसका प्रकाश-ज्ञान और आनन्द की उपलब्धि होती है।
13 यह रहता है तो वह कहाँ, वह यह रहता है नहीं। जियत् मरे सो पुरुष है, अमर भये जग माहीं।
शब्दार्थ
(पुरुष) जिसमें असंबद्ध जीवन है, जो सारे देह संघ रूपी पुर में निवास करता है, वह आत्मा (अमर) मृत्युंजय, जीवनमुक्त है।
भाष्य
मनमाया संसार के रहते वह परमप्रभु कहाँ रहता है? परमप्रभु के रहते यह मनमाया नहीं रहती। संसार में रहते हुए जो मन इन्द्रिय जगत् से मरकर उपरम हो, जीवन्मुक्त हो गये हैं, वे ही सच्चे अर्थ में पुरुष हैं और वे ही इस भौतिक संसार में मरकर अमर हो जाते हैं एवं अपने परमानन्द को प्राप्त कर उसमें सदैव निमग्न रहते हैं।


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