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प्रथम मण्डल षष्ठ अध्याय पेज नंबर 33 अंतर दृष्टिहिं सूक्ष्म कर, झिना से अति झिन। अनुभव में अनुभव करो, संत माता परवीन ।

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1 अंतर दृष्टिहिं सूक्ष्म कर, झिना से अति झिन। अनुभव में अनुभव करो, संत माता परवीन । शब्दार्थ  (अन्तर) भीतर (दृष्टि) चेतन दृष्टि, बाह्य दृष्टि बन्द करके जगत् की दृष्टि से देखना (अनुभव) आत्मभूमि का ज्ञान (अनुभव) दिव्य आलोक, चेतन प्रकाश का साक्षात्कार (संतमत) अनुभव-पथ-विहंगम-मार्ग (परवीण) वेत्ता, अनुभव दृष्टा। भाष्य  जब आत्मा की शक्ति प्राकृतिक बाह्य करणों पर पड़ती है, तब मन के सम्बन्ध से इन्द्रियों में प्रेरणा हो कर जगत् का व्यवहार होता है। चेतन दृष्टि से जड़ दृष्टि का सम्बन्ध हो जाने पर चर्म चक्षु से बाह्य दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। उस जड़ दृष्टि से सम्बन्ध न करके, अन्तर्मुख चेतन दृष्टि को बाह्य प्रवाह से रोक कर, सूक्ष्म करके अत्यन्त सूक्ष्म सद्‌गुरु भेद साधन में प्रवेश कर अपने आत्म स्वरूप से परब्रह्म तत्त्व को प्रत्यक्ष करो। सन्तमत के अनुभवी योग रहस्य वेत्ता इस अनुभव चेतन पथ से आत्मस्थित सर्व व्यापक परब्रह्म का यथार्थ साक्षात्कार करते हैं। प्रकृति, आत्मा और अक्षर से परब्रह्म सूक्ष्म है, इसलिए सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होकर अनुभव दृष्टि से परब्रह्म का अनुभव-साक्षात्कार करने का उपदे...

पंचम अध्याय पेज नंबर 32 ब्रह्मवेत्ता दरबार में, बैठो सज्जन होय। गो मन अ‌ङ्ग सम्हार कर, वाणी चपल न होय ।

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1 ब्रह्मवेत्ता दरबार में, बैठो सज्जन होय। गो मन अ‌ङ्ग सम्हार कर, वाणी चपल न होय । शब्दार्थ (ब्रह्मवेत्ता) ब्रह्मतत्त्व का अनुभव, जड़-चेतन आध्यात्मिक सर्व तत्त्वों को जानने वाला (दरबार) संत-सभा, सद्गुरुधाम, सद्गुरु उपदेश (गो मन) इंद्रिय मन (अंग) शरीर का अव्यय, भाग (संहार) एकत्र, एकत्रित (वाणी) बोली (चपल) तेज। भाष्य ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु के धाम पर उनके सत्संग उपदेश में इन्द्रिय, मन, वाणी और अपने अगों को सम्हार कर संगति, व्यवहार से युक्त हो, नम्रता डनक, सज्जन सासा कथाचाहिए। सद्‌गुरु उपदेश को बुद्धि, मन एकाग्र कर शान्त चित्त से श्रवण करना चाहिए। मन, इन्द्रिय और वाणी के आलाप में एकाग्रता नहीं रहती और बिना शान्त हुए शान्ति का उपदेश प्राप्त नहीं होता, इसलिए सद्गुरु शरण में जाकर सरल चित्त से, विनयपूर्वक, ब्रह्मविद्या का तत्त्वज्ञान-बोध प्राप्त करना चाहिए। 2 सारा देह संघात का, संचालक कूटस्थ है, संचालन जो होय । अक्षर कहते सोय । शब्दार्थ (सारा देह संघात) जड़ अनात्म शरीर संघात देह, मन, बुद्धि, प्राणादि (संचलन) गति, क्रिया चलना (संचालक) गति वाला (कूटलेख) एक रूप से स्थिर, जिसका कोई परिवर्तन नहीं होता ...

पंचम अध्याय पेज नंबर 31अक्षर पर निःशब्द है, मंडल दिव्य दर्शन। चेतन स्थिर शान्त है, गुणातीत स्वरूप ।

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1 अक्षर पर निःशब्द है, मंडल दिव्य दर्शन। चेतन स्थिर शान्त है, गुणातीत स्वरूप । शब्दार्थ  (अक्षर) ब्रह्म (पर) सूक्ष्म, अवस्थित (निःशब्द) निःअक्षर पूर्ण पुरुष (मंडल दिव्य मंडप) उपमाअक्षर प्रकाशमय परिधि, समाथि चेतन मंडल (चेतन) आत्मा (स्थिर) केन्द्रित, दृढ़ (शांत) द्वंद्वरहित (गुणातीत) त्रिगुणराहित (स्वरूप) सत्ता, अनुभूति। भाष्य अक्षर से परे सूक्ष्म सूक्ष्म के आगे निःशब्द का दिव्य मण्डल है। आत्मा उस दिव्य मंडल को त्रिगुणों के द्वन्द्व से प्राप्त कर स्थिर, शांत हो जाती है। प्रकृति मण्डल जाने पर त्रिगुणों के द्वन्द्व छूट जाते हैं और वह द्वन्द्वतीत योगी त्रिगुणों के घटक हो निःशब्द के दिव्य प्रकाश में स्थिर एवं शांत हो जाते हैं। यही गुणातीत योगी का शुद्ध स्वरूप है। 2 गुणातीत निर्द्वन्द्व है, पावें पुर नन्द। अगम्य वे गम्यें मिलतु है, होवे परमानन्द । शब्दार्थ  (गुणातीत) त्रिगुणों से अव्यय (निर्द्वन्द्व) द्वन्द्ववस्तु (पूर्णानन्द) पूर्णपरमब्रह्म का आनन्द (अगम्य गम्य) मन, बुद्धि, इन्द्रिय से प्राप्त न होने योग्य, बल्कि प्रकृति पार चेतन अनुभव गम (मिलतु) प्राप्ति (परमानन्द) प्रकृति पार आत्म...

पंचम अध्याय पेज नंबर 30 सुक्ष्म और स्थूल का, नाद भेद है दोय। अन्तर सुक्ष्म सो जानिये, स्थूल है बाहर सोय।

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1 सुक्ष्म और स्थूल का, नाद भेद है दोय। अन्तर सुक्ष्म सो जानिये, स्थूल है बाहर सोय। शब्दार्थ (सूक्ष्म) सूक्ष्म अन्तर्हित, अन्तर्हित (नाद) ब्रह्माण्डी शब्द (भेद) अन्त स्यूल) मोटा, साकार, व्यक्त। भाष्य  स्थूल और सूक्ष्म ये दो नाद के भेद हैं। अन्तर ब्रह्माण्ड में नाद सूक्ष्म हैं और बाहर व्यक्त वर्ण व्यंजन स्थूल हैं। यही नाद के सूक्ष्म और स्थूल में अन्तर है। इस पद में ब्रह्माण्डी पंच शब्दों को नाद कहा गया है। 2 मह मण्डल आकाश है, अक्षर से उतपान। महा शून्य से प्राण है, कारण माहिं समान । शब्दार्थ  (मह मंडल आकाश) चराचर संपूर्ण जगत के विस्तार के लिए अवकाश रूप परिमंडल (अक्षर) ब्रह्म (महाशून्य) परमाणु मंडल (प्राण) प्रकृति संघात में जीवन धारण करने वाली शक्ति (कारण) बीज, आधार, मूलयोनि। भाष्य  ब्रह्म से आकाश महामण्डल प्रकट होता है एवं महाशून्य से प्राण की उत्पत्ति होती है। वह प्राण अक्षर के आधार पर देह संघात की क्रिया करता है। प्राण का आधार अक्षर है, क्योंकि वह योग विधान द्वारा अक्षर मण्डल में पहुँच कर शान्त हो जाता है। 3 अक्षर से गति प्राण में, चक्र नाल इन्द्रिय चले, प्राण से तन व्यवपा...

पंचम अध्याय पेज नंबर 29 क्षर पर अक्षर गाजता, निःअक्षर सब पार। मण्डल तीनों अलग है, अनुभव ज्ञान अपार ।

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1 क्षर पर अक्षर गाजता, निःअक्षर सब पार। मण्डल तीनों अलग है, अनुभव ज्ञान अपार । शब्दार्थ (क्षर) अनित्य ब्रह्माण्डी जड़ शब्द और समग्र प्राकृतिक जड़ दृश्य (पर) ऊपर, उत्कृष्ट, आकृति (अक्षर) ब्रह्म (गजता) शक्तिपूर्ण गहन ऊंचा ध्वनि करना (सब पार) सबसे परे निःअक्षर, निःशब्द, परम पुरुष। भाष्य  प्रकृति से बने हुए सभी पदार्थ क्षार हैं। क्षर एवं पदार्थ सदैव नाशवान अनित्य होते हैं। आकाश, वायु एवं अग्नि आदि पंच तत्त्व, जड़, अनित्य वस्तुएँ हैं। जो पदार्थ अपने से भिन्न दूसरे कारण से प्रकट होते हैं, वे सभी कृत्रिम पदार्थ क्षार हैं। प्रकृति की विकृति स्थावर, जड़ जगत् सभी क्षर हैं। प्रकृति मण्डल के संयोजित पंच शब्द, दस अनहद और सभी वर्ण, वाच्य शब्द क्षर, नाशवान है। एक पाद प्रकृति के घटक जो पदार्थ हैं, वे सभी क्षार हैं। दंत, ओष्ठ, मूढ़ रता और कण्ठ से, प्राणों के प्रयास से जो शब्द होते हैं, वे सभी क्षार हैं। राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग एवं जो चक्रों में शब्द प्रकट होते हैं, वे सभी क्षर हैं। पंच शब्दों में सोहं, शक्ति, रं तथा ओंकार आदि सभी शब्द क्षर, नाशवान हैं। श्वाँसा में सोहन की जो कल्पना की जाती ह...

चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 28 उत्तम एकाकी रहे, मध्यम सेवक संग। कनिष्ठ अनेको साथ में, अधम नगर बहु रंग।

 1 उत्तम एकाकी रहे, मध्यम सेवक संग। कनिष्ठ अनेको साथ में, अधम नगर बहु रंग। शब्दार्थ (उत्तम) प्रथम (मध्यम) दूसरा (कनिष्ठ) छोटा (अधम) नीच, चतुर्थ श्रेणी। भाष्य  उत्तम भजन एकाकी होता है। जहाँ पर दूसरा कोई नहीं है। मध्यम भजन सेवक को साथ रखने वाले का होता है और कनिष्ठ भजन अनेकों के साथ रहकर होता है एवं अधम भजन नगर और अनेक रंग-राग में रहने वालों का होता है। 2 अनन्य भक्त आशा तजे, जग से रहे निरास। संरक्ष प्रभु आप हैं, भक्ति रहस्य विलास । शब्दार्थ अनन्य भक्त) जिसको प्रभु के अतिरिक्त दूसरे की आशा नहीं है, एक आशा प्रभु की है, उसी को अनन्य भक्त कहते हैं (निरास) आशा से रहित (संरक्षक) रक्षा करने वाला (आप) परम पिता प्रभु (भक्ति रहस्य) प्रभु उपासना का अनुभव-भेद-साधन (विलास) आनन्द, परम सुख। भाष्य   प्रभु का अनन्य भक्त संसार की समस्त आशाओं को छोड़कर प्रभु की एक आश रखता है। जगत् की उसे किसी प्रकार की आशा नहीं रहती। संसार की आशा ही बन्धन-दुःख का कारण है। जिसे संसार की आशा लगी है, वह प्रभु का सच्चा भक्त नहीं है, न उसकी शरण को प्राप्त करता है। अनन्यशरण प्रभु भक्त को प्रभु के अतिरिक्त दूसरे की...

चतुर्थ अध्याय पेज नंबर 27 महि समान साधू रहैं, गुण आपन नहिं जान। तबहिं सन्त पद बनत है, सर्व ज्ञान गुण खान।

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1 महि समान साधू रहैं, गुण आपन नहिं जान। तबहिं सन्त पद बनत है, सर्व ज्ञान गुण खान। शब्दार्थ  (महि समान) पृथिवी के समान (साधू) सन्त (गुण) महिमा (सर्वज्ञान) जड़-चेतन समस्त ज्ञान (गुण) ऐश्वर्य, विद्या (खान) खानि, आकर। भाष्य  पृथिवी समस्त रत्नों की खानि है। इसी के अन्दर समस्त रत्न एवं धन प्राप्त होते हैं। सर्व रत्नों को पृथिवी छिपाकर रखती है, फिर भी वह अपनी महिमा को नहीं जानती, बल्कि जड़ हो कर रहती है। इसी प्रकार अनुभवी सन्त अपनी महिमा को जानते हुए भी संसार में अपने महत्व को न जानकर प्रभु की शरण में दीन-अधीन हो कर उसकी भक्ति में लगे रहते हैं। प्रभु की महिमा को ही अपनी महिमा समझ निशिदिन संसार से उदासीन हो प्रभुभजन में लगे रहते हैं। सन्त को भीतरी बाहरी एवं जड़-चेतन समस्त तत्वों का अनुभव बोध होता है। सर्व ज्ञान संसार में योगी सन्तों के द्वारा ही प्रकट होते हैं, इसीलिए सर्वज्ञान और गुणों की खानि सन्त को बतलाया गया है। संसार में सबसे उच्च पद सन्त का है और आध्यात्मिक जगत् में ब्रह्मविद्या के सब कलाओं के ज्ञाता सर्वद्रष्टा का पद सन्त से भी श्रेष्ठ है। एक सद्‌गुरु से अनेक सन्त बनते हैं। इस...